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बैठे हैं सुनहरी कश्ती में और सामने नीला पानी है

बैठे हैं सुनहरी कश्ती में और सामने नीला पानी है
वो हँसती आँखें पूछती हैं ये कितना गहरा पानी है

बे-ताब हवा के झोकों की फ़रीयाद सुने तो कौन सुने
मौज़ों पे तड़पती कश्ती है और गूँगा बहरा पानी है

हर मौज में गिर्यां रहता है गिर्दाब में रक़्साँ रहता है
बे-ताब भी है बे-ख़्वाब भी है ये कैसा ज़िंदा पानी है

बस्ती के घरों में क्या देखे बुनियाद की हुरमत क्या जाने
सैलाब का शिकवा कौन करे सैलाब तो अंधा पानी है

इस बस्ती में इस धरती पर सैराबी-ए-जाँ का हाल न पूछ
याँ आँखों आँखों आँसू हैं और दरिया दरिया पानी है

ये राज़ समझ मैं कब आता आँखों की नमी से समझा हूँ
इस गर्द ओ ग़ुबार की दुनिया में हर चीज़ से सच्चा पानी है

बन के दुनिया का तमाशा मोतबर हो जाएँगे

बन के दुनिया का तमाशा मोतबर हो जाएँगे
सब को हँसता देख कर हम चश्म-ए-तर हो जाएँगे

मुझ को क़द्रों के बदलने से ये होगा फ़ाएदा
मेरे जितने ऐब हैं सारे हुनर हो जाएँगे

आज अपने जिस्म को तू जिस क़दर चाहे छुपा
रफ़्ता रफ़्ता तेरे पकड़े मुख़्तसर हो जाएँगे

रफ़्ता रफ़्ता उन से उड़ जाएगी यक-जाई की बू
आज जो घर में वो सब दीवार ओ दर हो जाएँगे

आते जाते रह-रवों को देखता हूँ इस तरह
राह चलते लोग जैसे हम-सफ़र हो जाएँगे

आदमी ख़ुद अपने अंदर कर्बला बन जाएगा
सारे जज़्बे ख़ैर के नेज़ों पे सर हो जाएँगे

गर्मी-ए-रफ़्तार से वो आग है ज़ेर-ए-क़दम
मेरे नक़्श-ए-पा चराग़-ए-रह-गुज़र हो जाएँगे

कैसे क़िस्से थे कि छिड़ जाएँ तो उड़ जाती थी नींद
क्या ख़बर थी वो भी हर्फ़-ए-मुख़्तसर हो जाएँगे

क्या कहें ऐसे तक़ाजे हैं मोहब्बत के तो हम
अपनी बे-ताबी से हम रक़्स-ए-शरर हो जाएँगे

एक साअत ऐसी आएगी कि ये वस्ल ओ फ़िराक़
मेरे रंग-ए-बे-दिली से यक दिगर हो जाएँगे

काख़-ओ-कू-ए-अहल-ए-दौलत की बिना है रेत पर
इक धमाके से ये सब ज़ेर ओ ज़बर हो जाएँगे

ये अजब शब है उन्हें सोने न दो वर्ना ‘सलीम’
ख़्वाब बच्चों के लिए वहशत असर हो जाएँगे

देखने के लिए इक शर्त है मंज़र होना

देखने के लिए इक शर्त है मंज़र होना
दूसरी शर्त है फिर आँख का पत्थर होना

वहाँ दीवार उठा दी मिरे मेमारों ने
घर के नक़्शे में मुक़र्रर था जहाँ दर होना

मुझ को देखा तो फ़लक-ज़ाद रफ़ीकों ने कहा
इस सितारे का मुक़द्दर है ज़मीं पर होना

बाग़ में ये नई साज़िश है कि साबित हो जाए
बर्ग-ए-गुल का ख़स-ओ-ख़ाशाक से कम-तर होना

