मेरा तकिया छीन लिया गया
न मिले किसी रोज इस्तरी की गई धुली कमीज
देह जैसे रूठने लगती है ना-नुकुर करती
दिन जैसे बीतता है असहज या लगभग मनहूस
मानो हर आंख घूरती लगती जबरन ओढ़ी यह पुरानी कमीज
हालांकि तीन दिन पुरानी बगैर धुली कमीज पर इस्तरी फेर
हम कुछ तो मनहूसियत कम कर ही लेते हैं अक्सर
फक्कड़ी यदि मौलिकता की हद को छू सके
भूल भी सकते हैं किसी पोशाक का अहसास तक
नहाते वक्त तो बिना कपड़ों के लगती है हमें अपनी ही पुरानी देह अलौकिक
कि कितना कम होता है इस तरह अपनी देह को निहारना
आसान कहां रह गया लेकिन झटक देना फालतू चीजों का अहसास
दिन उगा हो उसे लौटना है शाम की तरफ और
शाम को रात में तब्दील होने से रोकना हमारी पहुंच से बाहर
रात आएगी तो यह तय है घेरेगी नींद कि
वह एक थके मानुष की अकेली पूंजी है
नींद होती है कहीं आंखों में, आंख चेहरे पर और
चेहरा सिर का हिस्सा है हम बखूबी जानते हैं
नींद किसी भी तरफ से आ सकती है
सृष्टि या उससे बाहर अदृश्य लोक से कि
जैसा सपने में कई दफा अनुभव होता है हमें
नींद फिर भी आदत के मुआफिक ही आती है
भली से भली हो स्वागत की मुद्रा
कितना भी सजा-संवार के रखो कमरा या कि बिछौना प्रसन्न
एक अदद तकिया लाजिमी है नींद के मन-मुआफिक
कितना भी प्राचीन, तुड़ा-मुड़ा किसी भी हद तक
मैली-कुचैली गंध में नहाया कि क्यूंकर दिक्कत पेश नहीं आती
मां के बाद छूटी सबसे सुरीली लोरी उसी के पास है बची
कितनी भी उमर हो कि अब तक रवानगी के बाजू
जितनी भी बची हो हिस्से में घंटे-आध घण्टे की नींद सही
यकीनन रूठी रहती है बगैर उसके
किसकी है दुष्टता इस कदर कि मेरा तकिया छीन लिया गया!
झरा दूध अभी
कोठा है प्राचीन काठ के संदूक में जीवित
मानो पेड़ की देह में हरी रस भरी साँस लेता
उससे टिकाकर पीठ पर बैठी एक लड़की
पुरानी साड़ी की तहों में डूबती कि
अबंधी साड़ी में ख़ुद को दादी की जगह निहारती
कनस्तर में रखे गर्म आटे की सुंगध
कच्चे गेहूँ की बालियों को चूमता किसान
एक कसे हुए जिस्म में हँसता अधेड़
कि पढ़ा जाता उसने तूतनखानम के कद्दावर अर्दली का क़िस्सा
एक डेढ़ेक साल का बच्चा मचलता पेड़ से लटकते झूले पर
कि तगाड़ी उठाती माँ के स्तनों से झरा दूध अभी
थोड़े नजीक में एक और तैयार होता लड़का
ताँगे में घोड़े की रास थामे पुकारता अब्बू को
कितनी तहों के नीचे अंधेरों में डूबी रोशनी
रोज़ की टूट-फूट में बचा कितना कुछ
ध्वंस के मुहाने पर कमाल कितना
एक परिंदा फूल-सी हँसी लिए डोल रहा
उस आदमी पर वार करो
सबसे बीच उपस्थित
दृश्य से बाहर
सबसे खतरनाक
मुजरिम है वह
इस सदी का
समूचे देश को
अपने आरामगाह मे तब्दील करता
हमारे बुजुर्गवारों की
शख्सियत से जोंक की तरह
चिपका है वह
पालतू चीते की भाँति अलसाता
करता है रात गए
अपने नाखूनों को
मृत्यु की अन्तिम सीमा तक तेज
रोज सुबह हमारे घर
आतंक के बीच
ढूँढते हैं दुश्मन के खिलाफ सबूत
अखबार अपनी सुर्खियों में
किसी आदमखोर का
जिक्र करते
हो जाते हैं खामोश
पुलिस तैनात है जंगलों में
और वह रोज रोज
अपनी शक्ल बदलता
निश्चित है अपने आक्रमण में
बुजुर्गवार चुप हैं
और मुर्दनी उनके चेहरो का
अविभाज्य अंग
बनती जा रही है लगातार
सबके बीच उपस्थित
दृश्य से बाहर
सबसे खतरनाक
मुजरिम है वह
इस सदी का
उस आदमी पर वार करो
आज माँ घबराई हुई है
फिजाओं में ख़ुशबू का मेला है
रंगीनियां बिख़री हुई हैं
बाज़ार सज-धज के खड़े हैं
हवाओं में नग़मे रोशन
बच्चों के लिए आज तो
दिन है मौज़-मस्ती का
माँ कहती है लेकिन
घर से बाहर न निकलना
आज त्यौहार का दिन है
आज माँ घबराई हुई है
अकेला
तारीख़ें भी तीस और आदमी अकेला
हफ़्ते भी चार और आदमी अकेला
ऋतुएँ भी छै और आदमी अकेला
महीने भी बारह और आदमी अकेला
वर्ष भी अनेक और आदमी अकेला
काम भी बहुत से और आदमी अकेला!
