दँगा — तीन कविताएँ
एक
एक दिन मैं भी मार दिया जाऊँगा किसी दँगे में
फिर बीस साल बाद ये कहा जाएगा
कि मैं मारा नहीं गया हूँ दँगे में
जैसे भूख से मरने पर
कभी नहीं कहता है जिलाधीश
कि एक आदमी की मृत्यु हुई है
क्योंकि वह भूखा था कई दिनों से
इसलिए जब आएँगे दँगाई मुझे मारने मेरे घर
तो मैं सबसे पहले उनसे यही करूँगा विनती
कि मेरी जान ले लो
पर इसका सबूत ज़रूर देकर जाना तुम
कि मैं दँगे में तुम्हारे हाथो ही मारा गया हूँ
क्योंकि अदालत को दरकार होती है इन चीज़ों की
मेरे मरने की तुम सबूत के एवज़ में
मेरे बच्चे की भी तुम जान ले सकते हो
अब मैं मारे जाने के बाद
इकट्ठा कर रहा हूँ ख़ुद ही सबूत
सबूतों को इकठ्ठा करने में भी
मैं मर गया था
जज साहब
अगर मैं दे सका कोई सबूत
आप यक़ीन तो करेंगे मुझ पर
कि मैं मारा गया हूँ दँगे में ही
अगर आपको फिर भी लगता है
कि मैं मारा नहीं गया हूँ
तो मेरा चेहरा देखिए
क्या किसी ज़िन्दा आदमी का चेहरा
ऐसा ही दीखता है आपको ?
दो
क़ातिलों के कई घर हैं यहाँ
पर यहाँ कोई क़ातिल नहीं है .
क़ातिलों की बस्ती में भी अब कितनी रौशनी है
रौनक भी है उनकी महफ़िल में आजकल
पर तुम देख नहीं सकते किसी क़ातिल को
क़ातिलों को कभी पकड़ भी नहीं सकते हो
क़ातिल अब क़ातिल नहीं रहे
उन्हें तुम क़ातिल भी नहीं कह सकते हो ।
तीन
मेरे पास अब किसी चीज़ का कोई सबूत नहीं बचा है
बाढ़ में डूबा था मैं एक बार
तो उसका भी कोई सबूत नहीं है मेरे पास
आग जब लगाई गई थी मेरे घर में
तो उसका सबूत भी कहाँ जुटा पाया था मैं
बिना सबूत के मैं नहीं कह सकता
कि मेरी बहन के साथ बलात्कार हुआ ही था
तुम्हारे सामने ही हुए थे ये सारे हादसे मेरी ज़िन्दगी के
फिर भी तुम माँगते हो मुझसे सबूत
मैं भले ही हार जाऊँ हर बार अपना मुक़दमा
पर कम से कम इस बात का सबूत है
कि तुम्हारी तरह मैं कभी बिका नहीं था
पर तुम्हारे पास ढेर सारे सबूत होने के बाद भी
इस बात का सबूत नहीं है
कि तुम्हारे भीतर बचा है अभी भी एक आदमी
आएँगे अमरीका से अच्छे दिन
आएँगे
अब जल्द ही आएँगे
अच्छे दिन
सीधे अमरीका से आएँगे
दे दिया गया है आर्डर उनका
पिछले दिनों
दौरे पर
एक कम्पनी बना रही है उन्हें
नई तकनीक से
जल्दी ही आएँगे
अच्छे दिन
जापान से होते हुए
फ़्लाइट से आएँगे
इन्दिरा गान्धी एअरपोर्ट पर
उतारा जाएगा उन्हें
गाजे-बाजे के साथ
आएँगे अच्छे दिन
कार्टन में भर-भर कर
ऊपर लगी होगी पन्नी रँग-बिरँगी
गुलाबी फीता भी लगा होगा
शानदार पैकेजिंग में आएँगे
इम्पोर्ट होकर आएँगे
अच्छे दिन
जब एक्सपोर्ट होगी हमारी संस्कृति
तो आएँगे अच्छे दिन
एक दिन ज़रूर
फिर क्या तुम्हें नौकरी मिलेगी
एक बँगला भी मिलेगा
वाई-फ़ाई युक्त जीवन होगा
आएँगे अच्छे दिन
अगर विमान में होती जगह
तो उनके साथ ही आ जाते
लेकिन अब तुम्हारे घर
कुरियर से आएँगे
घर पर रहना आज तुम
घण्टी बजेगी
और एक आदमी तुम्हें करेगा डिलीवर
फिर क्या
बदल जाएगा तुम्हारा जीवन
न्याय ही न्याय होगा
ख़त्म हो जाएँगे अपराध
ग़रीबी मिट जाएगी
दाख़िले में कोई दिक्क़त नहीं होगी
इलाज़ भी हो जाएगा मुफ़्त
बिजली रहेगी दिन-रात
पानी भी चौबीस घण्टे
आएँगे अच्छे दिन
भले ही तुम इन्तज़ार करते-करते मर जाओगे
अदालत का चक्कर लगाते-लगाते बूढ़े हो जाओगे
नौकरी की खोज में बन जाओगे नक्सली
मुसलमान हो तो आतँकवादी कहलाओगे
रोटी के लिए चोरी करना भी सीख जाओगे
पर आएँगे अच्छे दिन
एक दिन याद रखना
बस कम्युनिस्टों की तरह आलोचना करना बन्द कर दो
हर अच्छी शुरुआत की
आएँगे अच्छे दिन
पर सबसे पहले
अख़बार में उसका इश्तहार आएगा
टी० वी० पर होगी उसकी ब्रेकिंग न्यूज़
रात आठ बजे
टक्कर में होगी उस पर एक बड़ी बहस
फिर तुम नहीं कहना
कि अच्छे दिन नहीं आए आजतक
और वो तो सिर्फ़ एक जुमला-भर था
अच्छे दिन इस तरह आएँगे
कि तुम देखते रह जाओगे
और उन्हें ढूँढ़ भी नहीं पाओगे
अछे दिनों के साथ
एक सेल्फ़ी खींचने के लिए, बस, तरस जाओगे
क्या-क्या नहीं सीखा मैंने
क्या-क्या नहीं सीखा था मैंने
चाय बनाते-बनाते
सब से पहले यही सीखा था
मजमे लगाने की कला
फिर सीखी हाथ चमकाकर
बोलने की शैली
चाय बनाते-बनाते ही जाना था मैंने
जब पानी और चीनी में अन्तर है
तो
दो कौमों में भी है बहुत फ़र्क
अलग है भाषा और लिपि
तो वे एक कैसे हो सकते हैं
फिर ये भी सीखा
धर्म की बुनियाद से ही होगा विकास मुल्क़ का
सीखी मैंने चेहरे पर मुखौटे लगाने की कला
यह भी सीखा मैंने
ज़रूरत पड़ने पर गिरगिट की तरह रँग भी बदला जा सकता है
चाय बनाते हुए ही मैंने सीखा उसे कैसे बेचा भी जाता है
फिर पैकेजिंग की कला में निष्णात हो गया
नाम बदलकर उसे बेचने में उस्ताद हो गया
चाय बनाते-बनाते मानवता और ईमानदारी पर भाषण देना भी सीख गया
सीख लिया कि वक़्त पड़ने पर
कैसे अपना उल्लू सीधा किया जाता है
और बहुत कुछ सीखा
जिसकी एक लम्बी फेहरिस्त जारी भी की जा सकती है
चाय बनाते-बनाते देश को बेचने की तरक़ीब भी सीख गया मैं
अमीरों के विकास को
ग़रीबों के विकास की शक़्ल में पेश करना भी सीख गया
चाय बनाते हुए हिन्दी तो सीखी ही
प्रोम्टर पर अँग्रेज़ी पढ़ना भी सीख लिया मैंने
टिकट बाँटने का गुर भी सीखा
सबकुछ सीख लिया मैंने
पर एक चीज़ नहीं सीख पाया
कि जिसके कारण लोग धीरे-धीरे मेरी हकीकत जानने लगे हैं
मेरी कलई अब खुलने लगी है
पर चुनाव जीतने की कला से
मुझे नहीं कर सकता कोई वंचित
सच की तरह झूठ बोलने की महारत से
मैं बदल सकता हूँ इस देश को
जिसकी कल्पना आपने नहीं की होगी कभी
लेकिन जब तक तुम लोग करोगे इन्तज़ार
कि किस तरह उतरता है मेरा जादू
तब तक चाय की चुस्कियों में फैल चुका होगा ज़हर ।
एक जलते हुए शहर की यात्रा
इस जलते हुए और शीशे की तरह रोज़ थोड़ा पिघलते हुए
इस मरते हुए और मरने से पहले थोड़ा पानी माँगते हुए शहर में
आपका स्वागत है।
किस तरह नुचे हैं तितलियों के पंख यहाँ
किस क़दर कुचली गई है घास पार्कों में
किस तरह ढहाई गई है दीवार
किस क़दर लगाई गई है आग
लूटा गया है यहाँ किस तरह सबका विश्वास
चीख़ते हुए पेड़ों और रोती हुई नदियों वाले शहर में
आपका स्वागत है।
कितनी अच्छी बात है
आप टूटे हुए सपने देखने आए हैं
मासूम बच्चों के आँसू पोंछने आए हैं
विलाप करती स्त्रियों को चुप कराने आए हैं
इस कत्लगाह में लाशों पर फूल खिलाने आए हैं
कौन आता था इस शहर में अब तक
कोई भी तो नहीं
कोई सैलानी
कोई फ़कीर
यही क्या कम है कि आप कम से कम राख के ढेर देखेंगे
उठती हुई लपटें और चिंगारियाँ देखेंगे
बेजुबान गलियों और घायल सड़कों की खामोशियाँ देखेंगे
मण्डराते गिद्धों और मकानों पर बैठी चीलों वाले शहर में
आपका स्वागत है।
इस आधुनिक समय में
आप गहरी असुरक्षा और अनिश्चित भविष्य देखने आए हैं
क्योंकि यह सब भी अब देखने की चीज़ें हो गए हैं
सीने के अन्दर गहरे ज़ख्मों
और ज़ख्मों पर छिड़़के नमक देखने आए हैं
हमें मालूम है आप किसी की आँखों में चमक देखने आए हैं
आपका स्वागत है।
पोएट्री मिस मैनेजमेंट
कविता क्या है?
