दावर ने बंदे बंदों ने दावर बना दिया
दावर ने बंदे बंदों ने दावर बना दिया
सागर ने क़तरे क़तरों ने सागर बिना दिया
बे-ताबियों ने दिल की ब-उम्मीदर-शरह-ए-शौक़
उस जाँ-नवाज़ को भी सितम-गर बना दिया
पहली सी लज़्ज़तें नहीं अब दर्द-ए-इश्क़ में
क्यूँ दिल को मैं ने ज़ुल्म का ख़ू-गर बना दिया
कैफियत-ए-शबाब से माज़ूर कुछ हुए
कुछ आशिकों ने भी उन्हें ख़ुद-सर बना दिया
‘सेहर’ उस निगाह-ए-मस्त पे क़ुर्बान क्यूँ न हो
जिस के करम ने ज़िंदा क़लंदर बना दिया
फ़रिश्ते भी पहुँच सकते नहीं वो है मकाँ अपना
फ़रिश्ते भी पहुँच सकते नहीं वो है मकाँ अपना
ठिकाना ढूँडे दौर-ए-ज़मीं-ओ-आसमाँ अपना
ख़ुदा जब्बार है हर बंदा भी मजबूर ओ ताबे है
दो आलम में नज़र आया न कोई मेहरबाँ अपना
निगाह-ए-मुज़्तरिब फिर ढूँडती है किस को हर शय में
ज़मीन अपनी अज़ीज अपने ख़ुदा-ए-दो-जहाँ अपना
गुज़रने को तो गुज़रे जा रहे हैं राह-ए-हस्ती से
मगर है कारवाँ अपना न मीर-ए-कारवाँ अपना
न वो परवाज़ की कुव्वत न वो दिल की उमंग अब है
हुई मुद्दत चमन छूटे क़फस है आशियाँ अपना
पहेली खुद थी हस्ती इश्क़ ने कुछ और उलझाई
कोई ऐ ‘सेहर’ क्या समझे नहीं मैं राज़-दाँ अपना
हसीनों के तबस्सुम का तकाज़ा और ही कुछ है
हसीनों के तबस्सुम का तकाज़ा और ही कुछ है
मगर कलियों के खिलने का नतीजा और ही कुछ है
निगाहें मुश्तबा हैं मेरी पाकीज़ा निगाहों पर
मिरे मासूम दिल पर उन को धोका और ही कुछ है
हसीनों से मोहब्बत है उन्हीं पर जान देता हूँ
मिरा शेवा है ये लेकिन ज़माना और ही कुछ है
भला क्या होश आएगा बुझेगी क्या लगी दिल की
ये आँचल से हवा देने का मंशा और ही कुछ है
ज़बान ओ अक़्ल ओ दिल तारीफ़ से जिस की हैं बेगाने
उसे सजदा जो करता है वो बंदा और ही कुछ है
तुझे हर शय में देखा ‘सेहर’ ने हर शय में पहचाना
मगर फिर भी है इक पर्दा वो पर्दा और ही कुछ है
हुस्न-ए-मुतलक़ है क्या किसे मालूम
हुस्न-ए-मुतलक़ है क्या किसे मालूम
इब्तिदा इंतिहा किस मालूम
मेरी बे-ताबियों की खा के क़सम
बर्क़ ने क्या किया किसे मालूम
दिन दहाड़े शबाब के हाथों
हाए मैं लुट गया किसे मालूम
मेरी कुछ गर्म ओ सर्द आहों से
आसमाँ क्या हुआ किसे मालूम
हुस्न का हर ख़्याल रौशन है
इश्क़ का मुद्दआ किसे मालूम
‘सेहर’ के हम-नवा फ़रिश्ते हैं
है मक़ाम उस का क्या किसे मालूम
जब सबक़ दे उन्हें आईना ख़ुद-आराई का
जब सबक़ दे उन्हें आईना ख़ुद-आराई का
हाल क्यूँ पूछें भला वो किसी सौदाई का
महव है अक्स-ए-दो आलम मिरी आँखों में मगर
तू नज़र आता है मरकज़ मिरी बीनाई का
दोनों आलम रहे आग़ोश-कुशा जिस के लिए
मैं ने देखा है वो आलम तिरी अंगड़ाई का
आईना देख कर इंसाफ़ से कह दे ज़ालिम
क्या मिरा इश्क़ है मोजिब मिरी रूसवाई का
‘सेहर’ मसजूद-ए-दो-आलम किया उस को जिस ने
नक़्श ही नक़्श वो मेरी ही जबीं-साई का
जिस से वफ़ा की थी उम्मीद उस ने अदा किया ये हक
जिस से वफ़ा की थी उम्मीद उस ने अदा किया ये हक