हैसियत
उसने तीन चार प्यारे-प्यारे नामों से
मौत को पुकारा
मगर मौत नहीं आई
उसके बाद मौत ने ज़िन्दगी को
तीन चार प्यारे-प्यारे नामों से पुकारा
बस, इतने में वहाँ हज़ारो लाशें बिछ चुकीं थीं।
विचारधारा
विचारधारा की तरह
कहीं-कहीं बची है चोटियों पर बर्फ़
पर ठंड की तानाशाही
विचारधारा के बिना भी कायम है।
मैंने हारने के लिए
मैंने हारने के लिए
यह लड़ाई शुरू नहीं की थी
इन अभाव के दिनों में भी
जितना खुश हुआ
उतना पहले कभी नहीं
कि इधर कर्ज़ में जीने की आदत
मैंने कई रास्ते किए पार पैदल
धीमे-धीमे इतने कि
न सुनाई दे मुझे
मेरे ही क़दमों की आहट
मधुर-मधुर बज रहा है
फ़ाक़ामस्ती का संगीत
और स्वर्ग से अलहदा नहीं है यह सुख कि
बच्चे मेरे सो रहे हैं गहरी नींद में
पराजय का अर्थ
पराजय का अर्थ विजय है
यह कौन जानता है मुझ से अधिक
जो सबसे बुरा
सबसे अधिक सुन्दर है
इसे कौन जान सकता है सिवाय मेरे
जो डूबते हैं, जानते हैं वे ही
उस ज़मीन का पता
जिसमें छुपा है आनन्द जीवन का
मैं तो हूँ पराजय का मित्र
लोग इसे अनुभव कहते हैं बस
जीवन के कुछ ऎसे शेयर थे
जीवन के कुछ ऎसे शेयर थे
बाज़ार में
जो घाटे के थे लेकिन
ख़रीदे मैंने
लाभ के लिए नहीं दौड़ा मैं
मैं कंगाल हुआ और खुश हूँ
मेरे शेयर सबसे कीमती थे
मैं दूंगा हिसाब
मैं दूंगा हिसाब
अपनी मूर्खता, दर्प, अहंकार और लोभ का
मेरे भीतर था कोई संदेह
जिसपे मैं करता रहा सर्वाधिक विश्वास
मैं मरना नहीं चाहता था उसके हाथ
जबकि जीना तुम्हारे साथ कितना कठिन
यह एक सीधी-सरल बात है कि
तुम नहीं चाहते मुझे
मेरे लिए यह लज्जा की बात है
जबकि तुम मेरे इतने अभिन्न
मैं नि:शब्द हूँ एक वृक्ष की तरह
इसका मतलब यह नहीं कि
मैं नहीं हो सकता तुम्हारी तरह
होना तुम्हारी तरह एक लज्जा की बात है
सच अप्रिय होता है
सच अप्रिय होता है
यह कोई नहीं जान पाएगा कि
मैं मरूंगा इसी के साथ
दोस्त नहीं समझ पाएंगे
कि मैं उनके हिस्से की लड़ाई
इसी हथियार से लड़ रहा हूँ
जब मैं लड़ाई के मैदान में हूँ
वे सच की झूठी लड़ाइयों में मुब्तला हैं
मैं जानता था
मैं जानता था
कितनी लफ़्फ़ाजी कर सकता हूँ मैं
मैंने नहीं चुना वह रास्ता
मीडिया प्रमुख होने के बाद
मैं नहीं था मिडिया में और
उन्होंने तस्लीम कर दिया इसे मेरी कमज़ोरी
वे नहीं जानते थे कि
एक लेखक के लिए कितनी बड़ी हो सकती है
लफ़्फ़ाजी की सज़ा
तुम करो मेरा तिरस्कार
तुम करो मेरा तिरस्कार
मुझे कोई दुख नहीं
जिन रास्तों से पहुँचा हूँ यहाँ
अपनी मूर्खताओं के साथ
प्यारी हैं मुझे
मैं कपड़ा बुनता जुलाहा सही
कैसे भूल जाऊँ कपास का मूल्य
मेरी तरलता मूर्खताओं से बनी है
मैं नहीं हो सका वो
मैं नहीं हो सका वो
जो हो जाने वाली ‘यह जगह है’