मैं भी बन जाऊँगा फिर सहर-ए-हवा से कश्ती
रात आ जाए तो फिर तुम भी समंदर होना

वो मिरा गर्द की मानिंद हवा में उड़ना
फिर उस गर्द से पैदा मिरा लश्कर होना

दर-ब-दर ठोकरें खाईं तो ये मालूम हुआ
घर किसे कहते हैं क्या चीज़ है बे-घर होना

कैसा गिर्दाब था वो तर्क-ए-तअल्लुक़ तेरा
काम आया न मिरे मेरा शनावर होना

तुम तो दुश्मन भी नहीं हो कि ज़रूरी है ‘सलीम’
मेरे दुश्मन के लिए मेरे बराबर होना

दिल के अंदर दर्द आँखों में नमी बन जाइए 

दिल के अंदर दर्द आँखों में नमी बन जाइए
इस तरह मिलिए कि जुज़्व-ए-ज़िंदगी बन जाइए

इक पतिंगे ने ये अपने रक़्स-ए-आख़िर में कहा
रौशनी के साथ रहिए रौशनी बन जाइए

जिस तरह दरिया बुझा सकते नहीं सहरा की प्यास
अपने अदंर एक ऐसी तिश्नगी बन जाइए

देवता बनने की हसरत में मुअल्लक़ हो गए
अब ज़रा नीचे उतरिए आदमी बन जाइए

जिस तरह ख़ाली अगूँठी को नगीना चाहिए
आलम-ए-इम्काँ में एक ऐसी कमी बन जाइए

दुख दे या रूसवाई दे

दुख दे या रूसवाई दे
ग़म को मिरे गहराई दे

अपने लम्स को ज़िंदा कर
हाथों को बीनाई दे

मुझ से कोई ऐसी बात
बिल बोले जो सुनाई दे

जितना आँख से कम देखूँ
उतनी दूर दिखाई दे

इस शिद्दत से ज़ाहिर हो
अँधों को भी सुझाई दें

उफ़ुक़ उफु़क़ घर आँगन है
आँगन पारसाई दे

जाने किसी ने क्या कहा तेज़ हवा के शोर में

जाने किसी ने क्या कहा तेज़ हवा के शोर में
मुझ से सुना नहीं गया तेज़ हवा के शोर में

मैं भी तुझे न सुन सका तू भी मुझे न सुन सका
तुझ से हुआ मुकालिमा तेज़ हवा के शोर से

कश्तियों वाले बे-ख़बर बढ़ते रहे भँवर की सम्त
और मैं चीख़त रहा तेज़ हवा के शोर से

मेरी ज़बान-ए-आतिशीं लौ थी मिरे चराग़ की
मेरा चराग़ चुन न था तेज़ हवा के शोर से

जैसे ख़रोश-ए-बहर में शोर-ए-परिंद डूब जाए
डूब गई मिरी सदा तेज़ हवा के शोर से

नौहा-गरान-ए-शाम-ए-ग़म तुम ने सुना नहीं मगर
कैसा अजीब दर्द था तेज़ हवा के शोर में

मेरे मकाँ की छत पे थे ताएर-ए-शब डरे डरे
जैसे पयाम-ए-मर्ग था तेज़ हवा के शोर से

मिन्नत-ए-गोश-ए-बे-हिसाँ कौन उठाए अब ‘सलीम’
नौहा-ए-ग़म मिला दिया तेज़ हवा के शोर से

जो आँखों के तक़ाज़े हैं वो नज़्ज़ारे बनाता हूँ 

जो आँखों के तक़ाज़े हैं वो नज़्ज़ारे बनाता हूँ
अँधेरी रात है काग़ज़ पे मैं तारे बनाता हूँ

मोहल्ले वाले मेरे कार-ए-बे-मसरफ पे हँसते हैं
मैं बच्चों के लिए गलियों में ग़ुब्बारे बनाता हूँ

