आदत
कभी भट्ठी में पिघलता लोहा भी
मनमानी पर उतर आता है
बन्दूक के बदले
हँसिया में ढल जाता है
मगर
खून पीने की आदत
बदल नहीं पाता है
कवि
श्लथ क़दमों से
लौटता है घर
कवि
धीरे-धीरे
भर के निकला था सुबह
कविताओं की टोकरी
बिकी एक भी नहीं
वापिस लौटा है
लेकर,
भूख-प्यास
कुंठा-त्रास
और वही रोज़ की चिख-चिख
नंगे-अधनंगे बच्चे
हर सम्भव जगह
पिता पर झूल जाते हैं
उन्हें कुछ भी नहीं चाहिए
परम सन्तोषी हैं
लेकिन कवि कुछ चाहता है
अपने बच्चों से
उन्हीं की भाँति उमगती -विहँसती कविताएँ
और गदबदी भी
(उनकी तरह कुपोषित नहीं)
पर बच्चों के पास कविताएँ कहाँ !
न ही उन्हें ये मालूम है कि कैसे बनती हैं कविताएँ
फटे बिवाइयों वाले
निरीह से पाँव
जाने कब से चुभ रहे हैं
कवि की आँखों में
दबे कन्धों और झुकी आँखों से
देख रहा है पत्नी की रोनी सूरत
आजिज़ होकर उठता है
बच्चों को धूल-गर्द की भाँति
बदन से झाड़ते हुए
और पत्नी के होठों को
दोनों हाथों की उंगलियों से
निर्ममतापूर्वक खींचकर
कहता है –
“हँसती रहो भाग्यवान !
संपादकों को
अब हास्य कविताएँ चाहिए।”
गांधी के देश में
हमारे गाल पर
नहीं मारता अब तमाचा कोई
कि हम
तपाक से दूसरा गाल बढ़ा दें
अब तो चुभते हैं
उनके पैने दाँत
खच्च से हमारी गर्दन पर
और उनकी सहस्त्र जिह्वाएँ
लपलपा उठती हैं
फ़व्वारे की तरह चीत्कार करते खून पर
गांधी के इस देश में
हमें
ज़्यादा से ज़्यादा स्वस्थ होना होगा
ताकि हम उनकी खून की हवस बुझा सकें
या
उनकी यह आदत ही छुड़ा सकें
हे मेरी तुम
अनेक दुखों के भार से
बेजार हुई जा रही, इन दिनों
“हे मेरी तुम !”
मैं जानना चाहता हूँ
की हज़ार मुश्किलों के बीच
एकदम से मुस्करा पड़ने की
मज़बूरी क्या है ?
मैंने तुमसे, तुम्हारी
हँसी तो नहीं मांगी थी
यह और बात, कि
लाचारी भी नहीं मांगी थी
ऐसा नहीं कि तुमसे सुख न चाहा
शायद ! ऐसा भी नहीं
कि तुमने मेरे सुख को समझा ही नहीं !
ख़ुद को टुकड़ा-टुकड़ा करके
बारी-बारी देती गईं तुम
और मैं संकोचवश यह न कह सका
कि मैं तुम्हें पूरा चाहता हूँ
न ही यह, कि मैं
तुम्हें टुकड़े-टुकड़े होते नहीं देख सकता।