अंधेरा मेरे लिए
रहती है रोशनी
लेकिन दिखता है अंधेरा
तो
कसूर
अंधेरे का तो नहीं हुआ न!
और
न रोशनी का!
किसका कसूर?
जानने के लिए
आईना भी कैसे देखूं
कि अंधेरा जो है
मेरे लिए
रोशनी के बावजूद!
उजाला ही उजाला
आ गया था ऐसा वक्त
कि भूमिगत होना पड़ा
अंधेरे को
नहीं मिली
कोई
सुरक्षित जगह
उजाले से ज्यादा।
छिप गया वह
उजाले में कुछ यूं
कि शक तक नहीं
हो सकता किसी को
कि अंधेरा छिपा है
उजाले में।
जबकि
फिलहाल
चारों ओर
उजाला ही उजाला है!
सिलसिले का चेहरा
बेजोड़ में
झलक रहा है
सिलसिले का चेहरा
जब कि
बेजोड़ खुद क्या है
सिवाय
सिलसिले की एक कड़ी के!
इस तरह होता है स्थापित
महत्व
परम्परा का।
जगह बदलनी होगी
देखना भी चाहूं
तो क्या देखूं !
कि प्रसन्नता नहीं है प्रसन्न
उदासी नहीं है उदास
और दुख भी नहीं है दुखी
क्या यही देखूं ? –
कि हरे में नहीं है हरापन
न लाल में लालपन
न हो तो न सही
कोई तो ÷ पन’ हो
जो भी जो है
वही ÷ वह’ नहीं है
बस , देखने को यही है
और कुछ नहीं है
हां, यह सही है
कि जगह बदलूं
तो देख सकूंगा
भूख का भूखपन
प्यास का प्यासपन
चीख का चीखपन
और चुप्पी का चुप्पीपन
वहीं से
देख पाऊंगा
दुख को दुखी
सुख को सुखी
उदासी को उदास
और
प्रसन्नता को प्रसन्न
और
अगर जरा सा
परे झांक लूं
उनके
तो
हरे में लबालब हरापन
लालपन भरपूर लाल में
जो भी जो है ,
वह बिल्कुल वही है
देखे एक बार
तो देखते ही रह जाओ!
जो भी हो सकता है
कहीं भी
वह सब का सब
वही है
इस जगह से नहीं
उस जगह से दिखता है
देखना चाहता हूं
तो
पहले मुझे
जगह बदलनी होगी।
और सुबह है
हम सूरज के भरोसे मारे गए
और
सूरज
घड़ी के।
जो बंद इसलिए पड़ी है
कि हम चाबी लगाना भूल गए थे
और
सुबह है
कि हो ही नहीं पा रही है।
कहो तो
कहो तो
“इन्द्रधनुष”
ख़ून-पसीने को बिना पोंछे –
दायीं ओर भूख से मरते लोगों का
मटमैले आसमान-सा विराट चेहरा
बायीं ओर लड़ाई की ललछौंही लपेट में
दमकते दस-बीस साथी
उभर के आएगा ठीक तभी
सन्नाटे की सतह भेदकर
तुम्हारा उच्चारण
कहो तो
कैसे भी हो, कहो तो
“इन्द्रधनुष!”
इस तरह हम देखेंगे
तुम्हारी वाचिक हलचलों के आगे
सात रंगों को पराजित होते हुए
एक दुर्लभ मोन्ताज को मुकम्मिल करेगी
तूफ़ान की खण्डहर पीठ
जो दिखाई दे रही है
सुदूर
जाती हुई
कह सकोगे
ऐसे में
“इन्द्रधनुष”
अज्ञात संभावनाओं की गोद में
उत्सुक गुलाबी इन्तज़ार है
तुम्हारे मौन-भंग की
उम्मीद में ठहरा हुआ
अब तो
कह भी दो
कि दर्शकों की बेसब्री
बढ़ती जा रही है
वे उठ कर चले जाएँ
इस से पहले ही
कह डालो
“इन्द्रधनुष!”