मुझे संतोष है
कि मैं उनमें से नहीं हूँ
लड़ रहा हूँ लेकिन
लड़ रहा हूँ लेकिन
पूरी तरह लड़ने की स्थिति में नहीं हूँ
जी रहा हूँ लेकिन
पूरी तरह जीने की स्थिति में नहीं हूँ
मर रहा हूँ लेकिन
पूरी तरह मरने की स्थिति में नहीं हूँ
माँ ज़िन्दा है और अब चल नहीं पा रही है
और परिवार…
माफ़ करें मेरे पास कोई और रास्ता नहीं
थोड़ा और इंतज़ार करें
मेरे पास यह दिन है
मेरे पास यह दिन है इत्यादि की तरह
मेरे पास यह रोटी है इत्यादि की तरह
मेरे पास यह दोस्त है इत्यादि की तरह
मेरे पास यह बाज़ार है इत्यादि की तरह
मेरे पास यह पूंजी है इत्यादि की तरह
मेरे पास यह जीवन है इत्यादि की तरह
इतना अधिक जीने-मरने के बाद
मैं हूँ इत्यादि की तरह इस दुनिया में
ओबामा के रंग में यह कौन है.
मैं पढ़ा-लिखा होने के गर्व से प्रदूषित हूँ
मैं महानगर के जीवन का आदी,
एक ऐसी वस्तु में तब्दील हो गया हूँ कि भूल-बैठा
अच्छाई के सबक
मेरा ईमान नहीं चीन्ह पाता उन गुणों को और व्यवहार को,
जो आदिवासियों की जीवन-पद्धति में शुमार मौलिक और प्राकृतिक अमरता है
और एक उम्दा जीवन के लिए, बेहतर सेहत के वास्ते विकल्पहीन
मैं कविता में बाज़ार लिखकर विरोध करता हूँ
मैं करता हूँ अमरीका का विरोध और मान बैठता हूँ
कि लाल झंडा अब भी शक्ति का अक्षय स्रोत है
वह था और होगा भी किंतु जहां उसे चाहिए होना, क्या वह है …
मैं उसे देखना चाहता हूँ आदिवासी की लाल भाजी, कुलथी और चौलाई में
मैं उसे पेजा में देखना चाहता हूँ और सहजन के पेड पर
मैं एक आदिवासी स्त्री की टिकुली में उसके रंग को देखना चाहता हूँ
और उसके रक्तकणों में
लेकिन वह टंगा है
शहर के डोमिना पिज्जा की दुकान के अँधेरे बाहरी कोने में
वह संसद में होता तो कितना अच्छा था
बंगाल और केरल में वह कितना अनुपस्थित है और बेरंग अब
वह किसानों से दूर किन पहाड़ियों में बारूद जुटा रहा है
वह कितना टाटा में और कितना मर्डोक में
और आम आदमी में कितना
धर्म में कितना
कितना जाति व्यवस्था में
स्त्रियों में उसे होना चाहिए था और छात्रों में भी
क़िताबों में वह जो था हर जगह, अब कितना और किस रूप में
विचारों में उसका साम्राज्य कितना पुख़्ता
उसे कुंदरू में होना चाहिए था और डोमा में
बाटी में और चोखा में
एंटीआक्सीडेंट की तरह उसे टमाटर में होना चाहिए
उसे रेशेदार खाद्य पदार्थ की तरह
पेट से अधिक सोच में होना चाहिए
अब उसे सूक्ष्म पोषक आहार की तरह दिमाग में बसना चाहए
हालाँकि यह एक फैंटेसी अब
और विकारों को ख़त्म करने का ख़्वाब कि मुश्किल बहोत
लेकिन उसे शामिल होना चाहिए कोमल बाँस की सब्ज़ी की तरह
कि वह हाशिए पर बोलता रहे और ज़रूरत की ऐसी भाषा में