शुक्ल जी की तर्ज़ पर
सोच रहा हूँ अव ग्लोबल समय में
पोएट्री क्या है
मैनेजमेंट
या फिर मिस मैनेजमेंट
तभी पास हो गया जी० एस० टी० कल देर रात में
ख़ूब छपी ख़बर अख़बार में
कि यह ऐतिहासिक है
कहा टी० वी० के सामने मंत्री ने
यह तो बिलकुल क्लासिक है
इसी मंत्री ने सेवेन्थ पे कमीशन को भी हिस्टोरिक बताया था
अपनी सरकार को करगिल वार में हेरोइक बताया था
पोएट्री क्या है
मैं सोच ही रहा था
कि दौरा पड़ गया मुझको रास्ते में
करने लगा अजीबोग़रीब हरकतें
लिखने लगा नीद में प्रेमिकाओं को ख़तें
लेकिन एक क्रिटिक ने मुझे आलोचक बता दिया
आई० एन० जी० सी० ऐ० के सभागार में
होम मिनिस्टर के सामने एक बूढ़े लेखक के त्यौहार में
कल्चर मिनिस्टर के पास मंच पर बैठा मैं सोचता रहा
पोएट्री क्या है
मैनेजमेण्ट या मिस मैनेजमेण्ट
कि कुछ भी लिख दूँ
और हो जाऊँ फेमस
बिना किसी सम्वेदना के
निरी बौद्धिकता के
जिसमे असीम सामाजिकता हो
पर क्या यही अब लिटरेचर की वास्तविकता हो
दोष राइटर का नहीं
महिला फ़ाइटर का नहीं
जूरी का है
यानी हिन्दी कहानी के शेरशाह सूरी का है
दरअसल यह साहित्य में एक ट्रम्प कार्ड था
संयोग देखिए, अमरीका में भी एक ट्रम्प था
इलेक्शन में खड़ा था
भारत में भी एक प्रतिभाशाली शख़्स कविता के सेलेकशन में परदे के पीछे खड़ा था
पोएट्री क्या है
केवल खुन्नस तो नहीं
कोई महत्वाकांक्षा तो नहीं
सूचनाओं का रजिस्टर तो नहीं
केवल प्रदर्शन तो नहीं
चर्चित होने के लिए आमरण अनशन तो नहीं
फेसबुक पर सुबह से शाम तक घर्षण तो नहीं
मैं सोच ही रहा था
कि चैनल पर शुरू हो गया था मुक़ाबला
सतीश उपाध्याय आ ही गए थे
हमेशा की तरह विराजमान थे राकेश जी
इस बीच इन्फ़लेशन और बढ़ गया था
रुपया डॉलर के मुक़ाबले और कमज़ोर हो गया था
नीति आयोग की कोई नीति नहीं थी
रचना को देखने की उनकी दृष्टि में कोई स्फीति नहीं थी
क्योंकि समर्थक भी विकराल थे
उसमे महीपाल थे
पोएट्री क्या है
सोच ही रहा था
कि एयरफ़ोर्स का एक विमान लापता हो गया था
राष्ट्रभक्त १७२ फ़ीट तिरंगा लिए खड़े थे उना में
एच० आर० डी० मिनिस्टर अपने गुरु से मिल रहे थे पूना में
पूरा दृश्य मुल्क का पीपली लाइव था
कविता थी इण्टरनेशनल
अब उसका हाइप था
कवि भी झोला छाप नहीं था
बाकायदा आई० आई० एम० का एम० बी० ए० था
पोएर्टी क्या है
अबतक कोई जान नहीं पाया था
गूंगे का गुड़ था
या हाथी की सूँढ़ थी
सबके धारदार तर्क थे
जो अधिक चतुर थे
उनके विचित्र कुतर्क थे
कुछ लोग इस बहस में बहुत सतर्क थे
पोएट्री क्या है
मैं सोच ही रहा था
मैनेजमेण्ट
या मिस मैनेजमेण्ट
या एडिटर का जूरी के साथ निजी अरेंजमेण्ट
लेकिन यह सच है
यह एक निहायत स्त्री विरोधी वक्तव्य था
यह कविता विरोधी बयान भी था
कुण्ठित पुंसत्व से भरा हुआ
अरे भाई एक स्त्री को को लिखने दो
क्यों पीछे पड गए
उसे अभी सीखने तो दो
बहस का स्तर इतना न गिराओ
पोएट्री मैनेजमेण्ट न सही
मिस मैनेजमेण्ट तो न कहो
मिल जाए जब किसी को अवार्ड
तो मान लीजिए
कि रचना महान है
कविता की समझ नहीं आपको
नहीं मिला जो यह पुरस्कार कभी लालटेन छाप को
बन्द करें बहुत हो गया यह प्रलाप
कभी तो कुछ अच्छा भी लिखे आप….
प्रेम केवल आलिंगन नहीं है
प्रेम केवल आलिंगन नहीं है
चुम्बन नहीं हैं वह केवल
ये कहना भी प्रेम नहीं है
कि मैं तुमसे करता हूँ प्रेम
प्रेम तो सिर्फ़ एक स्मृति है
जो उस थोड़ी झुकी हुई बेंच के रूप में है दर्ज
हमारे भीतर
जहाँ कही बैठे थे हम
उन सीढ़ियों की स्मृति के रूप में
जहाँ कहीं बैठकर हमने पी थी चाय कभी
अपने अपने दुःख के बारे में बातें की थी
अपने अपने सुख को भी साझीदार बनाया था
अगर तुम्हे उस प्रेम को फिर से पाना है कहीं
तो जाओ उस बेंच के पास जाओ
जाओ उस घास के पास
उन सीढ़ियों के पास
उस मेज़ और कुर्सी के पास
उस फूल के पास जाओ
जिसे तोड़कर लगाया था कभी तुम्हारे बालों में
कहो — मैं फिर आया हूँ इस बार निपट अकेला
प्रेम केवल स्मृति में नहीं है
वो तो एक दर्द में है जो टीसता है कभी-कभी
प्रेम अगर कहीं जीवित है
तो एक ख़्वाब में है
तमाम नश्वर चीज़ों के बीच
प्रेम दरअसल अमरता में है
किसी तरह की क्षणभंगुरता में नहीं .
मेरे लिए तुम
तुम जब समुद्र से मिलना
तो मेरे लिए एक लहर ले आना
मिलना तुम जब कभी आसमान से
तो एक टुकडा बादल ही मेरे लिए ले ज़रूर ले आना
किसी शाम को फूलों से मिलकर
अपने बालों में उनकी ख़ुशबू मेरे लिए रख लेना
घुटता जा रहा है अब दम इस तरह शहर में
एक ताज़ी हवा का झोंका मेरे लिए ले आना
सोना जब तुम गहरी नींद में
तो एक सपना भी देख लेना चीज़ों को बदलने का
देखना जब चाँद को रात में चमकते हुए
उसका एक अक़्स आँखों में क़ैद कर लेना
सोचता हूँ तुम आख़िर क्या-क्या ले आओगी
सब्ज़ी और राशन के साथ उस फटे हुए झोले में …..
ज़िन्दगी भर मैं उलझा रहा इस कदर
एक चराग भी ख़रीद कर नहीं ला सका
तुम्हारे लिए इस अँधेरे में उजाले के लिए
गवाही
तुम बोलोगी नहीं
सुनोगी नहीं
जो कुछ मुझे कहना था गवाही में
मैंने इस दर्पण को कह दिया है
यही है एकमात्र गवाह
मेरे अपराधों का
पापों का
झूठ का
छल का
इससे बचकर मैं कहाँ जाता
इसलिए मुझे जो कुछ कहना था
मैंने उससे कह दिया है
मैंने अब तक तुमसे
अपने जीवन में कुछ भी नहीं लिया है
तुम्हें मैंने
बिना माँगे अपना प्यार दिया है
झूठ नहीं था उसमें रत्ती भर मिला
सच था, जितना वक़्त मैंने तुम्हारे साथ जीया है
बता दो, मेरा अपराध
फिर देना सज़ा
आख़िर मैंने क्या किया है
रसोईघर ही था मेरा दफ़्तर
रसोई घर ही था मेरा दफ़्तर
सुबह उठ कर
बर्तन धोना
किसी फ़ाईल पर जमी धूल पोछने से अधिक तकलीफ़देह था
सब्ज़ी काटने में उँगलियाँ उसी तरह कट जाती थीं कभी
जिस तरह मेरा बॉस मुझे काट खाने को दौड़ता था ।
इस दफ़्तर में मुझे नहीं थी कोई आज़ादी
खाना भी औरों की पसन्द से बनाना होता था ।
हुक़्म भी चलते थे मुझ पर
डाँट भी पड़ती थी —
आज बहुत तेज़ है नमक दाल में
इस दफ़्तर में धुआँ बहुत था
नहीं था कोई रोशनदान
दिन-रात काम करो
पर नहीं था कोई
इसका कद्रदान
रोज़ आते-जाते
मैं हो गई थी परेशान
रसोईघर ही मेरा दफ़्तर था
जो अल्ल-सुबह खुलता था
तो देर रात बन्द होता था
इसी में जीना था मुझे
इसी में दफ़्न भी होना था,
ये एक ऐसी नौकरी थी
जिसमे मुझे कभी रिटायर नहीं होना था
लेकिन इसमें कोई तनख़्वाह भी नहीं थी मुकरर्र
न कोई नियुक्ति-पत्र
पेंशन में भी
नहीं था नसीब प्रेम
फिर भी धनिए और पराँठे की ख़ुशबू में
याद कर् लेती हूँ तुम्हें
रसोईघर ही मेरा दफ़्तर है
मैं यही मिलती हूँ हर किसी से
पसीने से लथ-पथ ।
गर्मी से परेशान
यही एक झपकी भी ले लेती हूँ
बीच-बीच में कभी-कभी
यहीं एक ख़्वाब भी देख लेती हूँ
इसी रसोई में एक छोटा-सा आसमान भी बनाया है
अपने लिए मैंने
एक कोने में कहीं
उड़ रही हूँ
इसी आसमान पर अब
एक परिन्दे की तरह
चारों तरफ हवा में अपने पंख फैलाए …
मैं तुम्हें जब खोज लूँगा
मैं तुम्हे जब खोज लूँगा
अपने जीवन में कभी
तो ज़रूर चिल्लाऊँगा
कहूँगा —
आर्कीमिडिज की तरह
गली में दौड़ता हुआ
यूरेका….. यूरेका……. यूरेका………….
(कल फेसबुक पर मैंने तुमको देखा )
साथ-साथ
जैसे मैं तुम्हारे सपने में आता हूँ
वैसे ही तुम भी आती हो मेरे सपने में
वही रंग । वही दृश्य ।
वही बिम्ब । वही विधान ।
वही रात । वही पहर ……वही सब कुछ
हू ब हू
क्या तुम्हें मालूम है
वो कौन-सा सपना
जिसे हम देखते हैं
इस बुरे वक़्त में
साथ-साथ ।
हँसी
उनको जब हँसी आई
तो आती ही चली गई
वे रुके नहीं
दिन रात हँसते रहे
पुरी दुनिया में फ़ैल गई उनकी हँसी
दूर-दूर से लोग आए, उनकी हँसी देखने
एक दिन मेरा लड़का भी गया ।
देर रात वो लौटा
तो उसे ज़ुकाम हो गया
सुबह होते ही वो मर गया ।
बिस्तर पर सात कविताएँ
1
जब तुम रात में
नहीं होती हो बिस्तर पर
चादर और तकिए दौड़ते हैं काटने को मुझको
वे अपने नुकीले दाँतों से
बना देते हैं कई ज़ख़्म
मेरे जिस्म पर
और जब बिस्तर पर रहकर
तुम बातें नहीं करती हो मुझ से
तो मेरे ज़ख़्म और हो जाते हैं गहरे
मैं तो यही चाहता हूँ
तुम बिस्तर पर रहो
हँसते हुए
कि लगे मुझे
एक चाँद हँस रहा है
हमबिस्तर भले ही न हो कभी ज़िन्दगी में
2
बिस्तर भी एक गवाह है
चश्मदीद गवाह
लेकिन नहीं बुलाया जाता
वह अदालत में कभी
कौन सुनता है उसकी गवाही
हमारे तुम्हारे बीच अनबन में
3
जब तुम हो
मेरे साथ बाँहों में
बिस्तर पर
तो मुझे लगता है
एक नदी है
जो बह रही है
मेरे भीतर ।
4
आधी रात को
यह बिस्तर भी पुकारता है
कोई ख़्वाब जगाता है.
कोई राज़ है
मेरी ज़िन्दगी का
ये तुम्हे बताता है ।
5
बिस्तर पर
इतना गुस्सा
झगड़े
ऊँची आवाज़
लो, अब नदी ने मुँह फेर लिया
बहने लगी उल्टी दिशा में
6
बहुत दिन के बाद
हमबिस्तर हुई हो
किसी ख़ुशी से तर हुई हो
उड़ती हुई एक परी हुई हो
बरसात में एक पेड़ सी हरी हुई हो ।
7
बिस्तर पर जब मैंने नदी को नाराज़ पाया
तो उस से माफ़ी माँग ली
नदी जब ख़ुश हुई
तो बिस्तर भी गाने लगा
तकिया भी मुस्कराने लगा
एक अजीब नशा
मुझ पर छाने लगा
मैं नदी में नहाने लगा
नदी और पुल
1.