– चाहे जैसे भी हो
बाद में
अगर हो भी जाओगे
गुमसुम
तो गूंजें-प्रतिगूंजें होंगीं
ज़र्रे-ज़र्रे को
इन्द्रधनुष की
उद्घोषणा बनाती हुई.
जहाज पर पक्षी
उड़ना
बार-बार
और हर बार उसी जहाज पर लौट आना
अब नहीं होगा।
दूर ज़मीन दिखाई पड़ने लगी है
जहाज
बस, किनारा छूने ही वाला है
लेकिन
मैं फिर भी बेचैन हूँ
अब तक तो सब-कुछ तय था।
उड़ान की दिशाएँ भी।
उड़ान की नियति भी कि अपार
जलराशि के ऊपर थोड़ी देर पंख
फड़फड़ा लेना है
और फिर दुबारा लौटकर फिर वहीं आ जाना है।
अब
सब-कुछ मेरी मरज़ी पर निर्भर होगा
चाहूँ तो पहाड़ों की तरफ़ जा सकूंगा
जंगल की तरफ़ भी। या फिर से
आ सकूंगा किनारे पर खड़े जहाज की तरफ़।
भावी आज़ादी पंखों में फुरहरी
जगा रही है। ख़ुद को
बदलते पा रहा हूँ। और यह सब
ज़मीन के चलते
जो दिखाई पड़ने लगी है
पक्षी हूँ। पर
आसमान से ज़्यादा
ज़मीन से जुड़ा हूँ।
आँखों में अब ज़मीन ही ज़मीन है…।
और वे पेड़, जिन पर अगली रातों में
बसेरा करूंगा
वे पहाड़, जिन्हें पार करूंगा।
वे जंगल, जहाँ ज़िन्दगी बीतेगी
और ये सब एक निषेध है
कि पक्षी को
समुद्री-यात्रा पर जा रहे जहाज की ओर
मुँह नहीं करना चाहिए।
तो मैं उठा
अपनी ही राख में से
उठा करता था
फ़ीनिक्स
कहानी में हर बार
जब
नहीं उठा वह
इस बार
तो
मैं उठा
नई कहानी लिखने के लिए।
बन्द घड़ी
कोई भी पूछता है वक़्त
तो मैं बता नहीं पाता
घड़ी बन्द पड़ी है
उसमें अभी भी 1947 ही बजा हुआ है।
पता ही नहीं चल पा रहा है
कि अब क्या बजा होगा?
1978 या जनता सरकार?
किसी भी घड़ी बांधे व्यक्ति से पूछो
वह ऎसा ही कुछ जवाब देता है
ठीक से पता नहीं चल पाता आख़िरकार
तो मैं मज़बूर हो
‘भविष्य’ बजा लेता हूँ
क्योंकि वही
एक ऎसा समय है जो
हमेशा
बजा रह सकता है।
आश्वस्ति
भावी जंगल और उसकी भयावनी
ताकत के बारे में सोचता हुआ
सुनसान मैदान में निपट अकेला
पेड़
मुस्कुराता है-खिलखिलाता है
और उसके आसपास उमड़ आई
नन्हें-नन्हें पौधों की बाढ़
नहीं समझ पाती
कि पेड़
अकेला पेड़
अपने अकेलेपन में
किस बात पे ख़ुश है- कि हँस रहा है?