वो लोरी गाएँगी और उन में बच्चों को सुलाएँगी
मैं माओं के लिए फूलों के गहवारे बनाता हूँ

फ़ज़ा-ए-नील-गूँ में हसरत-ए-परवाज़ तो देखो
मैं उड़ने के लिए काग़ज़ के तय्यारे बनाता हूँ

मुझे रंगों से अपने हैरतें तख़्लीक़ करनी हैं
कभी तितली कभी जुगनू कभी तारे बनाता हूँ

ज़मीं यख़-बस्ता हो जाती है जब जाड़ों की रातों में
मैं अपने दिल को सुलगाता हूँ अँगारे बनाता हूँ

तिरा दस्त-ए-हिनाई देख कर मुझ को ख़याल आया
मैं अपने ख़ून से लफ़्ज़ों के गुल-पारे बनाता हूँ

मुझे इक काम आता है ये लफ़्ज़ों के बनाने का
कभी मीठे बनाता हूँ कभी खारे बनाता हूँ

बुलंदी की तलब है और अंदर इंतिशार इतना
सो अपने शहर की सड़कों पे फ़व्वारे बनाता हूँ

जो दिल में दाग़ जल रहे हैं 

जो दिल में दाग़ जल रहे हैं
मस्जिद में चराग़ जल रहे हैं

जिस आग से दिल सुलग रहे थे
अब उस से दिमाग़ जल रहे हैं

बचपन मिरा जिन में खेलता था
वो खेत वो बाग़ जल रहे हैं

चेहरे पे हँसी की रौशनी है
आँखों में चराग़ जल रहे हैं

रस्तों में वो आग लग गई है
क़दमों के सुराग़ जल रहे हैं

कल नशात-ए-क़ुर्ब से मौसम बहार-अंदाज़ा था

कल नशात-ए-क़ुर्ब से मौसम बहार-अंदाज़ा था
कुछ हवा भी नर्म थी कुछ रंग-ए-गुल भी ताज़ा था

थक के संग-ए-राह पर बैठे थे तो उठे ही नहीं
हद से बढ़ कर तेज़ चलने का यही ख़म्याज़ा था

आईना दोनों के आगे रख दिया तक़दीर ने
मेरे चेहरे पर लहू था रू-ए-गुल पर ग़ाज़ा था

मुझ को मल्लाहों के गीतों से मोहब्बत है मगर
रात साहिल पर हवा का शोर बे-अंदाज़ा था

अब तो कुछ दुख भी नहीं है दाग़ भी जाता रहा
कल इसी दिल में यहीं इक ज़ख़्म था और ताज़ा था

गो यक़ीनी तो नहीं थे मेरे तख़मीने मगर
जो तुझे पेश आया उस का कुछ मुझे अंदाज़ा था

मेरे औराक़-ए-परेशाँ देखने वाले कभी
मैं किताब-ए-इश्क़ था और दिल मिरा शीराज़ा था

आँख में उस की चमक थी पर हवस-नाकी भी थी
रंग उस के रूख़ पे था लेकिन रहीन-ए-ग़ाज़ा था

जोश-ए-गिर्या मेरे रोने का ये शोर-ए-बाज़-गश्त
कुछ न था इक कूचा गर्द-ए-सब्र का आवाज़ा था