पुल का एक हिस्सा अतीत में है
तो दूसरा वर्तमान में
और तीसरा भविष्य में
नदी भी डूबी है जितनी अतीत में
उतनी ही वर्तमान में
पर उससे भी कहीं ज्यादा डूबी भविष्य में पुल की तरह
समय की तलवार
दोनों के जिस्मों को काटती है
एक ही तरीके से
2.
पुल ने इतिहास को बनते हुए देखा है
नदी ने भी देखा है इतिहास को बनते हुए
लेकिन अब इतिहास ने दोनों को काफ़ी बदल दिया है
इस बदले हुए इतिहास को
गहरी पीड़ा के साथ रेत और पत्थरों ने देखा है
3.
पुल का अपना इतिहास है
तो नदी का भी अपना इतिहास है
पुल का इतिहास
मनुष्य ने बनाया है
नदी ने अपना इतिहास खुद बनाया है
इसलिए पुल नहीं दौड़ पाता है
किसी नदी की तरह
4.
पुल ने जब नदी को पुकारा
नदी बरसात में ऊपर तक चली आई
उससे मिलने
नदी ने जब पुल को पुकारा
वह चाह कर भी नीचे नहीं उतर सका
उसके दोनों पाँव थे जमे धरती में
पुल की यह बेबसी
उसे अक्सर कचोटती रहती है
5.
पुल आसमान में उड़ना चाहता है
चाहती , नदी भी है
वह दोनों उड़ नहीं पाते
दोनों के पास नहीं है कोई पंख
दोनों आसमान में उड़ती चिड़िया को देखते हैं
दोनों अगले जन्म में
चिड़िया बनना चाहते हैं
इसलिए चिड़िया भी आकर पुल पर बैठती है
और अपनी प्यास बुझाने के लिए नदी पर झुकती है
6.
एक दिन पुल उड़ गया आसमान में
उसने वहीं से चिल्ला कर कहा
बड़ा मज़ा आ रहा है मुझे
एक दिन नदी भी उड़ गई आसमान में
उसने हाथ हिला कर कहा
अब तो बादल मेरे पास है
दरअसल दोनों धरती पर थे
उनके ख्वाब उड़ा कर ले गए थे आसमान में
7.
एक रात पुल नदी पर झुक आया
उसे चूमने लगा
नदी पहले तो कसमसाई
फिर एक रात नदी ने
पुल को बाहों में भर लिया
सिर्फ चन्द्रमा था
उस दिन आसमान में
और जंगल में सियार थे
दोनों के प्रेम के साक्षी
8.
नदी ने पुल को बाहों में भरते हुए कहा
तुम कितने जर्जर हो गए हो
जब भी कोई रेल गुज़रती है तुम्हारे ऊपर से
मेरा सीना काँप उठता है
पुल ने नदी के बालों को छूते हुए कहा
तुम्हारा पानी भी तो सूखता जा रहा है
तुम रेत में धँसती जा रही हो दिन-रात
कैसे पकडूँगा अब मैं ऊपर से तुम्हारा हाथ
9.
नदी पुल के पास और क़रीब और क़रीब
आना चाहती है।
कोई गाना उसके कान में धीरे से गाना चाहती है
जितना बचा है पानी उसमें उसके संग नहाना चाहती है
10.
पुल को भरोसा था
अगर वह एक दिन गिर गया
तो नदी उसे थाम लेगी
नदी को भी यकीन था
पुल उसे दूर बहने नहीं देगा
पानी की हर बूँद को
अपनी अलग कहानी कहने नहीं देगा
11.
पुल के पास अब ढेर सारे सपने हैं
तो नदी के पास भी ख़ूब सारे ख़्वाब
पुल के पास कोई पुराना गीत है
नदी के पास भी कोई दुर्लभ राग
12.
एक दिन सिर्फ़ पुल था
नदी कहीं गायब हो गई थी
एक दिन सिर्फ़ नदी थी
पुल आसपास कहीं नहीं था
दोनों उस दिन अकेले थे
इसलिए अधूरे थे
13.
पुल के नीचे काफी अन्धेरा है
वहाँ अक्सर हत्याएँ होती रहती हैं
नदी के भीतर भी काफ़ी ख़ून है
वहाँ कोई छाया डोलती रहती है
पुल और नदी दिन रात सोचते रहते हैं
उनके जीवन में यह बुरा वक़्त कहाँ से आ गया
14.
पुल के ढेर सारे किस्से हैं
तो नदी के भी ढेर सारे किस्से हैं
पुल और नदी एक दूसरे से पूछते हैं
आख़िर किस्से हमारे लिखता है कौन ?
15.
नदी और पुल का यह पुराना किस्सा है
पता नहीं आखिर किसमें किसका कितना हिस्सा है
16.
नदी जब अपने भीतर झाँकती है
तो उसे शंख , सीपियाँ पत्थर
और मछलियाँ दिखाई देती हैं
पुल जब अपने भीतर झाँकता है
तो उसे किसी का पसीना नज़र आता है
और लोहा बनता रहता है
दोनों का यह अन्त्यावलोकन ही
बचाए हुए है उनकी सुन्दरता
17.
नदी के भीतर से रेल जा रही है
पुल के ऊपर से ट्राम जा रहा है
एक बच्चा पुल पर बैठा कुछ खा रहा है
एक आदमी नदी के किनारे गा रहा है
18.
ट्रेन के सफर में
आदमी सब कुछ भूल जाता है
पर याद रहता है पुल
यदि रहती है नदी जिन्दगी पर
दोनों पीछा करते हैं मनुष्य का मृत्यु तक
अपनी बात कहता हूँ
तुमको पसन्द हो न हो
पर मैं तो अपनी बात कहता हूँ
तुम कहोगी कि रहने का सलीका मुझे नहीं आता
पर जिनको आता
वह आख़िर अपनी कहानी में हमें क्या बताता
तुम कहोगे कि दीवार नहीं है, छत नहीं है
तो फिर घर कहाँ है
लेकिन मैं तो ऐसे ही किसी घर में रहता हूँ
तुमको पसन्द हो न हो
पर मैं तो अपनी बात कहता हूँ
सदियों से कोई दुख-दर्द
अपने भीतर सहता हूँ
नदी की कोई धारा हूँ
पत्थरों को ठेलकर
आगे बढ़ता हूँ
तुमको पसन्द हो न हो
पर मैं तो अपनी बात कहता हूँ।
सपने ख़त्म नहीं हुए
जो काम तुमसे हुए
वो काम मुझसे नहीं हुए
वे हुए कहीं
तो हम कहीं नहीं हुए
चलती रहेगी यह लड़ाई
दर्द कम नहीं हुए
ख़त्म हो रही है ‘दुनिया’
पर सपने ख़त्म नहीं हुए।
दया
तुम पर बहुत दया आती है मुझे
बाथरूम में उल्टियाँ करने के बाद
अब आलोचना में भी करने लगे हो
मैं देख रहा हूँ
तुम वर्षों से बीमार हो
पीले पड़ गए हो-
खाट पर लेटे-लेटे
तुम किसी डॉक्टर को दिखाते क्यों नहीं
इस बुढ़ापे में
कहो, तो मैं तुम्हें ले चलूँ
एक डॉक्टर है मेरा परिचित
वह तुम्हारा बीमा भी करवा देगा
लड़कियाँ जब छोड़ देती हैं
बूढ़े बाप को
और लड़के ख़याल नहीं करते
तो किसी के साथ ऐसा हो सकता है
ख़ुदा करे
हमें यह दिन देखने को न मिले
मरने से पहले तुम सच कह लेना चाहते हो
पर यह तरीका नहीं है
तुम्हारी अतृप्त कामनाओं ने
तुम्हें बीमार बना दिया है, जिसको देखो
ज़माने ने तीमारदार बना दिया है।
आस में हूँ
अब सारे लालटेन बुझ गए हैं
इसलिए मैं कोई लालटेन नहीं जलाता हूँ
चाहे पहाड़ पर या अपने घर में
बहुत धुआँ निकलता है इससे
कई बार तो घर भी जला है
काली हो गई है कोठरी
अब तो मैं नई रोशनी की तलाश में हूँ
दुनिया बदलती है गर
तो कविता भी बदले
इसी आस में हूँ।
बादल आ गए हैं
अब मुझे किसी बात की चिन्ता नहीं
नहीं है कोई डर
बादल आ गए हैं
दफ़्तर से लौटने पर
मैंने देखा घर में
बारिश की दो बूँदें
तुम्हारे माथे पर पड़ी थीं
कोई बादल ही था
जो छिपा हुआ था
पीछे तुम्हारे काले जूड़े में
उसी दिन मुझे
उस बादल से
तुमसे बहुत प्यार हो गया था
चलते-चलते अन्धेरे में
जैसे मैं जंगल से पार हो गया था।
तारे हैं
ये हवा के कुछ झोंके हैं
बादलों के कुछ टुकड़े हैं
पानी की बौछारें हैं
जो कुछ भी है मेरे पास
वे अब सब तुम्हारे हैं
तुमसे काहे की जीत
तुमसे तो हम हरदम हारे हैं
जब से तुम घर में आए हो
आँगन में ख़ूब सारे तारे हैं।
स्थगित लड़ाई
मैं अब तक लड़ता रहा
समाजवाद से
पर मेरे भीतर ही छिपा था
ब्राह्मणवाद कुंडली मारे
मैंने स्थगित कर दी अपनी लड़ाई
लौट आया हूँ
अपनी रणभूमि से
सारे हथियार डाल दिए हैं
शिविर में
रातभर मुझे लड़ना है
ख़ुद से
फिर कल निकलूंगा
सुबह सुबह
एक नए जोश से
कल कोई मुझे
मेरे गुनाहॊं के लिए न कोसे।
ख़ुशबू
ख़ुशबू भी कितनी अन्तरंग है
वह हमारे तुम्हारे रिश्तों को बयाँ कर रही है
बता रही है
साँसें एक दिन किस तरह
गुत्थम-गुत्थ हो गई थीं, फिर लहरें किस तरह
उठीं थीं, फिर
आग… फिर चिंगारियाँ।
बारिश और बिल्ली
इतनी बारिश हो रही है
एक बिल्ली मेरे घर की खिड़की पर
बैठी है चुपचाप
वह बाहर नहीं जा रही है
वहीं से देख रही है बादलों को
बादल भी उसे आसमान से देख रहे हैं
मैं इस बारिश में
कभी बादल को
कभी बिल्ली को देख रहा हूँ
इस तरह अपने जीवन को
कुछ नया कर रहा हूँ
आप भी इस तरह देखिए
अपने जीवन में कोई दृश्य
आपसे मैं यह बयाँ कर रहा हूँ।
ज़ख़्मों की रोशनाई
कविता केवल शब्दों में नहीं लिखी जाती
लिखी जाती है वह
कभी किसी के ज़ख़्म की रोशनाई से
कभी किसी के
दर्द की परछाईं से
राख से जन्म
मैं अपनी राख में से
फिर से जन्म ले रहा हूँ
एक सपना लिए
एक उम्मीद लिए
शायद इस बार मैं
कुछ ऐसी रेखाएँ खींच सकूँ
नदी की सतह पर
तुम ज़िन्दगी भर याद करोगी
कि कितनी चमक है इन रेखाओं में
मैं जन्म ले रहा हूँ
अपनी आँखें खोल रहा हूँ
पंख फड़फड़ा रहा हूँ
खोल रहा हूँ मुँह
फैला रहा हूँ अपनी भुजाएँ
आसमान में चारों तरफ़
डगमग कर रहे हैं मेरे पाँव
मैं आ रहा हूँ फिर से तुम्हारे पास
पर घबराओ नहीं
अब मैं काफ़ी बदल गया हूँ
राखपुत्र जो हूँ
तुम मिलोगी तो
नहीं पहचान पाओगी
यह वही शख़्स है
जो कुछ दिन पहले ही
एक मुट्ठी राख में तब्दील हो गया है
नए आदमी से मुलाक़ात
तुम क्या इस नए आदमी से मिलोगी
जो अब नहीं रहा एक पत्थर
न रेत, न धुआँ, न अँधेरा
न कोई चीख़, न कोई पुकार
न कोई आर्तनाद, न कोई विषाद
न कोई बात-बात पर विवाद
वह काफ़ी बदल चुका है
जब बदल गई है हवाएँ अपनी दिशाएँ
पक्षियों ने बदल लिए जब अपने घोंसले
यात्रियों ने अपने रास्ते
किराएदारों ने अपने मकान
क्या तुम इस नए आदमी से मिलोगी
जो अब पुराने विमल कुमार की तरह नहीं है
उसने बदल दी है अपने चेहरे की रंगत
अपनी आवाज़, अपनी आबोहवा
अपनी भाषा, अपना व्याकरण
अपनी जुल्फ़ें, अपनी पतलून
जूते, जुराब, मफ़लर, क़लम इत्यादि
वह अब चलता नहीं लंगड़ाता हुआ
नहीं बोलता कुछ हकलाता हुआ
नहीं हिलाता हाथ किसी को बिना समझाता हुआ
नहीं दिखता तुमसे मिलकर अब घबराता हुआ
इसलिए कहता हूँ
एक बार तुम फिर मुझसे मिल लो
जितनी शिकायतें हैं उसे दूर कर
फूल की तरह जीवन में बगीचे में खिल लो !
