आगे चले चलो
अपवाद भय या कीर्ति प्रेम से निरत न हो,
यदि ख़ूब सोच-समझ कर मार्ग चुन लिया।
प्रेरित हुए हो सत्य के विश्वास, प्रेम से,
तो धार्य नियम, शौर्य से आगे चले चलो।
वह अभीष्ट सामने बाएँ न दाहिने-
भटके इधर-उधर न बस फिर दृष्टि वहाँ है।
उस दिव्य शुद्ध-मूर्त्ति का ही ध्यान मन रहे,
और धुन रहे सदा ही यही- आगे चले चलो।
अह, दाहिने वह क्या है दूब? कमली? गुलाब?
और बाएँ लहर मारते नाले बुला रहे।
वह क्या वहाँ है गीत मृदुल, मंजु मनोहर।
पर इनसे प्रयोजन ही क्या- आगे चले चलो।
स्थिर चमक वह सूर्य-सी संकेत कर रही,
कहती है, “विघ्न-व्याधि को सह लो ज़रा-सा और।”
वह माद थकावट सभी होने को दूर है,
यह ध्यान रहे किन्तु कि- आगे चले चलो।
यह देखिए उस ओर कोई जीभ निराता,
कोई तालियाँ है पीटता कहता है- भण्ड से।
पर ध्वनि कहाँ से आई यह- आगे चले चलो।
कुछ देखते हैं चश्मा चढ़ाए हुए यह कृत्य :
होते हैं कभी क्रुद्ध तो हँसते हैं कभी-कभी।
वश हो के दुराग्रह के कभी भ्रष्ट भी कहते,
परवा न करो तुम कभी- आगे चले चलो।
यदि सत्य के आधार पर है मार्ग तुम्हारा,
चिन्ता नहीं जो विघ्न के काँटों से पूर्ण हो।
अफ़वाह है अशक्य तुम्हें भीत करने में,
बस अपनी धुन में मस्त रह- आगे चले चलो।
बस होना दुराग्रह के है मानव प्रकृति सदा,
निर्भर्न्तना,धुतकर्म, हँसी, सन्तती उसकी।
काँटें हैं और गर्त भी अनिवार्य उसके अंग।
पर सत्य तुम्हारी ही है- आगे चले चलो।
जो मित्र था कभी वह बनेगा अमित्र शीघ्र,
दम भरता जो सहाय का वह मुँह बनाएगा।
पीछे भी चलने वाले अब पिछड़ेंगे बहुत दूर,
एकान्त शान्त हो के तुम आगे चले चलो।
काँटें गड़ेंगे पग में अकेले सहोगे पीर,
उल्टे हँसेंगे लोग तुम्हारी कराह पर।
कुछ गालियाँ भी देंगे- पर यह तो स्वभाव है,
छोड़ो उन्हें उन्हीं को, तुम आगे चले चलो।
पद का लोहू न पोंछना यह विजय-चिन्ह है,
छाती कड़ी करो तनिक, सिर को भी उठा लो।
अपवाद पर हँस दो ज़रा चिन्ता न कुछ करो,
उस सत्य को ले साथ बस- आगे चले चलो।
धमकी से न भयभीत हो, कुढ़्ना भी न मन में
यदि कोई बुरा कहता है तो कहने दो उसे तुम।
निर्बल है भृकुटि-भंग वह तुम आँख मिला लो,
और ध्यान धर जगदीश का आगे चले चलो।
रचनाकाल : 1914
विनोद
है विनोद बिन जीवन भार
है विनोद बिन जड़ संसार
है विनोद बिन बुद्धि असार
है विनोद बिन देह पहार
है विनोद से बुद्धि विकास
ज्ञान-तंतुओं से परकास
शक्ति कवित्व इसी से निकली
ईश भावना इस से उजली।
1958 में ‘समालोचक’ (सम्पादक डा० रामविलास शर्मा) में प्रकाशित
भारत-पथिक
1
चतुर्दिक भूमि कण्टका-कीर्ण अंधेरा छाया था सब ओर,
मार्ग के चिन्ह हुए थे लुप्त, घटा घुमड़ी थी नभ में घोर
बुद्धि की सूझ हुई थी मंद, प्रेरणा की गति भी निस्पंद,
