दर्पण
दर्पण में कई पशु
अपने को पहचानते नहीं।
मानव पहचानते तो हैं
पर प्रत्येक असन्तुष्ट है
अपने रूप से।
दर्पण से पहले का क्षेत्र
भाव और भावना का लोक है
त्रिशंकु का।
रूप की विचित्रता से लज्जा निकलती है।
नदी का कांपता तल
और तलवार भी दर्पण हैं।
अस्तित्व मिटाकर ही तो
अपने को जाना जाता है।
मृत्युशय्या
मृत्यु एक रहस्य है
जिसे मैं व्यर्थ नाम से बांधता हूं।
जीवन एक बांध है
और मृत्युशय्या पर बांध की दरारें
दीखती हैं,
बीते दिनों का आभास,
कुछ क्षण।
एक आशा उठती है
कदाचित स्मृति का सीमेंट
बांध की दरारों को जोड लेगा।
पुष्पों से छिपे शव को देखकर
विचार उठता है
हर क्षण
रंगे कागद पर नल की बूंदों की तरह
भीतर चित्र मिटाता है।
शब्द व्यर्थ हैं
जब हम रो सकते हैं,
पर मां की गोद का
चैन कहां।
केवल बीते दिन की सुगन्ध
बची है।
आज और कल के बीच
हर छाया में मैं शकुन ढूँढता हूं।
समय का क्रम ऐसा था,
जैसे बाघ की तीव्र छलांग
या मृग की उन्मत्त दौड,
और अब इसके पंख
तितली की तरह थरथराते हैं।
मैं पल के आवरण में ही खो गया।
फिर भी मैंने नीले आकाश को देखा
और एक, उंचे नग्न पर्वत को
जिसके आगे गहरी दरार थी,
और दूसरी ओर हरित पथ
पीपल की कतारों से आंचलित
वक्रा नदी की ओर जाता हुआ।
इस पथ पर मैं दोनों दिशाओं
की ओर चला हूं।
यह पल मुझे दूर ले जाता हैः
मेरे पिता मेरी अवस्था के हैं।
अपने बालपन से मैं
अपने बच्चों को देखता हूं।
रास्ते ऊभरते हैं
और फिर मिट जाते हैं,
प्रतिछाया में ही हम सिमट जाते हैं,
भूख और तृष्णा से पीडित
हम छटपटातें हैं।
अपरिमित को एक में पाया
और एक को खण्डित देखा।
भयभीत,
मैंने धरती को कदमों से मापा।
विचित्रता कुछ दूर हुई।
हर छाया में मैं शकुन ढूँढता हूं।
समय का क्रम ऐसा था,
जैसे बाघ की तीव्र छलांग
या मृग की उन्मत्त दौड,
और अब इसके पंख
तितली की तरह थरथराते हैं।
मैं पल के आवरण में ही खो गया।
फिर भी मैंने नीले आकाश को देखा
और एक, उंचे नग्न पर्वत को
जिसके आगे गहरी दरार थी,
और दूसरी ओर हरित पथ
पीपल की कतारों से आंचलित
वक्रा नदी की ओर जाता हुआ।
इस पथ पर मैं दोनों दिशाओं
की ओर चला हूं।
यह पल मुझे दूर ले जाता हैः
मेरे पिता मेरी अवस्था के हैं।
अपने बालपन से मैं
अपने बच्चों को देखता हूं।
रास्ते ऊभरते हैं
और फिर मिट जाते हैं,
प्रतिछाया में ही हम सिमट जाते हैं,
भूख और तृष्णा से पीडित
हम छटपटातें हैं।
अपरिमित को एक में पाया
और एक को खण्डित देखा।
भयभीत,
मैंने धरती को कदमों से मापा।
विचित्रता कुछ दूर हुई।
प्रहेलिकाएँ
मैं, जो यह गीत गा रहा हूँ,
कल अपने शब्द भी पहचान न पाऊँगा
इस स्वर का जादू मिट गया होगा
निस्तब्ध अपने को टटोलते हुए
बिन भूत, भविष्य या कबः
यह योगी कहते हैं। मेरा अपना विश्वास है
कि मैं स्वर्ग या नरक का अधिकारी नहीं।
भविष्यवाणी न होः हर एक की कहानी
घुल जाती है अंगराग की भांति।
फलक पर केवल एक अक्षर है
और कुछ निमेष बंधे हुए
जिनसे अतीत की कसक होती है।
वैभव और प्रताप की अन्धी कौंध के आगे
मृत्यु का अनुभव कैसे होगा?
