तबियत
जो अपनी तबियत को
बदल नहीं सकते
हम ऐसे शब्दों को
जीकर क्या करते
नये सूर्य को मिलते हैं
फूटे दर्पण
नए-नए पाँवों को-
गड़े कील से
मन
ध्वस्त लकीरों के बाहर
आते डरते
हम ऐसे शब्दों को
जीकर क्या करते
कोल्हू से अर्थों में
बार-बार घूमे
बँधे-बँधे मिथकों से
खुलकर क्या झूमे
आत्ममुग्ध होकर
अपने को ही छलते
हम ऐसे शब्दों को
जीकर क्या करते
कभी नए बिम्बों का
बादल तो बरसे
अपने हाथ बुनी नीड़ों का
मन तरसे
साहस मार-मार कर
लीकों पर चलते
सूरज लील लिए
हिरना
इस जंगल में
कब पूरी उम्र जिए
घास और पानी पर रहकर
सब तो, बाघों के मुँह से
निकल नहीं पाते
कस्तूरी पर वय चढ़ते ही
साये, आशीषों के
सर पर से उठ जाते
कस्तूरी के
माथे को
पढ़ते बहेलिए
इनके भी जो बूढ़े मुखिया होते
साथ बाघ के
छाया में पगुराते
कभी सींग पर बैठ
चिरैया गाती
या फिर मरीचिकाओं पर मुस्काते
जंगल ने
कितने
तपते सूरज लील लिए
सब के सब धूमिल
दर्पण
सब के सब धूमिल
औंधे मुँह सूरज के हाथों
क़त्ल हुई प्रतिभाएँ
कोइ सूरत क्या देखे
सब बिम्बहीन गँगाएँ
ताने हुए थे इन्द्रधनुष
बिखर गए कुहरिल-कुहरिल
न्यायों की मृगतृष्णा के
प्यासे
वादी, प्रतिवादी
बंदूकों की छाया में
ऊबे-ऊबे अपराधी
तथाकथित रामों की
गुहराएँ
आज के अजामिल
भीड़ों में रस्ते खोए
अनजानों में पहचानें
ख़ुद की तलाश में
बार-बार
आतीं एक ठिकाने
पंथ-प्रदर्शक
मिलते हैं
जेबों में डाले मंज़िल
होश में आए
नींद में हम
प्रार्थनाएँ कर गए
होश में आए
ठगे-से रह गए
भाषणों में सार्थक
शब्द कुछ जोड़े नहीं
उठ पड़े कुछ प्रश्न तो
मौन थे ओढ़े वही
शून्य-शिखरों की
सभाएँ कर गए
होश में आए
ठगे-से रह गए
मूर्तियों-से शब्द हैं
कौन खोले अर्थ को
कुछ तिलक कुछ पोथियाँ
रट रहीं हैं व्यर्थ को
सत्यनारायण
कथाएँ कर गए
होश में आए
ठगे-से रह गए
हम हिमालय पर चढ़े
हाथ खाली आ गए
तीर्थ निकले रेत के
साथ सब भटका गए
छाँइयों की परिक्रमाएँ-
कर गए
होश में आए
ठगे-से रह गए
बिखरे हिमखण्ड
तितर-बितर कर दिए गए हो
सोचो फिर जुड़ाव की।
दल-संस्कृति से मिला तुम्हें क्या
कबीलियाई ख़ून-ख़राबा
टूटा ध्वज, तिलक, टोपियों के-
बल पर कुछ बनने का दावा
खाली सिर हो गए बोझ से
सोचो फिर भराव की।
जाति आदमी, धर्म आदमी
क्या ये दर्शन नाकाफ़ी है
क्या नहीं दूसरी आज़ादी-
के लिए बात बुनियादी है
बिखर गए हिमखंडों! सोचो
मिलकर फिर बहाव की ।
वोटर उवाच
उस दर्पण को
रचा हमीं ने
उसमें अपना रूप
नहीं दिखता है
दर्पण, राजा है
दर्पणकार अपरिचित-सा परजा
दर्पण की शानो-शौकत पर
है अरबों का खर्चा
देखा?
अपनी ही संसद के
वह ग्रह-नक्षत्र
सँवारा करता है
दर्पण में
चलती रहती है
विकास की द्वन्द्व-कथा
ऐसे सब्ज़-बाग हैं
जिनकी धरती का नहीं पता
इससे पहले तोष बहुत था
अब तो केवल
असंतोष उगता है
वोट अमृत है
इसको पीकर
अमर हो गया दर्पण
कोई तोड़े तो जी उठता है
हर टुकड़े में दर्पण
राहु-केतुओं का हर घर में
हर किरच-कोंण का
दंश दहकता है ।
दूरी
इतने वर्षों में केवल
दुनिया छोटी हुई
किलों की दूरियाँ बढ़ी
कोयल बागी हुई भूमिगत
बागों में कौवों का बहुमत
गिद्दों की अगवानी में
डाल-डाल उखड़ी
उतर गया शेरों का चश्मा
अजरज, कहीं न कोई सदमा
जंगल में उल्लू के कुल-
की ही शाख़ बढ़ी
कैसे हैं चमत्कार
कैसे है चमत्कार
नेकी से हो रही बंदी
लाशें ईमानों की
हत्यारे ही रखवाले
काले को उजाला करते
जादू भरे घुटाले
लंबोदर का भेष धरे
पीते दूध की नदी
आज़ादी के जंगल राजा के
कांड घिनौने
इनकी करतूतों को
छुपकर देखें मृग-छौने
बता रहे ये
कैसी होगी इक्कीसवीं सदी
आयातित ईजादों से
हम अब तक क्या सीखें
क्या इनकी ख़ुशियों के-
स्वाद नहीं लगते तीखे?