जाने अंदर क्या हुआ मैं शोर सुन कर ऐ ‘सलीम’
उस जगह पहुँचा तो देखा बंद दरवाज़ा था

कोई सितारा-ए-गिर्दाब आश्ना था मैं 

कोई सितारा-ए-गिर्दाब आश्ना था मैं
कि मौज मौज अंधेरों में डूबता था मैं

उस एक चेहरे में आबाद थे कई चेहरे
उस एक शख़्स में किस किस को देखता था मैं

नए सितारे मिरी रौशनी में चलत थे
चराग़ था कि सर-ए-राह जल रहा था मैं

सफ़र में इश्क़ के इक ऐसा मरहला आया
वो ढूँढता था मुझे और खो गया था मैं

लम्हा-ए-रफ़्ता का दिल में ज़ख़्म सा बन जाएगा 

लम्हा-ए-रफ़्ता का दिल में ज़ख़्म सा बन जाएगा
जो न पुर होगा कभी ऐसा ख़ला बन जाएगा

ये नए नक़्श-ए-क़दम मेरे भटकने से बने
लोग जब इन पर चलेंगे रास्ता बन जाएगा

गूँज सुननी हो तो तन्हा वादियों में चीख़िए
एक ही आवाज़ से इक सिलसिला बन जाएगा

जज़्ब कर दे मेरी मिट्टी में लताफ़त का मिज़ाज
फिर वो तेरे शहर की आब ओ हवा बन जाएगा

खींच लाएगी बगूलों को ये वीरानी मिरी
मेरी तन्हाई से मेरा क़ाफ़िला बन जाएगा

उस में लौ रख दूँगा मैं जलते हुए एहसास की
लफ़्ज़ जो होंटों से निकलेगा दिया बन जाएगा

जुगनुओं की मशअलों से सेहन की दीवार पर
रक़्स करती रौशनी कर दाएरा बन जाएगा

तल्ख़ियाँ एहसास की जब ख़ून में घुल जाएँगी
मेरा चेहरा मेरे ग़म का आइना बन जाएगा

इक बरहमन ने ये आ के सेहन-ए-मस्जिद में कहा
इश्क़ जिस पत्थर को छू ले वो ख़ुदा बन जाएगा

एक सीधी बात है मिलना न मिलना इश्क़ में
इस पे सोचोगे तो ये भी मसअला बन जाएगा

मेरे सीने में अभी इक जज़्बा-ए-बे-नाम है
ज़ब्त करते करते हर्फ़-ए-मुद्दआ बन जाएगा

दिल में जो कुछ है वो कद दो दोस्त से वर्ना ‘सलीम’
हर्फ़-ए-ना-गुफ़्ता दिलों का फ़ासला बन जाएगा

मिला जो काम ग़म-ए-मोतबर बनाने का

मिला जो काम ग़म-ए-मोतबर बनाने का
हुनर उस आँख को आया घर बनाने का

तुझी से ख़्वाब हैं मेरे तुझी से बेदारी
तुझे सलीक़ा है शाम ओ सहर बनाने का

मैं अपने पीछे सितारों को छोड़ आया हूँ
मुझे दिमाग़ नहीं हम-सफ़र बनाने का

ये मेरे हाथों में पत्थर हैं और रात है सर्द
मैं काम लेता हूँ उन से शरर बनाने का

सराए में कोई इक शब रूके तो बात है और
मगर सवाल है दुनिया को घर बनाने का

मकाँ के नक़्शे पे दीवार लिख दिया किस ने
यहाँ तो मेरा इरादा था दर बनाने का

ये और बात कि मंज़िल-फ़रेब था लेकिन
हुनर वो जानता था हम-सफ़र बनाने का

वो लोग कश्ती ओ साहिल की फ़िक्र क्या करते
जिन्हें है हौसला दरिया में घर बनाने का

हर एक तुख़्म को रिज़्क-ए-शिकम-पुरी न समझ
हुनर भी सीख ज़मीं से शजर बनाने का

बहुत तवील मिरी दास्तान-ए-ग़म थी मगर
ग़ज़ल से काम लिया मुख़्तसर बनाने का

मुझे इन आते जाते मौसमों से डर नहीं लगता

मुझे इन आते जाते मौसमों से डर नहीं लगता
नए और पुर-अज़ीयत मंज़रों से डर नहीं लगता

ख़ामोशी के हैं आँगन और सन्नाटे की दीवारें
ये कैसे लोग हैं जिन को घरों से डर नहीं लगता