कि कोई दूसरा सोच न सके उन शब्दों को
जिसमें लाल झंडे के अर्थ विन्यस्त हैं
रोज़मर्रा के जीवन में शामिल रोटी, दाल और पानी की तरह
उसकी व्याप्ति के बिना, उस गहराई की कल्पना कठिन
जो लाल विचार की आत्मा है
महानगर की अंधी दिशाओं में,
एक अंतिम और साझे विकल्प के लिए,
मैं अब भी बस सोचता हूँ
मेरी इस सोच में पार्टी की सोच कहाँ…
कहाँ बुद्धिजीवियों की सहभागिता और कामरेडों की यथार्थ शिरकत…
दिल से सोचने के परिणाम में दिमाग को भूल बैठे सब
और डूब गए उन महानगरों में जिनपर कब्ज़ा अमरीका का
मैं अब भी लाल भाजी और कुंदरू के समर्थन में ठहरा हुआ
कि वह संगठन के लिए जरूरी
और पेजा और बाटी और हाशिए का जीवन,
जहाँ से अब भी हो सकती है शुरूआत…
यह मैं बोल रहा हूँ जिस पर विश्वास करना कठिन कि मैं बोलता हूँ
तो अपनी छूटी और बिकी ज़मीन पर खडा होकर
और वह तमाम उन लोगों की
जो न्याय के लिए अपने तरीके से लड़ रहे हैं
और उनके पास नहीं कोई मेधा और महाश्वेता …
उनके पास है उनका भरोसा, कर्म और लड़ाई
मैं वहीं पहुँचकर, एक लाल झंडे को उठाकर कहना चाहता हूँ कि
पार्टनर, मैं भटकाव के बावजूद तुम्हारे साथ हूँ
कि मैं महानगर में किंतु आत्मा के साथ वहाँ
जहाँ अब भी सुगंध है हाशिए के समाज की, संघर्ष की
मैं कुछ नहीं, संघर्ष का एक कण मात्र
विचार जहाँ अपने लाल होने की प्रक्रिया में हैं
और उनकी दिशा वहाँ है
जो महानगर का वह अँधेरा कोना नहीं
जहाँ लाल झंडा डोमिनो के पास जबरन टाँग दिया गया है
ओबामा के रंग में यह कौन है…
मैं उसके ख़िलाफ़ हूँ …
घरेलू मक्खी
जो न होता मेरे पास पिता का मेग्नीफाइंस ग्लास
कैसे देख पाता तुम्हारा सौंदर्य
और इतना पुलकित होता
कितने साफ-सुथरे और सुंदर तुम्हारे पंख
इन पर कितने आकर्षक पैटर्न बने हैं
ईश्वर की क्या अद्भुत रचना हैं तुम्हारे संयुक्त नेत्र
तुम्हारी संरचना में एक कलात्मक ज्यामिति है
अनूठी गति और लय में डूबी है तुम्हारी देह
कि उड़ती हो तो जैसे चमत्कार कोई
हवा में परिक्रमा करते हुए, नृत्य कितना मनोरम
इतनी अधिक चपलता के बावजूद
क्या खूब सचेत दृष्टि
कि मालूम तुम्हें उतरने की सटीक प्रविधियां
एक भी लैंडिग दुर्घटना इतिहास में दर्ज नहीं
तुम्हारी भिन-भिन से नफरत करने वाले हम
संचालित हैं अपने अज्ञान और अंधविश्वास से
हमारा सौंदर्यबोध भी इतना प्रदूषित
कि नहीं मान पाते उसके होने को
प्रकृति का एक खूबसूरत उपहार
देखो वह उड़ी और ये बैठ गई
अब उसका नर्मगुदाज स्पर्श है जो जन्म के पहले दिन के
बेटी के स्पर्श की तरह जिंदा है
00
तानागिरू
और दिनों से एकदम अलग है आज का दिन यहाँ
सुबह-सुबह निकलेगा पहली बार आज
उठाए तीर-कमान अपने बलिष्ठ कन्धे पर
और प्रतीक्षा में होंगे सब बच्चे, जवान, बूढ़े
