Skip to content

प्रिय आत्मन

धम-धमाधम, धम-धमाधम, धम-धमाधम
लो आ गया एक और नया वर्ष
ढोल बजाता, रक्त बहाता
हिंसक भेड़ियों के साथ
ये वे ही भेड़िए हैं
डर कर जिनसे
की थी गुहार आदिमानव ने
अपने प्रभु से-

‘दूर रखो हमें हिंसक भेड़ियों से’
हाँ, ये वे ही भेड़िए हैं
जो चबा रहे हैं इन्सानियत इन्सान की
और पहना रहे हैं पोशाकें उन्हें
सत्ता की, शैतान की, धर्म की, धर्मान्धता की
और पहनकर उन्हें मर गया आदमी
सचमुच

जीव उठी वर्दियाँ और कुर्सियाँ
जो खेलती हैं नाटक
सद्भावना का, समानता का
निकालकर रैलियाँ लाशों की,
मुबारक हो, मुबारक हो,
नई रैलियों का यह नया युग
तुमको, हमको और उन भेड़ियों को भी
सबको मुबारक हो,
धम-धमाधम, धम-धमाधम, धम-धमाधम

मौन ही मुखर है

कितनी सुन्दर थी
वह नन्हीं-सी चिड़िया
कितनी मादकता थी
कण्ठ में उसके
जो लाँघ कर सीमाएँ सारी
कर देती थी आप्लावित
विस्तार को विराट के

कहते हैं
वह मौन हो गई है-
पर उसका संगीत तो
और भी कर रहा है गुंजरित-
तन-मन को
दिगदिगन्त को

इसीलिए कहा है
महाजनों ने कि
मौन ही मुखर है,
कि वामन ही विराट है ।

आग का अर्थ

मेरे उस ओर आग है,
मेरे इस ओर आग है,
मेरे भीतर आग है,
मेरे बाहर आग है,
इस आग का अर्थ जानते हो ?

क्या तपन, क्या दहन,
क्या ज्योति, क्या जलन,
क्या जठराग्नि-कामाग्नि,
नहीं! नहीं!!!
ये अर्थ हैं कोष के, कोषकारों के
जीवन की पाठशाला के नहीं,

जैसे जीवन,
वैसे ही आग का अर्थ है,
संघर्ष,
संघर्ष- अंधकार की शक्तियों से
संघर्ष अपने स्वयं के अहम् से
संघर्ष- जहाँ हम नहीं हैं वहीं बार-बार दिखाने से
कर सकोगे क्या संघर्ष ?
पा सकोगे मुक्ति, माया के मोहजाल से ?

पा सकोगे तो आलोक बिखेरेंगी ज्वालाएँ
नहीं कर सके तो
लपलपाती लपटें-ज्वालामुखियों की
रुद्ररूपां हुंकारती लहरें सातों सागरों की,
लील जाएँगी आदमी
और
आदमीयत के वजूद को

शेष रह जाएगा, बस वह
जो स्वयं नहीं जानता
कि
वह है, या नहीं है ।

हम
हम प्रतिभा के वरद पुत्र
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम दिन भर करते ब्लात्कार
देते उपदेश ब्रह्मचर्य का
हर संध्या को

हम प्रतिभा के वरद पुत्र
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम दिन भर करते पोषण
जातिवाद का
निर्विकार निरपेक्ष भाव से
करते उद्घाटन
सम्मेलन का
विरोध में वर्भेगद के
हर संध्या को

हम प्रतिभा के वरद पुत्र
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम जनता के चाकर सेवक
हमें है अधिकार
अपने बुत पुजवाने का
मरने पर
बनवाने का समाधि
पाने को श्रद्धा जनता की ।

हम जनता के चाकर
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
जनता भूखी मरती है
मरने दो
बंगलों में बैठ हमें
राजसी भोजन करने दो, राजभोग चखने दो
जिससे आने पर अवसर
हम छोड़ कर चावल
खा सकें केक, मुर्ग-मुसल्लम