तुम मेरी क़िताब हो
मैं जानता हूँ
अन्ततः साथ रहेंगी
मेरी कविताएँ मेरे साथ
संभव है,
तन्हाई भी मेरा साथ छोड़ दे
छोड़ तो तुम भी सकती हो
एक दिन मुझे
इसलिए मैं प्रेम करता हूँ
अपनी कविताओं से
जैसी भी हों
कच्ची, पक्की, अनगढ़, कमज़ोर
वे तो नहीं जाएँगी मेरी डायरी से निकलकर बाहर कहीं
धोखा तो नहीं देंगी वह मनुष्यों की तरह
उपेक्षा और बेरूखी भी नहीं दिखाएँगी
उनके साथ वर्षों का एक भरोसा तो है
मेरे लहू से बनी हैं,
बनी हैं मेरी चीत्कारों से
आत्मा की पुकारों से
इसलिए मैं चाहता हूँ
तुम्हें बनाना मैं अपनी एक ख़ूबसूरत कविता
कविता बनकर
तुम रहे सकोगी मेरे पास हर वक़्त
और एक दिन उनके छपने पर
तुम्हें भी मैं देख सकूँगा
एक क़िताब की शक्ल में
और क़िताबें तो दुनिया को बदल देती हैं एक दिन
बिना तकिए के प्यार
मेरी पत्नी ने कहा
मैं कोई तकिया लगाकर नहीं सोती
मेरे तकिए में नींद मर गई है,
नींद मर गई है तो ख़्वाब सारे मर गए हैं
नहीं है उसमें मेरे आँसू
वे सूख गए हैं,
चाँद-तारों की बात तो बहुत दूर है,
बादलों की तो मैं नहीं कर सकती कल्पना
अपने बच्चों के लिए
और तुम्हारे अच्छे स्वास्थ्य की कामना लिए
घसीट रही हूँ यह ज़िंदगी
तकिया तो मैं देना चाहता था एक
अपनी पत्नी को
पर मेरे तकिए में न हवा है
न रूई है,
सिलाई भी उघड़ी हुई
काँटे हैं उसमें छिपे अपने वक़्त के
काँटों से ही मैं उलझता रहा हूँ
अपनी पत्नी से वर्षों से
बगैर तकिए के प्यार करता रहा हूँ
अलबम के आँसू
मैंने तुम्हें एक दिन
लाने को कहा था
अपना अलबम
चाहता था मैं देखना
उसमें बचपन की तुम्हारी तस्वीरें
कैसी थीं तुम स्कूल में
फ़्रॉक कर रंग कैसा था तुम्हारा
और कालेज के दिनों में तुम कैसी दिखती थी
चाहता था मैं यह भी देखना
तुम्हारी माँ कैसी है
क्या मेरी माँ की तरह
पीठ पर हैं उनके भी ज़ख़्म
क्या सपने उनके भी हैं टूटे हुए कटी हुई पतंगों की तरह
और तुम्हारे पिता की मूंछें
क्या मेरे पिता से भी मिलती हैं
चाहता था मैं यह जानना
तुम्हारा घर कैसा है
क्या मेरे घर की तरह चूता है
काँपती हैं उसकी भी दीवारें
और किवाड़ में बोलते रहते हैं झिंगुर रात में
खिड़कियाँ रहती हैं गुमसुम
उदास परियों की तरह
आँगन में नीम के तले
ख़ुशी का कोई टुकड़ा है
तुम्हारे यहाँ भी फैला धूप में
पर तुम नहीं लाई
लाख कहने पर भी
अपना अलबम
क्या चाहती थी तुम
मुझसे छिपाना
उन तस्वीरों के दर्द?
उनके पते?
तुमने भी कभी नहीं माँगा मुझसे मेरे घर का कोई अलबम
तुम क्यों नहीं चाहती थी जानना
उन ब्लैक एंड व्हाईट ज़माने की तस्वीरों की कहानियाँ
क्या तस्वीरें अपने वक़्त का
इतिहास बताते हुए
रोने लगती हैं नई-नवेली दुल्हनों की तरह
और उनकी आँखों से
बहते हैं आँसू
अलबम से अगर कोई
आँसू गिरे
तो मैं भी उन तस्वीरों को नहीं चाहूँगा देखना
तस्वीरों के ज़ख़्म
आदमी के ज़ख़्म से
ज़्यादा गहरे होते हैं
शायद यही कारण है
कि तुम आज तक नहीं
लाई मेरे पास अपना अलबम
मैं तो अपनी यादों का
कोई अलबम भी नहीं
चाहता बनाना
और इसलिए
अपनी कोई तस्वीर नहीं
खींचना चाहता हूँ
तुम्हारे साथ मेरी
एक भी तस्वीर नहीं है
जो बीते हुए वक़्त की
याद दिला सके मुझे
जो बहुत कड़वी हो चली है
इस शाम के धुंधलके में
जब बारिश बहुत तेज़ हो गई है
अचानक
सभ्य भेड़िए
जिन लोगों ने मुझे कहा-‘छिनाल’
उनमें से कइयों को मैं जानती हूँ
जानती हूँ
वे रात के अँधेरे में चाहते हैं
मुझसे मिलना
बताए बग़ैर अपनी बीवियों को
कई तो थे कल तक उनमें
मेरे भी दोस्त
कहते थे दोनों जगह
हो गया हूँ-अंधा तुम्हारे प्रेम में
दरअसल उन्हें नहीं चाहिए था प्रेम
हैं वे भीतर से भेड़िये
आखेट करने निकले हैं
इस शहर में
जिन लोगों ने मुझे बचाया था
इन भेड़ियों से
उनमें से भी कइयों को
जानती हूँ मैं
हैं ये भी भेड़िये
सभ्य और शालीन
रहते हैं लगाए मुखौटे
अपने चेहरे पर हरदम
चाहते हैं इन्हें भी मिल जाए
कोई हड्डी
गुपचुप तरीके से
नहीं हो ख़बर किसी को कानो-कान भी
जानती हूँ उन्हें भी,
जो नहीं जाती बिस्तरों पर किसी के
पर जाने का एक स्वांग
रचती हैं
भ्रम में फँसाए रखती हैं भेड़ियों को
अपने रंगीन जादू से
जो चली जाती हैं बिस्तर पर
भोली और निर्दोष हैं
पर जो नहीं जातीं
वे अपना काम निकाल लेती हैं
बड़ी चालाकी और बारीकी से
विरोध करती हैं
अपने स्त्रीत्व को बचाए
रखने के लिए
पर्दे के पीछे
दरअसल हमेशा कुछ लोग होते हैं ऐसे
जो सभ्य कहे जाते हैं
पर सारा खेल वही खेलते हैं
मैं छिनाल जरूर कही जाती हूँ
पर इस तरह का कोई खेल नहीं खेलती
जो लोग खेल खेलते हैं
वे कभी पकड़े नहीं जाते
सामने भी नहीं आते
किसी विवाद में
चुपचाप रहते हैं
मैं सब कुछ जानती हूँ
पक्ष और विपक्ष भी
इसलिए लड़नी पड़ती है
मुझे अपनी लड़ाई
दोनों मोर्चों पर
हर बार इतिहास में
बिस्तर
यह बिस्तर भी
एक काँटा बन गया है
सोता हूं मैं
काँटों की बिस्तर पर
याद करते हुए
तुम्हें फूलों की तरह
नहीं बना सका तुम्हें
चाहकर भी मैं
तुम्हें अपनी पतंग नहीं बना सका
नहीं उड़ा सका
उसे अपनी छत पर
आसमान में
मैं तुम्हें अपनी नाव भी
नहीं बना सका
पार कर लेता
मैं जिससे यह भंवर
मैं तुम्हें इस बरसात में
एक छाता भी नहीं बना सका
बच जाता मैं
भीगने से इस बारिश में
मैं तुम्हें अपनी क़लम भी
नहीं बना सका
नहीं बना सका स्याही
और न ही काग़ज़
कुछ उकेर लेता अपना दर्द
लिख लेता कुछ ऐसा
जो होता जीवन में कुछ सार्थक
छत, घर, सीढ़ियाँ
दरवाज़े और खिड़कियाँ बनाने की तो बात बहुत दूर
मैं तुम्हें अपनी कोई चीज़ नहीं बना सका
मूर्त या अमूर्त
नहीं था वह हुनर मुझे
किसी को अपना बनाने का
चाहता तो मैं था
तुम्हारी साँस बन जाना
चाहता था तो मैं
तुम बन जाती मेरे लिए हवा
तुम नहीं बनी कुछ तो
उतना दुख नहीं था
पर दुख इस बात का ज्यादा है
तुमने मुझे कुछ भी नहीं बनाया अपना
जबकि मैं तैयार था
तुम्हारा बहुत कुछ बनने को
पतंग से लेकर
आईने तक
और फिर साँस तक
खड़ा हूँ मैं वर्षों से
रास्ते में तुम्हारे
फूल बनने को
आज तक
पर तुमने तो मुझे काँटा भी बनने नहीं दिया
जो उलझ कर थाम लेता तुम्हें तुम्हारे दुपट्टे सहित
गर्मी में एक पंखे की तरह
मैं तुम्हें एक सपना देकर जा रहा हूँ
वर्षों तक यह मेरे पास रहा
मेरे तकिए के भीतर फूल की तरह
ख़ुशबू की तरह कमरे में
मेरी नींद की बेंच पर बैठा रहा
किसी से गुफ़्तगू करते हुए दिन-रात
यह सपना भी मुझे किसी ने दिया था
बचपन में एक क़िताब की तरह
मुझे याद नहीं वह कौन शख़्स था
एक छोटा सा सपना था
यह दुनिया अगर बदल जाती
तो मुझ जैसे करोड़ों लोग
साँस ले सकते थे हवा में
पर यह दुनिया आज तक नहीं बदली, अलबत्ता
थोड़ा और मुश्किल हो गई है
पहले से ज़्यादा
अब सपने की ज़रूरत भी पहले से ज़्यादा बढ़ गई है
इसलिए मैं जा रहा हूँ
तुम्हारे पास अपना यह सपना देकर
जैसे कोई किसी को देकर जाता है अपना विश्वास
तुम भी मरने से पहले
किसी को देकर जाना ज़रूर
मेरी तरह वह सपना
किस तरह इतिहास में
सदियों से चल रहा है यह सपना
कुछ लोगों की आँखों में होता हुआ
सारे सपनों से सुंदर है
दुनिया को बदलने का सपना
अगर दुनिया बदली
तो तुम भी बदल जाओगी ज़रूर
और तब मुझे समझ पाओगी
प्यार कर पाओगी मुझसे
जो नहीं कर पा रही अब तक, नहीं समझने के कारण
दुनिया के नहीं बदलने की वज़ह से
इसलिए मैं यह सपना देकर जा रहा हूँ
जो मुसीबत के दिनों में तुम्हारे काम आएगा
ज़रूर किसी दिन
रख लो, इसे अपने पास गर्मी में एक पंखे की तरह ।
आत्मा से प्रेम
चाहता हूँ तुम्हारी आत्मा से करना प्रेम
पर बीच में आ जाती है
तुम्हारी देह
और आत्मा भी रहती है
देह के कोटर में ही
और यह देह कितनी लुभावनी है
कितने जुगनू झिलमिलाते हैं
इसके अंधेरे मे
क्या ठीक है
देह की नदी पार कर
हर बार पहुँचना आत्मा तक
आत्मा को फिर एक पुल बनाकर
देह के जंगल में विचरना
मरने के बाद नहीं रहती है
यह देह
राख ही तो हो जाती है
क्या याद करते हुए इस राख को
नहीं पहुँच सकता मैं तुम्हारी आत्मा की
घाट की सीढ़ियों के किनारे
यह प्रशन है अनुत्तरित
मेरे सामने अब तक
सच्चा प्रेम
छिपा है वाकई
क्या किसी स्मृति में ही ?