औरों से इर्तिबात की और मुझे दिया क़लक़
तेरी जफ़ा वफ़ा सही मेरी वफ़ा जफ़ा सही
ख़ून किसी का भी नहीं तो ये बता है क्या शफ़क
मसहफ़-ए-रूख़ ही दर्द था और न था कोई ख़याल
इश्क़ ने ख़ुद पढ़ा दिया हुस्न का एक इक वरक़
और तो हैं रिवायतें मज़हब इश्क़ है सहीह
रोज़ अता हो शौक़ से वही नई नया सबक़
जज़्बा-ए-दिल ग़लत सही कुछ तो सुबूत-ए-इश्क़ देख
तफ़्ता जिगर हवास गुम ख़ीरा नज़र कलेजा शक़
‘सेहर’ तो मुजतहिद है ख़ुद क्यूँ हो मुक़ल्लिद और का
बहर ओ रदीफ़ ओ काफ़िया है फ़न्न-ए-शाइरी अदक़
मेरी क़िस्मत से क़फस का या तो दर खुलता नहीं
मेरी क़िस्मत से क़फस का या तो दर खुलता नहीं
दर जो खुलता है तो बंद-ए-बाल-ओ-पर खुलता नहीं
आह करता हूँ तो आती है पलट कर ये सदा
आशिकों के वास्ते बाब-ए-असर खुलता नहीं
एक हम हैं रात भर करवट बदलते ही कही
एक वो हैं दिन चढ़े तक जिन का दर खुलता नहीं
रफ़्ता रफ़्ता ही नक़ाब उट्ठेगी रू-ए-हुस्न से
वो तो वो है एक दम कोई बशर खुलता नहीं
तकमील-ए-इश्क़ जब हो कि सहरा भी छोड़ दे
तकमील-ए-इश्क़ जब हो कि सहरा भी छोड़ दे
मजनूँ ख़याल-ए-महमिल-ए-लैला भी छोड़ दे
कुछ इक्तिज़ा-ए-दिल से नहीं अक़्ल बे-नियाज़
तन्हा ये रह सके तो वो तन्हा भी छोड़ दे
या देख जाहिद उस का पस-ए-पर्दा-ए-मजाज
या ऐतबार-ए-दीदा-ए-बीना भी छोड़ दे
कुछ लुत्फ़ देखना है तो सौदा-ए-इश्क़ में
ऐ सर-फ़रोश सर की तमन्ना भी छोड़ दे
वो दर्द है कि दर्द सरापा बना दिया
मैं वो मरीज हूँ जिसे ईसा भी छोड़ दे
आँखें नहीं जो क़ाबिल-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल
तालिब से कह दो जौक़-ए-तमाशा भी छोड़ दे
है बर्क़-पाशियों का गिला ‘सेहर’ को अबस
क्या उस के वास्ते कोई हँसना भी छोड़ दे
तिरा वहशी कुछ आगे है जुनून-ए-फ़ित्ना-सामाँ से
तिरा वहशी कुछ आगे है जुनून-ए-फ़ित्ना-सामाँ से
कहीं दस्त ओ गिरेबाँ हो न आबादी बयाबाँ से
इलाही जज़्बा-ए-दिल का असर इतना न हो उन पर
परेशाँ वो न हो जाएँ मिरे हाल-ए-परेशाँ से
क़यामत है वो आए और आते ही हुए वापस
ये आसार-ए-सहर पैदा हुए शाम-ए-ग़रीबाँ से
नज़र वाले समझ जाएँ न अर्श और फ़र्श की निस्बत
तिरा दामन न छू जाए कहीं मेरे गिरेबाँ से
उरूज-ए-जोश-ए-वहशत ‘सेहर’ है ये रोज़-ए-रौशन में
नज़र आते हैं तारे रोज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ से
वो जो फ़िर्दोस-ए-नज़र है आईना-ख़ाना अभी
वो जो फ़िर्दोस-ए-नज़र है आईना-ख़ाना अभी
जलवा-गर जो वो न हों हो जाए वीराना अभी
शम्अ की लू में समा कर ख़ुद सरापा नूर हो
दूर-रस इतनी नहीं परवाज़-ए-परवाना अभी
तेरा दीवाना है उस की रफ़अतों का ज़िक्र क्या
गर्द की जिस की न पहुँचा कोई फ़रज़ाना अभी
मुल्तफ़ित हो कर न बख़्शें इस तरह लबरेज़ जाम
मेरी हस्ती का छलक जाए न पैमाना अभी
काबे से फिर आया वो बहर-ए-तवाफ़-ए-मय-कदा
‘सेहर’ की फ़ितरत में हैं अंदाज़-ए-रिंदाना अभी