हम नेताओं के वंशज
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम प्रतिपल भजते
रघुपति राघव राजा राम
होते हैं जिसके अर्थ
चोरी हिंसा तेरे नाम

भूमिका / चलता चला जाउँगा

स्व. श्री विष्णु प्रभाकर से परिचित साहित्य-प्रेमी सहसा विश्वस न कर सकेंगे कि कथा-उपन्यास, यात्रा-संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, रूपक, फीचर, नाटक, एकांकी, समीक्षा, पत्राचार आदि गद्य की सभी संभव विधाओं के लिए ख्यात विष्णुजी ने कभी कविताएं भी लिखी होंगी। किंतु इस संग्रह के माध्यम से विष्णुजी का अब तक सामान्यतः अपरिचित रहा चेहरा सामने आ रहा है। संभवतया यह भी संयोग ही रहा कि उनके लेखन की शरुआत (उनके कहे अनुसार) कविता से हुई और उनकी अंतिम रचना, जो उन्होंने अपने देहावसान से मात्र पच्चीस दिन पूर्व बिस्तर पर लेटे-लेटे अर्धचेतनावस्था में बोली, वह भी कविता के रूप में ही थी।

प्रस्तुत काव्य-संकलन में सन् 1968 से 1990 की अवधि में उनकी आंतरिक संवेदनाओं को कविता के रूप में संप्रेषित करती उन अभिव्यक्तियों को संकलित करने का प्रयास किया है, जो वे वर्ष में एक या दो बार समाज व मानव की स्थितियों-परिस्थितियों पर कविता के रूप में दीपावली व नववर्ष के संदेश के रूप में अपने चाहनेवालों को भेजते रहते थे।

विश्वास है, सुधीपाठक स्व. विष्णुजी कविताओं में छुपे उनके अंतर्मन के राज से परिचित हो उनके कवि रूप का दर्शन कर सकेंगे।

एक छलावा

बापू !
तुम मानव तो नहीं थे
एक छलावा थे
कर दिया था तुमने जादू
हम सब पर
स्थावर-जंगम, जड़-चेतन पर
तुम गए—
तुम्हारा जादू भी गया
और हो गया
एक बार फिर
नंगा।
यह बेईमान
भारती इनसान।

रचनाकाल : अगस्त, १९६८

शब्द और शब्द

एक

समा जाता है
श्वास में श्वास
शेष रहता है
फिर कुछ नहीं
इस अनंत आकाश में
शब्द ब्रह्म ढूँढ़ता है
पर-ब्रह्म को

दो

शब्द में अर्थ नहीं समाता
समाया नहीं
समाएगा नहीं
काम आया है वह सदा
आता है
आता रहेगा
उछालने को
कुछ उपलब्धियाँ
छिछली अधपकी

रचनाकाल : 1968

कड़वा सत्य

एक लंबी मेज
दूसरी लंबी मेज
तीसरी लंबी मेज
दजीवारों से सटी पारदर्शी शीशेवाली अलमारियाँ
मेजों के दोनों ओर बैठे हैं व्यक्ति
पुरुष-स्त्रियाँ
युवक-युवतियाँ
बूढ़े-बूढ़ियाँ
सब प्रसन्न हैं

कम-से-कम अभिनय उनका इंगित करता है यही
पर मैं चिंतित हूँ
देखकर उस वृद्धा को
जो कभी प्रतिमा भी लावण्य की
जो कभी तड़प थी पूर्व राग की
क्या ये सब युवतियाँ
जो जीवन उँड़ेल रही हैं
युवक हृदयों में
क्या ये सब भी
बूढ़ी हो जाएँगी
देखता हूँ पारदर्शी शीशे में
इस इंद्रजाल को
सोचता हूँ—
सत्य सचमुच कड़वा होता है।

रचनाकाल : मार्च, १९६९

निकटता

त्रास देता है जो
वह हँसता है
त्रसित है जो
वह रोता है
कितनी निकटता है
रोने और हँसने में

रचनाकाल : १९६८

Leave a Reply

Your email address will not be published.