यह प्रेम दरअसल
कोई प्रेम नहीं
जिसकी नहीं है कोई बची हुई स्मृति
महज रोमांच नहीं है
नहीं है केवल उत्तेजना भर
यह प्रेम !
जो हमने किसी क्षण
पाया था तुम्हारे साथ बैठे
अचानक, अनायास
एक दिन यूँ ही…
राष्ट्रभक्त
सबसे बड़ा प्रमाण है राष्ट्रभक्ति का
तुम लड़ते जवानों के लिए ख़ून दे दो
वातानुकूलित अस्पताल में लेटे हुए
रक्तदान कराते हुए अपनी तस्वीर खिंचा लो
फिर शहर में उसके पोस्टर छपवा लो
और अख़बारों में यह ख़बर भी
कि राष्ट्रप्रेम का रक्त तुम्हारी रगों में दौड़ रहा है
तुम एक सच्चे राष्ट्रभक्त हो
और अब तो इसका प्रमाणपत्र भी है तुम्हारे पास अस्पताल का
वो ऐन वक़्त पर तुम्हारे काम आ सकता है
सर्वानुमति
सर्वानुमति से
सरकार चलाने वालों ने कहा
अब सर्वानुमति से ही
की जायेगी किसी की हत्या
सर्वानुमति से ही होगा
अब किसी का बलात्कार
गठबन्धन दौर की
यही राजनीति है
वे
वे इतने आधुनिक हैं
कि बर्बर हैं
वे इतने विकसित हैं
कि लुटेरे हैं
वे इतने लोकतांत्रिक हैं
कि जंगली हैं
वे इतने उद्यमशील हैं
कि संवेदनहीन हैं
वे इतने सभ्य हैं
कि हत्यारे हैं
शब्दों का ताजमहल
मैं शाहजहाँ नहीं हूँ
नहीं है मेरे पास
इतनी धन-दौलत
हूँ एक क्लर्क मामूली-सा
सौभाग्य से हैं मेरे पास
कुछ शब्द
और मैं करता हूँ
कुछ काग़ज़ भी काला
मैं शब्दों का एक ताजमहल
बनाना चाहता हूँ
तुम्हारे लिए
मुझे डर है और इसलिए माफ़ करना मुझे
कहीं मैं अपनी ज़िन्दगी में अगर
तुम्हारे लिए
शब्दो की एक टूटी हुई
मस्जिद भी नहीं बना पाया तो तुम कितना हँसोगी
मेरे प्रेम पर
क्या तुम घर के
— रूम में
रखोगी मेरे इस ताजमहल को
या
टूटी हुई मस्जिद को
जिसको लेकर काफ़ी मुक़दमा भी चला
चुल्लू में
और ख़ून-ख़राबे भी हुए ।
अधूरा प्यार
कर रहा हूँ
तुमसे अब तक मैं
अधूरा प्यार
नहीं जान पाया हूँ
तुम्हें पूरा
अभी तो मैं
नहीं जान पाया हूँ
ख़ुद को
मरने के ठीक पहले
शायद मैं कह पाऊँगा
तुम्हें कितना जान पाया
कितना तुम्हें कर पाया
प्यार
पर चाहता तो मैं हमेशा था
करना पूरा प्यार
जानना तुम्हें पूरा का पूरा
लेकिन कभी भी किसी को
पूरी तरह नहीं जान सकता
कोई चीज़ नहीं होती पूरी
इसलिए मैं करता रहूँगा
तुमसे मैं हमेशा अधूरा प्यार ।
अपरिवर्तित प्रेम
तुमने भी मुझसे कहा था
एक दिन
मुझे प्यार करो
तो उसी रूप में
जिस रूप में
मैं हूं
अपरिवर्तित
मुझे प्यार करो
लहरों में फंसी मेरी नाव को भी प्यार करो
उस तूफान से भी
जिसमें घिरी हूं मैं
प्यार में यह न कहो
कि मैं अपना रंग
और गंध और अपनी भाषा बदल लूं
तुम्हारे लिए
बदल दूं
अपना नजरिया
अपनी दृष्टि
तुम प्यार करो
मेरी सीमाओं से
प्यार करो
मेरी कमजोरियों से
न कहो
कि मैं अपनी रेखाओं को मिटा दूं
मिटा दूं
अपने पांचों के निशान
प्यार करो
तो मेरे दुख से भी
प्यार करो
केवल सपनों और
उम्मीदों से न करो
करो मुझसे प्यार
संपूर्णता में करो
मुझे मेरे वक्त से
काटकर
काटकर मेरे अतीत से
भविष्य से
प्यार नहीं करो
करो,
तो जरा सोच समझकर
करो,
इतनी जल्दबाजी
हड़बड़ी
और भावुकता में
प्यार नहीं करो
मैं तुम्हे मरने नहीं दूंगा, देवी!
मैं जानता हूं
तुम हर रात थोड़ा मर जाती हो
मैं तुम्हारे सीने पर हाथ रखकर
तुम्हारे सपनों को अपनी बांहो में लेकर
तुम्हें जिंदा करने की कोशिश करता हूं
मैं यह भी जानता हूं
तुम समुद्र की लहरों के साथ हर रोज थोड़ा डूब जाती हो
एक नाव लिए तुम्हे खोजता रहता हूं
पानी की सतह पर
फिर डुबकी लगाकर समुद्र के भीतर भी
मैं जानता हूं तुम शाम होते ही थोड़ा उदास हो जाती हो
आसमान पर बिखर जाता है
रंगों की तरह तुम्हारा दुख
मैं तुम्हारे दुख को अपनी हथेलियों में छिपाकर
अंधेरे में भागता रहता हूं मैं
चिल्लाता हुआ
पुकारता हुआ तुम्हें
मैं जानता हूं तुम शेरनी की तरह
घायल हो जाती हो
जंगल में काम करते -करते
मैं तुम्हारे घाव पोंछता हूं
तुम्हारे खून में अपना खून ढूंढ़ता हूं
मैं हर सुबह काम पर निकलता हूं
रात में थकाहारा लौटता हूं
मुझे पांच महीने से तनख्वाह नहीं मिली है
पर मैं तुम्हे किसी कीमत पर मरने नहीं दूंगा
नहीं दूंगा तुम्हे डूबने लहरों के साथ
न उदास होने दूंगा
न घायल होने
मैं तुम्हे अपनी सांस में से
कुछ सांस दूंगा
अपने सपनों में से
कुछ सपने
अपनी उम्मीदों में से
कुछ उम्मीदें निकालकर
मैं जानता हूं
मुझे अपने जीने के लिए
तुम्हारा जिंदा रहना कितना जरूरी है मेरे लिए
घबराओ नहीं
मैं तुम्हे मरने नहीं दूंगा, देवी!
इस बुरे वक्त में
किस तरह के दुख हैं तुम्हारे जीवन में
उफ़!
कितना दुख हैं तुम्हारे जीवन में
आयरा !
एक भँवर से निकलती हो
फिर दूसरे में जाती हो
फँस“`
एक काँटा निकालती हो अपने पाँव से
फिर दूसरा जाता हैं चुभ
तुम्हारी एड़ी में
गंगा नदी की लहरों से निकलती हो तैरकर
फिर यमुना में डूब जाती हो
कितने तरह के दुख हैं तुम्हारे जीवन में
आयरा !
जो खींचते रहते हैं मुझे
बार-बार तुम्हारी तरफ़
तारे निकलते हैं तुम्हारे आँगन में
फिर दूर जाते हैं थोड़ी देर में
फूल खिलते हैं तुम्हारे जूड़े में
पर वो जाते हैं मुरझा फौरन
तुम जिस क़लम से लिखती हो
उसमें तुम्हारे दर्द की ही रोशनाई है भरी हुई
तुम्हारी चादर की सलवटों में भी
दुख का है कोई कोना मुड़ा हुआ
तकिए में भरी है जैसे
दुख की कोई रूई
दुख का एक बादल बैठा है
कहीं कजरे में तुम्हारें
फिर भी तुम लड़ती रहती हो
अपनी तकलीफ़ों से
ग़लत बातों पर झगड़ती रहती हो !
आगे बढ़ती रहती हो
जलती रहती हो
एक मोमबत्ती की तरह दिन-रात
रोशन करती हुई
अपने घर को हर बार
जीती हो
अपनी ज़िन्दगी
बचाकर अपनी ईमानदारी,
……… थोड़ी-सी दुनियादारी
देखती हो एक सपना
अपने बच्चों के लिए
चाहती हो कुछ करना अच्छा
भाइयों के लिए
बदलना चाहती हो
इस दुनिया को अपनी तरह से
दूसरों के लिए
पर मैं तो बनना चाहता हूँ
तुम्हारी परछाई “`
दुख की इस घड़ी में
तुम्हारा साथ देने के लिए
एक बार फिर तुम हँस सको
जिस तरह खिल-खिलाते हुए
मिली थी तुम मुझसे पहली बार
एक गाना गुनगुनाते हुए
जिसका नामचीन गायक भी मर गया
पिछले साल इस बुढ़ापे में
लेकिन तुम्हें पता नहीं
तुम अपना दुख झेलकर
देती रही हो कितनी ताक़त
कितने लोगों को
कितनी उम्मीदें जगाई है
तुमने मेरी भीतर
जाने-अनजाने
मुझे अपनी ज़िन्दगी जीने के लिए
आयरा !