झूम उठेगा समूचा गाँव
मार के लौटेगा जब नुकीले दाँतों वाला खतरनाक सूअर
उसके जीवन का अद्भुत समय है
की होगा आरूढ़ शिकार के सीने पर
निकलेगा रक्त, जमाएगा ख़ून के थक्के
और खाएगा आनन्द-विभोर हो पहले पहल
(अपने शिकार को गर्व से खाने का पहला दिन है आज)
बीस दिनों तक रोज़ जाएगा जंगलों में अकेला
और मार लाएगा एक से एक खतरनाक सूअर वह
प्रतीक्षा में ओंगियों का गाँव
रोज़ देखेगा उसका भरपूर जवान होना
और संस्कारों से एकदम अलग है ‘तानागिरू’
डुगांगक्रीक की सबसे बड़ी ख़बर है आज
की अभी अभी एक लड़का हुआ है जवान
और इस तरह एक और रक्षक ओंगियों का
- तानागिरू : अन्दमान की दुर्लभ जनजाति ओंगी का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार समारोह है तानागिरू ! यह ओंगी के जवान सिद्ध होने पर आयोजित किया जाता है !
मनुष्य जल
हरी मखमली चादर पे उछरी
वाह! ये कसीदाकारी रंगों की
मेरी स्मृति भी बरसों बरस बाद इतनी हरी
और पांखियों की ये शहद आवाज़ें
इतना अधिक मधुर स्वर इनमें
कि जो इधर ‘जय श्रीराम’ के उच्चार में गायब
इस हरी दुनिया के ऐन बीच
एक ठूँठ-सी देहवाले पेड़ पर यह कौन ?
अरे ! यह तो वही, एकदम वही हाँ ! बाज !!
स्वाभिमान में उठी इतनी सुन्दर गर्दन
किसी और की भला कैसे मुमकिन
उसकी चोंच के भीतर आगफूल जीभ
आँखों में सैनिक चौकन्नापन
इतिहास के नायक और फ़िल्मी हीरो के
हाथ पर नहीं बैठा वह
न ही उसके पंजे में दबा कोई जन्तु
ठूँठ की निशब्द जगह में जो उदासी फैली
उसे भरता हुआ वह समागन*
गुम रहा अपनी ग्रीवा इत-उत
मैं कोई शिकारी नहीं
न मेरे हाथ में कोई जाल या कि बन्दूक
फिर भी कैसी थी वह आशंका आँखों में
एक अजब-सी बेचैनी
कि पंखों के फडफड़ाने की ध्वनि के साथ ही
देखा मैंने उसे आसमान चीरते हुए
मेरे पाँव एकाएक उस ठूँठ की तरफ उठे
जहाँ वह था, मुझे भी चाहिए होना
कि सूख चुका बहुत अधिक जहाँ
पक्षी-जल के अलावा चाहिए होना मनुष्य-जल कुछ
नदी
लाख कोशिश की
कि चल जाए
दवाइयों का जादू
सेवा से हो जाएं ठीक
नहीं हुआ चमत्कार लेकिन
मां की आंखें
उस गंगाजली पर थीं
जिसे भर लाई थीं वे
अपनी पिछली यात्रा में
धर्म में रहा हो उनका विश्वास
ऐसा देखा नहीं
वे बचे-खुचे दिनों में
रखे रहीं उस कुदाल को
जिससे तोड़ा उन्होंने कोयला
पच्चीस बरस तक काली अंधेरी खानों में
मां जल से उगी हैं
नदी को वे मां समझती थीं
00
घोड़ानक्कास
घोड़ानक्कास से ज्यादा उदास है कोई जगह इस शहर में यहाँ
घोड़े इतने कम दिखने में कि मरे बहुत
और इस तरह घोड़ानक्कास मरा
जाने किस खटके में तहमदबाज भोपाली किस-किसकी तलाश में गायब
मौजूद इक्का-दुक्का तो कुछ ऐसे बेंतबाजों की तरह डोलते-घिघियाते
ढूँढते अपने पुराने कद्रदान