वे नहीं जान पाते
कि पेड़ जानता है
कि वे / अपने नन्हेंपन में भी
मैदान के भविष्य हैं।
यह आपकी ग़लत मांग है कवि से
यह
आपकी ग़लत मांग है
कवि से
कि वह ख़रीदकर
शराब पिए
ज़िन्दगी के बारे में
कुछ कहने से पहले
ज़िन्दगी जिए
वरना चुपचाप रहे
होंठ सिए
आख़िर कवि है वह
और कसूर आपका है
कि आप ही ने बता रखा है उसे
कि वह वहाँ पहुँच सकता है
जहाँ रवि नहीं पहुँच सकता।
अस्पताल-1
शैया
हो भले ही रोग शैया
लेकिन
उस पर
रोगी नहीं
बल्कि लेटा है
एक योद्धा
भविष्य की रणनीति सोचता हुआ।
अस्पताल-2
बीमारी
‘स्टेज’ बन गई है
और ऎन बीच में है
अभिनय
कर रहा है इलाज
इस तरह अहम भूमिका है
उसकी
इस नाटक में
‘स्पॉट’ ठीक उसके ऊपर
बाकी स्टेज
अंधेरे में
जहाँ
अगले सीन का सेट
तैयार हो रहा है
दर्शक
सिर्फ़ रोशनी
देख पा रहे हैं
जबकि ‘बैकस्टेज’ के सारे कार्यकर्ता
अंधेरे में
जुटे हैं
अब अगला सीन शुरू होगा
और
वहाँ रोशनी पड़ेगी
तब
कहीं जाकर पता चलेगा
कि अगला सीन
क्लाइमेक्स का
कैसा होगा!
ऎसा क्यों होता है?-1
ऎसा क्यों होता है-
कि कवियों को हमेशा
मुखौटों की दरकार
रहती है
जबकि
उनका अपना चेहरा
किसी
मुखौटे से कम नहीं होता!
ऎसा क्यों होता है?-2
ऎसा क्यों होता है-
कि कवि
और उसकी कविता
आपस में
मिल तक नहीं पाते
सदियाँ बीत जाती हैं
कविता आ रही होती है
तो कवि जा चुका होता है
और कवि आ रहा होता है
तो कविता जा चुकी होती है
और
कभी किसी
ऎतिहासिक संयोग से
अगर
वे मिल जाते हैं
तो
हिन्दी साहित्य को
पता तक
नहीं चल पाता!
ऎसा क्यों होता है?-3
ऎसा क्यों होता है-
कि कविता की बात
कवि तक नहीं सुनता
वह
बिचारी कहती रहती है-
मैं फ़िलहाल
हाज़िर नहीं हूँ
मैं मेडिकल-लीव पर हूँ
और कवि
गोष्ठयों-सभाओं में कहता रहता है
-यह रही मेरी ताज़ा कविता
कि मैंने आज ही लिखी है
ऎसा क्यों होता है-
कि पाठक और आलोचक
कवि की बात सुनते हैं
कविता की नहीं
ऎसा क्यों होता है?-4
ऎसा क्यों होता है-
कि कवि तो
परदे के खिलाफ़
होता है
लेकिन
उसकी कविता
बिना घूँघट के
बाहर
क़दम तक नहीं रखती
ऎसा क्यों होता है?-5
ऎसा क्यों होता है-
कि कवि
अक्सर
फैंसी-ड्रेस प्रतियोगिता में
भाग लेने को
लालायित रहता है
यह
जानते हुए भी
कि अगर वह जीतेगा
तो
उसकी कविता
जार-जार रोएगी
ऎसा क्यों होता है?-6
ऎसा क्यों होता है-
कि होने के शोर में
कुछ भी नहीं हो पाता
और
फिर भी कवि को यह भ्रम
होता रहता है
कि वह
कविता लिख रहा है
और इसलिए
वह
कवि बना हुआ है
ऎसा क्यों होता है?-7
ऎसा क्यों होता है-
कि कविता लिखते वक़्त
जो कवि
अपने ही शब्दों में
तीसमार खाँ
दिखता है
वही कवि
बाद में
उसी कविता के
शब्दों के बीच
मरी मक्खी-सा
पाया जाता है
ऎसा क्यों होता है?-8
ऎसा क्यों होता है-
कि पाठक
जब कविता पढ़ता है
तो
कवि के दर्शनों की
इच्छा करता है
और उससे मिलना चाहता है
लेकिन
जब कवि से मिल लेता है
तो
कवि के साथ-साथ
कविता को भी
गालियाँ देता हुआ लौटता है
ऎसा क्यों होता है?-9
ऎसा क्यों होता है-
कि ठीक जिस वक़्त
फ़ेक एनकाउण्टर में
कविता का सफ़ाया
किया जाता है
ठीक उसी वक़्त
कवि को
पुरस्कार दिया जाता है!