इन उम्मीदों का कर्ज़
नहीं लौटाया जा सकता है कभी जीवन में
सोचता हूँ
कहीं से ला सकूँ
कोई सुख तुम्हारे लिए
ताकि मैं भी हो सकूँ
मुक्त इस कर्ज़ से
दे सकूँ तुम्हें धन्यवाद हृदय से
कि तुम जितनी बार मिली मुझसे
उसमें मैं अपनी पूरी उम्र
जी गया था थोड़ी देर के लिए
18 मार्च
कितने सालों से इन्तज़ार करता रहा
इस डायरी में
तुम्हारी इस तारीख़ का
अपने घर के कैलेण्डर में भी
देखता रहा
इस तारीख़ को
कोई ख़ुशबू मेरे भीतर
फैल जाती रही हमेशा
कोई रंग बिखर जाता रहा
मेरी दीवारों पर इस तरह
झाँकने लगता है
तुम्हारा चेहरा कभी डायरी में
कभी कैलेण्डर में
तुम्हारी आवाज़ भी देती है
सुनाई काग़ज़ के भीतर से
तुम्हारी हँसी भी देती है
दिखाई
कई दिनों से
कई महीनों से करता हूँ
इन्तज़ार इस तारीख़ का
क्या करती हो तुम आज के दिन
सुबह देर से उठती हो
रात में देर तक जागती हो
कहीं जाती हो बच्चों के साथ
घर में गुमसुम बैठी रहती हो
याद करती हो अपने बीते हुए दिन
इस बार फिर तुम्हारी यह तारीख़ आएगी
मेरे कैलेण्डर में
एक बार तुम फिर मुस्कराओगी
मेरी डायरी में
तुम एक बार फिर खिलखिलाओगी
पर मैं इस बार भी
तुमसे मिलकर
तुम्हें जीवन की
शुभकामनाएं नहीं दे पाऊँगा
हर साल की तरह
पर मुझे हमेशा याद रहेगी
मेरे जीवन के टूटे-फूटे इतिहास में
यह तारीख़
जो मेरे लिए बहुत मायने रखती है
आज भी
तुम्हें भले ही मेरी तारीख़
याद न हो
पर तुम्हारी तारीख़ से
तुम्हारा दर्द जुड़ा है
जिसे मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा
अपने चेहरे
और अपने नाम की तरह
क्या नए साल में मिलोगी?
क्या तुम नहीं मिलोगी
अब नए साल में
या फिर मिलोगी
तो उन उलझनों की तरह मिलोगी
जो पैदा होती रहीं तुमसे मिलने के बाद मेरे मन में
क्या तुम मिलोगी
एक नई मुस्कान के साथ
या फिर अपनी तकलीफों के रेगिस्तान के साथ
नए साल में
क्या तुम एक नए गीत की तरह मिलोगी
जिसे गुनगुनाना हो आसान
या एक ऐसे संगीत की तरह मिलोगी
जिसे बजाना हो मेरे लिए बहुत मुश्किल
क्या तुम एक ऐसी भाषा की तरह मिलोगी
जिसे समझना हो कठिन
या क्या तुम ऐसी किताब की तरह मिलोगी
जिसे पढ़ना हो मेरे लिए अत्यंत सरल
इस बार तुम मिलोगी
इस कोहरे और ठंड में
तो किस तरह मिलोगी
नए पत्तों और नए फूलों के रूप में?
या क्या तुम मिलोगी
धूप की तरह मुझ से
या बर्फ की चादर की तरह मिलोगी
इस जाड़े की रात में
क्या तुम वाकई एक जलती हुई मोमबत्ती की तरह मिलोगी
मिलोगी एक नया स्वप्न लिए
एक नई उम्मीद के साथ
जिस तरह कई लोग मिले थे
मेरे शहर में एक-दूसरे के साथ पिछले दिनों जंतर मंतर पर
या फिर नहीं मिलोगी
नए साल में
जिस तरह तारे कभी नहीं मिलते
धरती के लोगों से
आयरा,
तुम केवल इतना बता दो
क्या तुम मेरी मंजिल की तरह मिलोगी
या फिर एक मृग मरीचिका की तरह
या फिर कभी नहीं मिलोगी
अब उस तरह
जिस तरह तुम पहली बार मुझसे मिली थी निश्चल
बस इतनी सी प्रार्थना है
अगर तुम मिलना कभी मुझसे
तो इस तरह कभी नहीं मिलना
जिस तरह तुम मिलती रही हो
अब तक
एक झिझक
और अविश्वास के साथ
मुझसे
मिलना
जब भी
एक भरोसे के साथ
मिलना
अपनी आँखों में
एक चमक लिए
इस जीवन के
लिए ही मिलना
जो अब बहुत कम बचा है
काल के क्रूर के हाथों में
प्यार मेरे लिए सिर्फ एक उम्मीद का नाम है
हर बार बढ़ जाती है
मेरी उम्मीद
तुमसे मिलने के बाद
कि थोड़े दिन और जी पाऊँगा
इस दुनिया में
थोड़ी रोशनी हो सकेगी
इस नीम अँधेरे में
थोड़ी हवा बहेगी
इस बंद कोठरी में
कोई धूप खिलेगी
कोई बारिश होगी
इस मौसम में
मिलती अगर मुझे
उम्मीद किसी और चीज से
तो मैं तुम्हें नहीं करता
इस तरह नाहक परेशान
नहीं कहता तुम आओ, अभी इसी वक्त
मुझसे मिलने या मैं ही आता हूँ
किसी दिन तुम्हारे घर कभी
पर तुमने मिलना छोड़ दिया
मैं मिलने की उम्मीद के लिए ही
अब तक जी रहा हूँ
नहीं तो कब का मर गया होता
मुझे उम्मीद है
तुम एक दिन जरूर मिलोगी
इतने बड़े शहर में
कहीं न कहीं
किसी मोड़ पे
किसी न किसी शक्ल में
किसी आवाज में
गुस्से में नाक फुलाए
चेहरा तमतमाए
कोई उम्मीद थी
मेरे भीतर अब तक
नहीं तो मैं
इतने साल कैसे जी गया
तुम्हारे बगैर
ना-उम्मीदी के बीच
क्या वह तुम थी
मेरी साँस में
घुली हुई प्राणवायु की तरह
क्या वह तुम्हारी परछाई थी
या आवाज
या गंध
या स्पर्श
या सिर्फ एक खयाल
उम्मीद हमेशा
खयाल में ही छिपी होती है
पर जब भी
मेरी आँखों में गिरती हैं
दो बूँदें
उनमें भी एक उम्मीद
छिपी होती है
किसी दिन तुम जरूर आओगी
कहोगी
भूल जाओ पुरानी बातें
मैं ही हूँ तुम्हारी असली दोस्त
जिसे तुम जीवन भर इतना दुश्मन समझते रहे
इस दोस्त को जानो
और खुद को पहचानो
तभी तुम कहोगे
प्यार, मेरे लिए सिर्फ एक उम्मीद का नाम है…
मैं ही हूँ गुनहगार
मैं ही हूँ गुनहगार
किए हैं
जो मैंने तुम पर कई अत्याचार
घृणा रही मेरे भीतर
नहीं कर सका मैं
अपने क्रोध का शमन
करता रहा
मैं भी विष-वमन
मैं ही हूँ गुनहगार
करता हूँ आज मैं
यह बात स्वीकार
लोभ ने किया मुझे परेशान
चाहता था बनना एक इन्सान
पर क्यों छिपा रहा अब तक
मेरे भीतर एक शैतान
नहीं कर सका
विसर्जित अहं
नहीं चूर कर सका
अपना अभिमान
मैं ही हूँ गुनहगार
भूल गया
मैं जो तुम्हारा सब उपकार
खत्म नहीं हुई अंततः वासना
पर नहीं चाहा
किसी को फाँसना
नही हो सका
मेरा कोई आशना
मैं ही हूँ गुनहगार
तो मेरे भीतर किस बात का हाहाकार
हुआ कई बार द्वंद्व में पराजित
कई बार हुआ
अपने समय में विभाजित
पर नहीं था
कोई मैल मन में कदाचित
मैं ही हूँ गुनहगार
कोई एक सजा
मुझे भी दिला दो
मेरी तसवीर
मुझे ही दिखा दो
कितना असली
कितना नकली
तुम अपने हिसाब से बता दो
मैं ही हूँ गुनहगार
क्यों रहा तुम्हें इतने वर्षों से
अनवरत पुकार
जानता हूँ जब
नहीं है
तुम्हारे मन में
मेरे लिए कोई
विचार
मैं ही हूँ गुनहगार
तब क्यों करता रहा
आखिर तुम्हें प्यार?
मेरे पास कुछ शब्द बचे हैं
मेरे पास कुछ भी नहीं है
चंद खूबसूरत शब्दों के अलावा
यही मेरी कमाई है
मेरी जमा पूँजी
मेरे अनुभव
मेरे विचार
मेरा खून भी यही है
साँस भी यही है
अस्थि-मज्जा भी
इन्हीं शब्दों के सहारे
जीता आया हूँ अब तक
जिस तरह आप जीते रहे हैं
अपनी बेमुरौव्वत जिंदगी किसी बेहतर शब्द की तलाश में
इन्हीं शब्दों के कारण ही
कर पाया हूँ प्यार तुम्हें अब तक
नहीं की है तुमसे घृणा
अपमानित होने के बावजूद
अगर नहीं होते ये चंद शब्द
मेरी जिंदगी में
उखड़ चुकी होती मेरी साँस कब की
टूट गए होते सपने कब के
डूब गई होतीं लहरें न जाने कब
बुझ गया होता चाँद बहुत पहले
मर जाते मेरे सारे तारे उम्मीदों के
पर जीवित हूँ आज तक
अभी भी चल रही है मेरी साँस
पेन किलर खा कर भी जिंदा हूँ, आयरा
ये शब्द ही मेरे घर हैं
मेरे फूल मेरे बगीचे
मेरी तितलियाँ
मेरे जुगनू
मेरी आत्मा
मेरा ईमान
मेरा धर्म
मेरी इज्जत आबरू
मेरी इच्छाएँ
मेरी कामनाएँ
कल्पनाएँ और खुशबुएँ
पर वे खतरे में हैं
इन दिनों
गहरे संकट में
हो रहे है उन पर
चारों तरफ से हमले
कई शब्दों को तो मैंने मरते हुए भी देखा है
हत्या के बाद तड़पते हुए, बिलखते हुए,
पुकारते हुए दर्द भरी आवाज में किसी को
पर मैं निसहाय था
नहीं बचा पाया उन्हें आज तक चाह कर भी
कई शब्द कर दिए गए
मेरे सामने ही अपवित्र
कई के अर्थ बदल गए
तो कई हो गए अप्रासंगिक
कई इतने घिस-पिट गए
कि उनके अर्थ भी नहीं रहे
देखते-देखते कइयों ने बदल लिया
अपना चोला-दामन
पर कुछ शब्द हैं मेरे पास आज तक
नहीं बदले, नहीं बिके किसी बाजार में,
उनमें आज भी हैं सपने बाकी
उनकी निष्ठा है मेरे साथ अभी भी
वे बचे हुए है राख में अंगारे की तरह
आसमान में बादल और बिजली की तरह
पानी में मोती की तरह
मेरे पास कुछ भी नहीं है
इन शब्दों के अलावा
जिनकी उम्र अब लगातार कम होती जाती है
क्यों तुम रह सकोगी
मेरे साथ
शब्दों के इस घर में जो बरसात में चूता भी है
रुक सकोगी एक रात वहाँ जहाँ बहुत धीमी है रोशनी
जे तमाम तरह की चमक
और प्रलोभनों से दूर है
क्योंकि उसे आज भी
यकीन है मनुष्यता में
ऐसे शब्दों को बहुत
बचाए रखना बहुत जरूरी है
जिससे बचती हो पृथ्वी
विचार और दृष्टिकोण
संसार को बचाए रखने के लिए
दुनिया के किसी भी शब्दकोश में
कुछ शब्दों को बचाए रखना
बेहद जरूरी है
जो सुंदर दिखते हों
बाहर और भीतर से भी
जो लड़ते हो दिन-रात
किसी अन्याय और दमन से
और इस तरह वे अमर रहते हैं
इतिहास में सदियों तक
ओ! मेरे शब्दो
मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ
आ गई है, परीक्षा की वह घड़ी
तुम मेरे साथ रहते हो
और मैं तुम्हारे साथ रहता हूँ
कब तक
मिस एफ.डी.आई. मेरी जान..
शेरशाह सूरी के पुराने जर्जर किले से बोल रहा हूँ
मिस एफ.डी.आइ. मेरी जान…
वैसे ही तुम्हें पुकार रहा हूँ
जैसे कोई डूबता हुआ आदमी पुकारता है किसी को
मेरी जान बचा लो, मेरी जान एफ.डी.आई.