रिझाते याद दिलाते तांगे का नव्वाबी मजा
मुई राजधानी बाकायदा बड़ों के काबिल हुई
घोड़ानक्कास नये खटराग में जैसे भूल बैठा कव्वाली की नशीली रातें
भूला नमक में बोलती चाय का लुत्फ
जैसे बीत गयी घोड़े के टापों की पकीली लय करीब
फर्राटे भरते ऑटो-मिनी बसों के बीच
गयी वो मटरगश्तियां, वो फब्तियां गयीं
उठी पीतल की नक्काशीवाली वो दुकानें
पहियों को रंग रोशन करते वो लोग उठे
चली वो वार्निश की गंध चली और वो
हार्स पावर की इबारत कि जिसपे नाज हमें
नाल उतरी सी खड़े हैं घोड़े
ऊँघते बचे-खुचे से तहमदबाज
ले गया कैफ का मुहल्ला गया और
वे गुलियादाई की गली भी गयी
आखिरी सांसें हैं ये कल्चर की
अब वो अखलाक की दीवानगी कहाँ
नजर लग गई इसे जमाने की
संभलकर चलना यहाँ सड़कों पर
ठहरकर हँसना यहाँ सड़कों पर
काली छायाएँ डोलती हैं यहाँ, नया भोपाल है यह भाई मियां!!
पोस्टकार्ड का डर
तार आने का समय कब का बीत चुका
हिफाज़त की ख़बर भी अब तो फ़ोन पर
फिर भी कुछ इलाकों में
वो भी नहीं
दूर-दराज़ से काम की तलाश में निकले लोग
इस या उस देश में
इतने ग़रीब कि दो जून की रोटी मुहाल
एक-दो नहीं हज़ारों-हज़ार
पीछे छोड़ आए अशक्त कुटुम्ब
सीने उनके इस्पात के नहीं
कर नहीं पाते जज़्ब दुखों में ख़ुद को
उनकी आँखों से झरती रहती है नीली लकीर…
बहता है जिनसे नमक भरा दुख
भय और भक्तिभाव में खड़े हैं
लडख़ड़ाते वे
डाकिया पहुँचता नहीं
उनके दुर्गम ठिकानों पर
वे एक अदद चिट्ठी के लिए चढ़ते हैं पहाड़ अमूमन रोज़
वे कोने से फटे हुए पोस्टकार्ड से डरते हैं
वे काँपते हुए चिट्ठियाँ थामते हैं
कैलेण्डर की नमी
पर्व हो, त्यौहार या फिर
कैलेण्डर में फडफ़ड़ाता
कोई धार्मिक दिन
चली आती हैं शुभकामनाएँ
राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री
यहाँ तक नेता प्रतिपक्ष की
अख़बार, रेडियो और टी० वी० पर अचूक
कोई अफ़सोस नहीं आता कभी
जबकि
इतनी काली तारीख़ों से भरा है
नमी में फडफ़ड़ाता हर पन्ना
बच गए कि
बच गए कि तुम्हारी क़िस्मत इतनी अच्छी
लुढ़कती चट्टान से ज़रा-सी दूरी थी
बच गए कि एकाएक बारिश में
तुमने खुले में अपने को बेपरवाह छोड़ दिया था
और तुम्हारी पीठ देखती रही पेड़ पर बिजली का टूटना
बच गए कि एक बच्चा तुम्हारे साथ था और घर नहीं लौटना चाहता था
बच गए कि तुम्हारी घड़ी बुरे समय के विरुद्ध दौड़ पड़ी थी बेतहाशा
बच गए कि तुम इस बात भी आदतन बीड़ी सुलगाने के लिए रुक गए थे बीच रास्ते
बच गए कि तुम इसी समय काम के बाद कारख़ाने से निकल रहे थे
बच गए कि तुमने खोल रखा था अपना रेडियो कि अब बिजली गुल हुई
बच गए तुम कि तुम्हें आदत है नींद में चलने की
इस बार बच गए तुम इसका यह मतलब नहीं
कि तुम सचमुच बच गए।