मुझे इस काग़ज़ी कश्ती पे इक अंधा भरोसा है
कि तूफ़ाँ में भी गहरे पानियों से डर नहीं लगता

समंदर चीख़ता रहता है पस-मंज़र में और मुझ को
अँधेरे में अकेेले साहिलों से डर नहीं लगता

ये कैसे लोग है सदियों की वीरानी में रहते हैं
इन्हें कमरों की बोसिदा छतों से डर नहीं लगता

मुझे कुछ ऐसी आँखें चाहिएँ अपने रफ़ीक़ों में
जिन्हें बे-बाक सच्चे आईनों से डर नहीं लगता

मिरे पीछे कहाँ आए हो ना-मालूम की धुन में
तुम्हें क्या इन अँधेरे रास्तों से डर नहीं लगता

ये मुमकिन है वो उन को मौत की सरहद पे ले जाएँ
परिंदों को मगर अपने परों से डर नहीं लगता

न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था 

न जाने शेर में किस दर्द का हवाला था
कि जो भी लफ़्ज़ था वो दिल दुखाने वाला था

उफ़ुक़ पे देखना था मैं क़तार क़ाज़ों की
मिरा रफ़ीक़ कहीं दूर जाने वाला था

मिरा ख़याल था या खौलता हुआ पानी
मिर ख़याल ने बरसों मुझे उबाला था

अभी नहीं है मुझे सर्द ओ गर्म की पहचान
ये मेरे हाथों में अंगार था कि ज़ाला था

मैं आज तक कोई वैसी ग़ज़ल न लिख पाया
वो सानेहा तो बहुत दिल दुखाने वाला था

मुआनी-ए-शब-ए-तारीक़ खुल रहे थे ‘सलीम’
जहाँ चराग नहीं था वहाँ उजाला था

वो मिरे दिल की रौशनी वो मिरे दाग़ ले गई 

वो मिरे दिल की रौशनी वो मिरे दाग़ ले गई
ऐसी चली हवा-ए-शाम सारे चराग़ ले गई

शाख़ ओ गुल ओ समर की बात कौन करे कि एक रात
बाद-ए-शिमाल आई थी बाग़ का बाग़ ले गई

वक़्त की मौज तुंद-रौ आई थी सू-ए-मय-कदा
मेरी शराब फेंक कर मेरे अयाग़ ले गई

दिल का हिसाब क्या करें दिल तो उसी का माल था
निकहत-ए-ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं अब के दिमाग़ ले गई

बाग़ था उसे में हौज़ था हौज़ था उस में फूल था
ग़ैर की बे-बसीरती मुझ से सुराग़ ले गई

ज़िंदगी मौत के पहलू में भली लगती है 

ज़िंदगी मौत के पहलू में भली लगती है
घास इस कब्र पे कुछ और हरी लगती है

रोज़ काग़ज़ पे बनाता हूँ मैं क़दमों के नुक़ूश
कोई चलता नहीं और हम-सफ़री लगती है

आँख मानूस-ए-तमाशा नहीं होने पाती
कैसी सूरत है कि हर रोज़ नई लगती है

घास में जज़्ब हुए होंगे ज़मीं के आँसू
पाँव रखता हूँ तो हल्की सी नमी लगती है

सच तो कह दूँ मगर इस दौर के इंसानों को
बात जो दिल से निकलती है बुरी लगती है

मेरे शीशे में उतर आई है जो शाम-ए-फ़िराक़
वो किसी शहर-ए-निगाराँ की परी लगती है

बूँद भर अश्क भी टपका न किसी के ग़म में
आज हर आँख कोई अब्र-ए-तही लगती है

शोर-ए-तिफ़लाँ भी नहीं है रक़ीबों का हुजूम
लौट आओ ये कोई और गली लगती है

घर में कुछ कम है ये एहसास भी होता है ‘सलीम’
ये भी खुलता नहीं किस शय की कमी लगती है

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