देखो, मैं किस तरह पैंसठ सालों से डूब रहा हूँ
एक परचम लिए हवा में
इस जहाज में हो गए हैं कितने छेद
तुम्हें पता है
अब कोई नहीं बचा सकता इसे
सिर्फ तुम्हारे सिवाय
आज की रात आजा ओ मेरी बाँहों में
कर लो अपनी साँसें गर्म
बिस्तर उतप्त
मेरी जान एफ.डी.आई.
कितने सालों से कर रहा हूँ बेसब्री से तुम्हारा इंतजार
तुम आओगी तो बदल दोगी
मेरे घर का नक्शा
तुम आओगी तो खिल जाएँगे फूल मेरे गुलशन में
तुम आओगी तो चहकने लगेगी चिड़िया
एफ.डी.आई. मेरी जान…
तुम्हारे आने से
गंगा नहीं रहेगी मैली
वह साफ हो जाएगी
हो जाएगी उज्ज्वल
रुक जाएँगी आत्महत्याएँ,
मजबूत हो जाएँगी आधारभूत सरचनाएँ
आ जाओ, अभी आ जाओ एकदम
उड़ती हुई हवा में
खुशबू की तरह
चली आ जाओ मेरी जान…
कितने रातों से बदल रहा हूँ करवटें
ठीक कर रहा हूँ चादर की सलवटें
तुम्हारे लिए
कितने कागजों पर लिखा है तुम्हारा नाम
कितने खत लिखे हैं मैंने तुम्हे अब तक
कितने किए ई मेल
एस.एम.एस.
फेसबुक पर भी छोड़ा है तुम्हारे लिए संदेश
अब और न तड़पाओ मेरी जान
मंदिरवाले भी तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष तो बुला रहे हैं तुम्हें
निमंत्रण कार्ड भेज कर
कुछ समाजवादी भी साधे हुए हैं रहस्यमय चुप्पी
सामाजिक न्याय के झंडाबरदार की खामोशी का अर्थ नहीं छिपा किसी से
आ जाओ, मेरी जान
तुम आओगी तो हमारे चेहरे पर भी
आ जाएगी मुस्कान
कुछ उम्मीद जागेगी
इस जीवन में
एफ.डी.आई मेरी जान…
शेरशाह सूरी के पुराने किले से
पुकार रहा हूँ तुम्हें
कभी इसी किले के बुर्ज से
पुकारा था
संजय ने
अंधायुग के नाटक में
लौट आया है वह युग फिर से
मेरी जान…
इसलिए मैं पुकार रहा हूँ तुम्हें
क्योंकि अब मेरे जीवन का
परम सत्य तुम्हीं हो
अब तक मैंने भूल की
नहीं पहचानी
मैंने तुम्हारी अहमियत
कौन हो सकता है
तुमसे अधिक रूपवान
इस दुनिया में
आज की तारीख में
कौन हो सकता
तुमसे अधिक जवान
चली आओ
एफ.डी.आई. मेरी जान…
तुम आओगी
तभी आएगी
दूसरी आजादी
पहले जो आई थी
वह तो रही व्यर्थ,
अब नही रहा उसका अर्थ
नहीं थी वह तुमसे अधिक खूबसूरत
इसलिए मैं शेरशाह सूरी के पुराने किले से
पुकार रहा हूँ
तुम्हें
चली आओ मेरी जान…
जिस तरह पुकारा था
अल्काजी ने कभी
धृतराष्ट्र…!
चली आओ,
एफ.डी.आई. मेरी जान…
मेरी साँसें उखड़ रही हैं
तुम नहीं आओगी
तो मैं अब जिंदा नहीं रह पाऊँगा
घबराओ नहीं
यहाँ होती रहेगी हड़ताल
पर तुम चली आओ
मेरी जान…
उठानेवाले तो हर युग में
उठाते रहते हैं सवाल
पर तुम चली आओ
इसी इसी वक्त,
यहाँ मचा हुआ है कितना हाहाकार
मैं कर रहा हूँ
तुम्हारा
एक पागल प्रेमी की तरह
इंतजार…
मिस एफ.डी.आई. मेरी जान…
वह कौन थी जो आई थी मुझसे मिलने नीचे से अचानक टेलीफोन करके
वह कौन थी
जो आई थी अचानक मेरे पास बादलों के पंख लगाए
एक धुँधली शाम की चादर लपेटे
हाथ में
एक जलती हुई तीली लिए
कुछ रोशनी
मुझे देने के लिए
देने के लिए कोई ताकत
कोई उम्मीद जीने के लिए
जब बाहर बहुत अँधेरा था
और शोर यहाँ से वहाँ तक
चाहती तो वह नहीं भी आ सकती थी
कोई बहाना बना सकती थी
अपनी व्यस्तता का
तबीयत खराब होने का
पर उसने एक निर्णय लिया था
तमाम मतभेदों और उलझनों के बीच
कि मरीज को देखने जाना ही चाहिए
वैसे तो, मैं उसका पुराना मरीज था
और यह बात उसे अच्छी तरह मालूम थी
मैं तो एक बूढ़े पेड़ की तरह
अपने घर में झरते पत्तों के बीच
किसी तरह जी ही रहा था
और वह वही तीली लेकर आई थी
मुझे जिंदा करने के लिए
जो एक रात मैंने उसे दी थी तूफान में लड़ने के लिए
60 सीढ़ियाँ चढ़ कर चौथी मंजिल पर
आई थी क्योंकि तब लिफ्ट खराब हो गई थी
वह कौन थी
जो आई थी,
सफेद साड़ी में
माथे पर एक छोटी सी बिंदी लगाए
अपनी खाँसी और बलगम
और जलन सीने में छिपाए हुए
अपने टूटे हुए सपनों को
अपने जख्मों को मेरी हर निगाह से बचाए हुए
वह कौन थी
जो आई थी
कुछ खुशबू, कुछ तसवीरें
और कुछ नीले फूल लिए
अपने आँचल में छिपाए
क्या वह आई थी
यह जताने
कि उसे अभी भी भरोसा है
मनुष्यता पर इस बाजार के युग में और
वह इस शहर के एक बड़े कारखाने में काम करते हुए
अभी तक एक मशीन में तब्दील नहीं हो पाई है
उसके भीतर
अभी भी जिंदा हैं
कुछ मछलियाँ, कुछ सीपियाँ तैरती हैं
और लहरें मचलती हैं
वह पत्थर नहीं बनी है
नहीं बनी है रेत
नहीं काठ या सीमेंट की कोई मूर्ति
फिर वह कौन थी
जो आई थी
मुझसे कई बार झगड़े करने के बाद
कई बार नाराज होने के बाद
कई बार बातचीत तोड़ देने के बाद
कई बार मेरी किताबें लौटा देने के बाद
क्या वह यह बताने आई थी कि हर रिश्ते का एक लोकतंत्र होता है
वह कौन थी
जो आई थी
मुझे गहरा सुकून देने के लिए
देने के लिए एक विश्वास
एक भरोसा
जबकि वह मुझसे झगड़ती रही हर बार
मैं बोझ बन गया हूँ उसके लिए
मैंने भी उसे बहुत तकलीफ दी थी
खुशियाँ देने के उपक्रम में
वह क्यों आई थी
इतनी दूर चल कर
इस बियाबान में
जहाँ परिंदे नहीं उड़ते हुए आते थे
जहाँ ऑटोवाले भी मना कर देते थे
और रिक्शा या टमटम मिलने का
सवाल ही नहीं उठता
क्या जरूरत थी
उसे यह औपचारिकता निभाने की
वह नहीं भी निभा सकती थी
वह हमेशा के लिए तोड़ सकती थी
यह रिश्ता जो अनजाने में बहुत खूबसूरत बन जाने के बाद
दिन प्रतिदिन जटिल भी होने लगा था
पर वह कौन थी
जो आई थी
कनुप्रिया बन कर
बन कर देवयानी
या इला
या आल्या
या फिर आयरा
हवा बन कर आई थी वह
तारे बन कर
आई थी वह कुछ देर के लिए
धूप बन कर
एक चिड़िया बन कर
एक किताब बन कर
एक पुल बन कर मेरे लिए
वह शब्द और रंग बन कर आई थी
पह वह चली भी गई
एक तितली बन कर
रूई की तरह उड़ कर हवा में
वह कौन थी
जिसे इतनी बार मिलने के बाद भी
मैं पहचान नहीं पाया था
क्या मैं ही धोखा खा गया था
क्या मुझे बिल्कुल यकीन नहीं था
वह आई थी हाड़ मांस की औरत के रुप में
पर आने के बाद
वह मेरे लिए एक फरिश्ता बन गई थी
एक जल परी
और उस दिन के बाद से
उसको जानने का
रहस्य और गहरा हो गया था
जितना उसको जानने की कोशिश करता हूँ
उतना उसे जान नहीं पाता हूँ
मेरे लिए वह आज तक एक पहेली ही है
उस दिन भी ऐसा ही हुआ था
जब वह आई
तो मुझे लगा
मैं बहुत कुछ जान गया हूँ
उसके बारे में
पर मुझे कहाँ पता था
कि वह खुद भी लगा रही है
अस्पतालों के चक्कर
पर उसके जाने के बाद
मुझे लगता है
अभी तक तो मैं उसकी परछाई को भी
ठीक से नहीं पहचान पाया हूँ
उसके पके हुए बालों को नहीं जान पाया हूँ
उसके दुख को अभी नहीं पढ़ पाया हूँ
वह कौन थी
जो मुझसे अचानक मिलने के बाद
आसमान में तिरोहित हो गई
और मैं उसे एक जुगनू की तरह पकड़ने के लिए उठा
अपना हाथ बढ़ा कर खिड़की से बाहर
वह मूर्त से अमूर्तन की तरफ
लगातार बढ़ती हुई
विलीन हो गई हवा में
वह आई थी
नीचे से
मुझे टेलीफोन करके
और मैं
टेलीफोन का चोगा
हाथ में लिए
उसी तरह बैठा हूँ उकड़ूँ
अस्पताल के बिस्तर पर
एक बार फिर
उसका इंतजार करता हुआ
इस बार वह आई तो मैं जरूर पूछूँगा
तुम हो कौन?
जो कभी-कभी आती हो किसी की जिंदगी में बारिश की एक बूँद बन कर
और आती हो
तो किसी की जिंदगी में क्यों आती हो इस तरह?