सता रहे हैं प्रेत
समस्याएँ हो गई सती
एक राधा का आर्त्तनाद
कंस लूट कर भाग गया है
हारी हरि की राधा रानी
रिसे खून की गर्मी बोली
अब चुप रहना है बेमानी।
देख रही द्वापर में जाकर
पूरे एक महाभारत को
कितने नग्न हो गए थे वे
नंगी करने में औरत को
नग्न प्रदर्शन है जब युग ही
क्या तन ढकना है बेमानी।
मान राजसी क्यों रम्भा का
और अहिल्या क्यों अभिशापित
यह फर्क सोच है, देह नहीं
औरत शोषक औरत शोषित
शोषण-तंत्र कांच का घर है
लाज पहनना है बेमानी।
याद सभ्यता का बर्बर युग
लूटी जाती थी अबलाएँ
कई पत्नियों को रखने का
बाहुबली खुद शास्त्र रचाएं
उस युग के विद्रूप समय को
जिन्दा करना है बेमानी।
नारी-इच्छा-मान किताबी
घर के भीतर वह बांदी है
दोषारोपण सिर मढ़ने की
लंपट को भी आजादी है
घर के भीतर की हिंसा में
तिल-तिल घुटना है बेमानी।
किस आशा की ताकत पर वह
अपशब्द, गालियॉ खाती है
हद है, पीहर से बाबुल तक
फुटबाल बना दी जाती है
खुद को दोषी मान जलाना-
फॉसी चढना है बेमानी।
रूढ -कैचियां चला बेटियों-
को औरत में ढाला जाता
जितना-जितना बढे पुरूषपन
उतना-उतना छांटा जाता
बेटी को बस औरतपन से
दीक्षित करना है बेमानी।
लड़का जनमे तो लड़के की
मॉ में ताकत आ जाती है
लड़की के पैदा होते वह
किस शोषण का भय खाती है
औरत, औरत की ताकत हो
उसका डरना है बेमानी।
इस उपभोक्ता संस्कृति में क्यों
अबला खुद उत्पाद बनी है
हासिल का कुछ अर्थ नहीं बस
सबलों का व्यापार बनी है
खुद को छलना किसके खातिर ?
पथ से गिरना है बेमानी।
नर-नारि काम के ज्ञानी हो
हो शमित काम का ज्वाल रूप
वह मंत्र उपेक्षित क्यों अब तक
जिसमें उज्जवल है बाल रूप
काटते नहीं जड़ शोषण की
डाल काटना है बेमानी।
भूमण्डलीकरण का चालक,
नारी को भोग्या बना रहा
भारत अनुबंधित है उससे
उसकी हॉ मे हॉ मिला रहा
सामंती नवनस्लवाद को,
दोस्त समझना है बेमानी।
काम-काज की दिनचर्या में
सैनिक जैसा उन्मेष रहे
योनहीनता घर कर न सके
मन स्वाभिमान से लैस रहे
रूढ़ वर्जना अग मुकाबिल,
पीछे हटना है बेमानी।
शिक्षा में नारी-शिक्षा का
समाहार हो जन सहमति भी
इस सृष्टि स्वरूपा नारी की
जन-जन में आए जाग्रति भी
युग-सत्य असंभव क्रांति बिना
युग को छलना है बेमानी।
काम-कला में निपुण नारियां
स्वच्छंद जिन्दगी रच सकती
गर्भपात जैसे कृत्यों से
तकनीक ज्ञान से बच सकती
संयम खोकर कामुकता पर
तन का बिछना है बेमानी।
पुरूषों की मरजी पर सहमत
नारी, नारी को कोस रही
लिंग परीक्षण करवाकर क्यों
नारी को ही दे मौत रही
अपने हाथों अपना संख्या
बल कम करना है बेमानी ।
कोमल काया जड़ फसाद की
काया को वज्र बनाना है
नारी-मॉस चबाते हैं वे
मुझको काली बन जाना है
है समाज आधा नारी का
दाय छोड ना हे बेमानी।
क्यों न साफ हो भ्रूण पुत्र का
क्यों न पुत्रियां पाली जाएं
आखिर कैसे रूक पाएगी
पुरूषवाद की बर्बरताएं
रच न सकी नारीमय दुनिया
तो हर रचना है बेमानी।
व्याह करूँ क्या कंसा तुझसे
और करूँ क्या पैदा कंसी
कान्हा अब टूटी बैसाखी
टूट गई वो भ्रामक बंशी
कलियुग विधवा जीवन-सा है
द्वापर जपना है बेमानी।
ग्रन्थों में जो भरा पड़ा है
मिथक तोड़ना उस राधा का
जागो-जागो हे मातृ-शक्ति
सम्मान शीर्ष हो मादा का
सिर्फ विरहणी के अर्थो में
जीना-मरना है बेमानी।