दुख
कब बदलते हैं दुख…
हर काल
और हर युग में
एक होती है
उनकी भाषा
और रंग-रूप
कब बदलते हैं दुख…
उनके चित्र बदल जाते हैं
बदल जाते हैं उनके मायने
रूठ जाते हैं
सारे सुख उनके सामने…
कब बदलते हैं दुख…
दिन बदल जाते हैं
दुख नहीं बदलते
वे फिर-फिर लौट आते हैं
रूप बदल कर।
खाली हाथ
मैंने अपनी भावनाएँ
मिट्टी में दबा दीं
अपने आँसू
रख दिए कमल की पंखुड़ियों पर
इच्छाओं को कर दिया विसर्जित
नदी में
सपनों को टांग दिया तारों पर
अपने दुख लौटा दिए मैंने
राहु और केतु को
सुखों को भेज दिया
देवलोक
बचा कर रखी मैंने अपने पास
सिर्फ़ अपनी साँस
क्योंकि साँस नहीं है
मेरे हाथ।
गुलाल
होलिका में नहीं जलाते
अब हम अपनी बुराइयाँ
नहीं डालते कंडे…
कोई बच्चा
रंगभरी पिचकारी मारता है हम पर
तो किनारे हो जाते हैं हम
कोई परिचित गुलाल उड़ाता है
तो ढक लेते हैं अपना मुँह…
होली के दिन अब नहीं पहनते
हम शक्कर की माला
नीले हो गए हैं हमारे कंठ
समय के हलाहल से…
रिश्तो में कम होती जा रही है चीनी
और बढ़ता जा रहा है नमक
ऎसे में कैसे लगाऊँ
तुम्हारे गालों पर गुलाल…!