सब कुछ दे दूँगा पर
सब कुछ दे दूँगा मैं
आपको
अपनी घड़ी
अपनी सायकिल
अपना हारमोनियम
अपनी किताबें, कलम, कॉपी, पेंसिल और रबर तथा कटर भी,
यहाँ तक कि गटर भी
पर मैं इस्तीफा नहीं दूँगा
आप कहेंगे तो अपनी सारी जमीन जायदाद
आपको नाम कर दूँगा
लिख दूँगा अपनी वसीयत
दे दूँगा आपको अमृतसर की पुश्तैनी कोठी
बाप-दादों की हवेली
नवी मुंबई का फ्लैट
गुडगाँव का फार्म हाऊस
पंचकूला का प्लॉट
पर मैं इस्तीफा नहीं दूँगा
अगर मौसम अच्छा होता
अगर गर्मी थोड़ी कम होती
अगर फसल इस बार अच्छी होती
अगर आपके बदन से खुशबू आती
तो मैं जरूर इस्तीफा दे देता
आप कितनी मामूली सी चीज माँग रहे हैं
यह आपने कभी सोचा है
मैंने कितनों को लैपटॉप दिया
कितनों को एप्पल का टैबलेट, किसानों को ऋण
गरीबों को आश्वासन
तो फिर इस्तीफा क्या चीज है
मेरे लिए
अपना दिल और दिमाग
जब मैंने दे दिया
जिसको देना था
और उसके लिए पूरी दुनिया में बदनाम भी हुआ
तो इस्तीफा देने से मैं क्यों कतराता
पर यूँ ही खामव्वाह
बिना किसी बात के
महज चंद एलोकेशन के लिए
मैं इस्तीफा क्यों दूँ
अगर जल बोर्ड के अध्यक्ष पद से कभी इस्तीफा दिया होता
तो जरूर आज मैं इस्तीफा देता
कोई अनुभव नहीं है जब मुझे
इस्तीफा देने का
तो मैं क्यों देता इस्तीफा
अगर नैतिकता का सवाल आप नहीं उठाते
तो मैं कब का इस्तीफा दे देता
पर मैंने भी ठान लिया है
इस्तीफा नहीं दूँगा
भले ही मैं अपने घर की खिड़कियाँ
दरवाजे दे दूँ
बाथ टब दे दूँ आपको
दीवान और डाइनिंग टेबल दे दूँ आपको
पर क्यों दूँ इस्तीफा
एक नजीर बनाने के लिए
अगर आप कहें तो मैं इतने पासवर्ड दे सकता हूँ आपको
बैंक एकाऊंट और पैन नंबर
यहाँ तक कि स्विस बैंक का भी नंबर
पर सवाल है जिन लोगों ने इस्तीफे दिए अब तक
उन्हें इतिहास भी याद नहीं करना
किसी चैनल पर भी नहीं पूछा जाता
रेल दुर्घटना पर अब से पहले किस ने दिया था इस्तीफा
तो फिर मेरे मरने के बाद
किस क्विज में पूछा जाएगा
कि मैंने कभी दिया था इस्तीफा
इसलिए मैं नहीं दूँगा इस्तीफा कभी
क्योंकि जब मैं नहीं दूँगा
तभी आप भी याद करेंगे मुझे
कि एक शख्स ने बार-बार
माँगे जाने पर भी नहीं दिया था इस्तीफा
जबकि वह सब कुछ देने को तैयार था
अपना दीन-ईमान
अपनी इज्जत, आबरू
अपनी भाषा अपनी लिपि
जब एक आदमी ने
दे दिया इतना सर्वस्व जीवन
समर्पित कर दिया खुद को राष्ट्र को
होम कर दिया
तो आप उससे
इस तरह इस्तीफा क्यों माँग रहे हैं
माफ कीजिएगा
इतनी छोटी सी चीज मैं क्यों देता किसी को
मैंने अखबारनवीसों को भी दिया है जब भी
तो कम से एक अँगूठी जरूर दी है
देवियो और सज्जनो
मैं इस देश को नई दिशा दूँगा
पर इस्तीफा नहीं दूँगा
स्मृतियाँ आती हैं..
तुम तो नहीं मिलती हो अब
पर तुम्हारी स्मृतियाँ
मिलती हैं मुझसे हर रोज
कभी किसी पार्क में
पत्थर की बेंच पर बैठी चुपचाप
कभी घर की सीढ़ियों पर
कभी छत पर कुछ सोचते हुए
जब भी देखता हूँ सर उठा कर आसमान
वो मिल जाती हैं मेरी आँखों में
झाँकता हूँ किसी कुएँ के भीतर से
देखता हूँ कोई फूल
कभी कोई नदी कोई झरना
कोई गिरती हुई पत्ती पेड़ से
कोई उड़ती हुई चिड़िया
खिलती हुई कोई धूप
तो वह मिल जाती हैं
तुम्हारी स्मृतियाँ रोज मिल जाती हैं
मुझसे
जब पार करता हूँ कोई पुल
किसी रेल में बैठ कर कहीं जा रहा होता हूँ
रात में ठीक सोने से पहले दवा खाते हुए
और सुबह जागने पर भी
वह मिल जाती है मुझे
कुछ कहती हुई शाम के बारे में
कुछ बताती हुई रोशनी के बारे में
कुछ लिखती हुई अँधेरों के बारे में
मुझे कचोटती हुई भीतर ही भीतर
बुलाती हुई अंदर ही अंदर मुझे
अब तुम तो नहीं मिलती हो कभी
पर तुम्हारी खुशबू
मुझ से मिलने चली आती है
हवा में उड़ कर झोंके की तरह
तुम्हारी आवाज भी आती है
मुझसे मिलने लड़खड़ाती हुई
तुम्हारी परछाई भी
लहूलुहान हो कर
सिर्फ तुम नहीं आती हो
आती हैं तुम्हारे कदमों की आहटें
तुम्हारी प्रतिध्वनियाँ
तुम्हारी मुस्कराहटें
हँसी के उजले छोर
तुम्हारा दुख भी कभी मुझसे मिलने चला आता है
क्योंकि मेरा परिचय तुमसे
उसके जरिए ही हुआ था
तुम नहीं आती हो मुझसे मिलने
पर तुम्हारी स्मृति क्यों चली आती हैं
मुझसे मिलने
कई टुकड़ों
कई रूपों में
मेरी नींद में खलल मचाती हुई
मुझे लहरों की तरह मथती हुई
मुझे बेचैन करती हुई
मेरे भीतर
टीसती हुई
चुभती हुई
मेरी आत्मा के भीतर
एक गहरी पुकार सी
तुम्हारी स्मृतियाँ
क्यों घेर लेती हैं
मुझे कोहरे की तरह
चारों ओर से
लपेटे
कि मेरा साँस लेना भी अब मुश्किल हो चला है
तुम्हें नहीं मालूम
तुम्हारी स्मृतियाँ
मेरी किताबों
दीवारों और खिड़कियों के भीतर
यहाँ तक कि
जिस कलम से जो कुछ भी
लिखता हूँ
उसकी स्याही के भीतर
चली आती हैं
जिस पानी से नहाता हूँ
उस पानी के भीतर
भी चली आती हैं
और मेरे रक्त में भी
घुल-मिल गई हैं
जिन्हें हटाना
लगभग असभंव है
मेरे लिए
पर जिनके साथ जीना भी
उतना ही मुश्किल है
क्योंकि तुम मुझसे
मिलने नहीं आती हो
सिर्फ स्मृतियाँ ही
आती हैं मुझसे मिलने
सोने की इस मरी हुई चिड़िया को बेच कर चला जाऊँगा
तुम देखते रह जाओ
मैं नदी नाले तालाब
शेरशाह सूरी का ग्रांड ट्रंक रोड
नगर निगम की कार पार्किंग
चाँदनी चौक के फव्वारे
सब कुछ बेच कर चला जाऊँगा
मैं चला जाऊँगा बेचकर
अपने गाँव की जमीन जायदाद खेत खलिहान
दुकानों, यहाँ तक कि अपने पूर्वजों के निशान
सब कुछ बेच कर चला जाऊँगा एक दिन
तुम देखते रहना बस चुपचाप
तंग आ गया हूँ
इस देश की बढ़ती गरीबी से
परेशान हो गया हूँ
नित्य नए घोटाले से
मेरी नींद जाती रही
जाता रहा मेरा चैन
इसलिए मैंने तय कर लिया है
अपने घर का सारा सामान पैक कर चला जाऊँगा
पर जाने से पहले
इस देश तो पूरे तरह बेचकर जाऊँगा
मैं ठहरा एक ईमानदार आदमी
नहीं तो बेच देता मैं अब तक कुतुबमीनार
अगर मिल जाता मुझे कोई खरीददार
बेच देता चारमीनार
इंडिया गेट, चंडीगढ़ का रॉक गार्डन, मैसूर का पैलेस
आखिर इन चीजों से हमें मिलता ही क्या है
नहीं होता अगर इनसे कोई उत्पादन
नहीं बढ़ता जी.डी.पी.
नहीं घटती मुद्रा स्फीति
तो बेच ही देना चाहिए
बाबा फरीद और बुल्ले शाह के गीत
बहादुर जफर का उजड़ा दयार, टीपू की तलवार
मैं धर्मनिरपेक्ष हूँ
नहीं तो कब का बेच देता
अमृतसर का स्वर्ण मंदिर
बाबरी मस्जिद जो ढहा दी गई
पुरी या कोणार्क का मंदिर
सोमनाथ या काशी विश्वनाथ का मंदिर
लेकिन नहीं बेचा अब तक
पर मैंने सोच लिया है
अगर तुम लोग करोगे मुझे नाहक परेशान
उछालोगे कीचड़ मेरी पगड़ी पर
तो मैं इस देश की आत्मा को ही बेच कर चला जाऊँगा
है इस देश में इतना भ्रष्टाचार
तो मैं क्या करूँ
है इस देश में इतना कुपोषण
तो मैं क्या करूँ
है इस देश में इतना शोषण
तो मैं क्या करूँ
अधिक से अधिक एफ.डी.आई. ही तो ला सकता हूँ
बेच सकता हूँ भोपाल का बड़ा ताल
नर्मदा नदी पर बाँध
पटना का गोलघर
लहेरिया सराय में अशोक की लाट
कन्या कुमारी में विवेकानंद रॉक
बंकिम की दुर्गेशनंदिनी
टैगोर का डाकघर
वल्लोत्तोल की मूर्ति
बेलूर मठ
दीवाने गालिब
अगर इन चीजों के बेचने से बढ़े विदेशी मुद्रा भंडार
तो हर्ज क्या है
बताओ, इस मुल्क के रोग का मर्ज क्या है
क्या हर्ज है
यक्षिणी की मूर्ति बेचने में
कालिदास को बेचने में
भवभूति के नाटकों को बेचने में
हीर राँझा और सोहनी महिवाल
और देवदास को बेचने में
मैं इस देश को उबारने में लगा हूँ
संकट की इस घड़ी में
जब अर्थव्यवस्था पिघल रही है
पर तुम समझते ही नहीं
लेकिन तुम फौरन बयान देते हो मेरे खिलाफ
मैं तो इस देश के भले के लिए ही
इस देश को बेच रहा हूँ
अपने मोहल्ले में पान की गुमटी
किराना स्टोर को बेच दिया
बेच रहा हूँ कोयले की खान
स्टील के प्लांट
कपड़े की मिल
ताकि तुम्हारे बच्चे कुछ लिख पढ़ सकें
ताकि तुम्हारे दवा दारू का हो सके इंतजाम
न करो तुम इस तरह आत्महत्याएँ
पर तुम कहते हो कि मैं नई ईस्ट इंडिया कंपनी ला रहा हूँ
देश को गुलाम बना रहा हूँ
आजादी का ये जज्बा ही है कि मैं बेच रहा हूँ
क्योंकि आजादी से हमें नहीं मिली आजादी दरअसल
सचमुच, मैं तुम्हारे तर्क, विरोध,
प्रर्दशन
जुलूस, धरने और जल सत्याग्रह से आजिज आ गया हूँ
78 साल की उम्र में पेसमेकर लगा कर चल रहा हूँ
डायबिटीज का मरीज हो गया हूँ
चश्मे का नंबर बढ़ता जा रहा हर साल
घुटने होते जा रहे मेरे खराब
मेरा क्या है
अगर तुम लोग मुझे रहने नहीं दोगे
अपने देश में
तो मैं वहीं चला जाऊँगा
जहाँ से आया हूँ सेवानिवृत्त हो कर
तुम लोग ही भूखे मरोगे
सोच लो
मुझे अपने जाने से ज्यादा चिंता है तुम्हारी
इसलिए
पहले आओ पहले पाओ के आधार पर
मैं पहले आर्यावर्त
फिर भारत को बेच कर चला जाऊँगा
देखता हूँ तुम लोग कैसे रहते हो इंडिया में
तुम लोग पड़े रहो इस गटर में जहालत में
जब तक तुम्हारी टूटेगी नींद
जागोगे मेरे खिलाफ
लामबंद होगे
मैं इस सोने की मरी हुई चिड़िया को बेच कर चला जाऊँगा
दूर बहुत दूर…