खेल सब आशा के थे बंद, कष्ट का नहीं कहीं था छोर।
2
भटक कर चला गया था दूर, मानसिक शक्ति हुई ही चूर,
बजे टूटी तन्ने के तार- नहीं क्या होगा अब उद्धार।
जगत में व्याप हुई वह हूक, न निष्फल गई हृदय की कूक,
कहीं से मिला एक संकेत- बना वह काँटों में आधार।
3
तमिस्रा हुई गगन में लीन, दिशा ने पाई दृष्टि नवीन,
सजाया नेत्रों ने मृदु मार्ग, पलक प्रिय बने पाँवड़े पीन,
उदित हुई जब पूर्व के द्वार, पहिन कर ऊषा मुक्त हार,
समीरि सौरभ ने ली तान, बजी पुलकित मुकुलों की बीन।
प्रफुल्लित मृदु-मुकुलों को देख, मिलाया विधि ने सीकर एक,
सफल उनके जीवन हो गए हुई सब नीर सताएँ क्षीण।
4
श्वास ने प्राप्त हो किया विश्वास, सहज ही स्वच्छ हुआ उच्छास,
किरण का जाल पसार-पसार, किया ऊषा ने मंजुल हास,
उच्चरित हुआ विश्व का प्राण, भूला पथिक पा गया प्राण,
पवन के कण-कण का उद्भास जाकर करने लगा विलास।
5
बढ़ा किरणों का क्रमश: दाप कभी मृदुल कभी आप,
किए सब क्षीण पुराने शाप, तपों से धर निज रूप कठोर,
भक्त ने की, प्रणाम सौ बार, कभी तो हुई नहीं स्वीकार,
कभी कर भी ली अंगीकार, हृदय में पीर उठी झकझोर।
6
बुरा हूँ तो किसका हूँ देव भला हूँ किसका हूँ भक्त
दया सब बनी रहे अविराम कमी है नहीं तुम्हारे पास
हुई यदि हँसी भक्त की कभी बिगड़ता तो उसका कुछ नहीं,
प्रभामय होते हैं निरपेक्ष जगत में होगा यह उपहास।
7
तुम्हें जो मन आए सो करे, हमें कहने का क्या अधिकार
विनय बस रही निरंतर यही, अमर हो शक्ति तुम्हारी देव,
भूल मत जाना अपनी टेक, भूलना केवल मेरा नाम,
तुम धरते-धरते ध्यान, हमारा बेड़ा होगा पार।
8
अर्चना करने की है चाह, चरण में अर्प का उत्साह,
पुजापा नहीं किन्तु है हाथ, बंदना कैसे होगी नाथ,
भिखारी आया मंदिर द्वार मांगता केवल यह वरदान-
चरणरज चर्चित भासित भाल, पदों में टिका रहे यह भाल।
रचनाकाल : अक्तूबर 1929
सूरज के घोड़े
सूरज के घोड़े इठलाते तो देखो नभ में आते हैं।
टापों की खटकार सुनाकर तम को मार भगाते हैं
कमल-कटोरों से जल पीकर अपनी प्यास बुझाते हैं
सूरज के घोड़े इठलाते तो देखो नभ में आते हैं।
उन मुस्कानों की बलि जाऊँ
उन मुस्कानों की बलि जाऊँ
सती की चिता की दीपशिखा पर जो लहराती रहती हैं
निर्बल के कण-कण में भी जो ज्योति जगाती रहती है
बलिदानों की ध्वजा निरन्तर जो फ़हराती रहती है
उन बलिदानों से बल पाऊँ उन वरदानों से भर पाऊँ
उन मुस्कानों की बलि जाऊँ।
तमिस्रा हुई गगन में लीन-दिशा
तमिस्रा हुई गगन में लीन
दिशा ने पाई दृष्टि नवीन।
उदित हुई जब पूर्व के द्वारा
पहिन कर ऊषा मुक्ता हार।
सजाया नेत्रों ने मृछु मार्ग
पलक प्रिय बने पाँवड़े पीन।
सामीरित सौरभ ने ली तान
बजो पुलकित मुकुलों की बीन।