क्या स्फोटित विस्मृति पी पाऊँगा मैं
ताकि अनन्तकाल तक रहूँ; पर कभी न रहा हूं।
मृतक नायक
१
मैं वह नही जो दीखता हूं
मैं स्वयं ही भूत हूं।
जब मैं निर्जीव हुआ
मेरी आत्मा अस्वीकृत हुई
स्वर्ग और नरक को
लडखडाई वापिस तब
मेरे अस्थिपिञ्जर में।
२
हम सुन्दर हैं कि हम मर जाते हैं
जब समय की उडान रुकी
एक क्षण सहस्र वर्ष हुआ
मैं धूल था, एक विचार था
मेरी चाह थी कि शरीर होऊं
क्योंकि मैंने स्पर्श नही किया
भरपूर नहीं
और जब मेरा जमा हुआ शरीर पिघला
प्राणों की सरसराहट से,
वह आनन्द था।
३
शब्द निःस्तब्धता से निकला
स्वतन्त्रता कारागार हो
पर नीरवता
नीरवता को नहीं भाती
हृदय के कांपने को नहीं भाती
पर सौन्दर्य कौन मांगता है
अतः मुझे गीत गाने दो
मुझे घण्टा बजाने दो।
४
मैं हर दिन मृत्यु को
प्रातराश के दूध की तरह पीता हूं
इस प्रभात को जब मैं जागा
श्वेत धूप के धब्बे मेरे कमरे में थे
मैंने रात के वस्त्र पलंग के आस-पास बिखरा दिये
चौकी पर थाल
सुरुचिपूर्ण संजोए थे
कमरे का उपस्कार
ठीक स्थान पर था
वैसे ही जैसे घर जो रुका हुआ है।
मैं प्रातराश खा न पाया।
५
पक्षी उड गये जब में पहुंचा
मैंने दाना हाथों में बटोरा
मेरा पास चाकू न था
पर पक्षी न आये
मेरे हाथ थक गये और गिरते दानों से
पौधे निकले
और श्वेत फूल
कमल भरपूर।
६
मुझे पीने दो
मुझे और पीने दो
जैसे मैं झुका चीत्कार हुआ
नेत्र उठे एक राक्षस देखा
अर्धनर, अर्धनारी
अपने ही वक्ष को पुचकारता हुआ
मैंने देखा कि नदी का पानी
राक्षस की हचकती छाती के साथ
उठ बैठ रहा,
मेरे हाथ का ताल भिन्न है
मैं केवल झाग उठा पाता हूं।
मुझे पीने दो
तो क्या यदि मांस पिघला है
और मेरे हाथों की अस्थियां
पकड नहीं पातीं
जो मैं देखता हूं
अन्धेरा है
चिकित्सा प्रयोगशाला में
मानचित्र जैसा हूं,
पर खोखला तो भरने दो।
७
अन्तिम वेनपक्षी
अग्नि की ओर उडा
जलने के लिये
राख में ढलने के लिये
उठने कि लिये
युवा और निष्पाप।
अग्नि के समीप पहुंचा ही था
आंखें बन्द अन्तिम छलांग सोचता
कि किसी ने कठोरता से खींच लिया —
पुनर्जन्म नहीं था यह —
एक व्यक्ति ने गला दबोचा था
दूसरे हाथ में छुरी थी उसके।
झट दो प्रहार से
उसने पंख काट दिये।
अन्तिम वेनपक्षी
अभी वहीं पडा है
अचल, भावशून्य
निर्जीव
पर मृत भी नहीं
प्राण आंखों में हैं
जो धीरे हिल रही हैं
आकाश की परीक्षा कर रही हैं
निकट आग
कब की बुझ गई।
८
मैं पूरी रात सोता हूं
पर आराम नहीं
पूरे दिन मेरा मन
उदासीन है
और मेरा शरीर
अपरिचित चाह से
अन्धेरे का आकांक्षी है।
कल रात मैंने ठानी
रहस्य को जानने की
घडी का घण्टी लगाई
दो बजे की
जब मैं उठा उस पहर
मैंने देखे पिशाच
मंडराते हुए
रक्त पी रहे।
मेरे हाथ अशक्त थे
सिर में अन्दर
खटखटाहट थी
मैं मूर्च्छित हुआ।
आज मैं उनींदा हूं
अंग पीडित हैं
चाह से
कि अन्धेरा उतर आए।
९ कीडे
मैं जंगले पे खडा
अस्थियों को शरद् धूप में गरमा रहा
मेरी पलकों पर सूर्य किरणें
लाखों बारीक गोलों में बिखरीं
और फिर चींटियां चारों ओर रेंगने लगीं।
वह बहती आईं
मृत्यु की गन्ध जैसी
और कामनाओं को खा गईं।
जैसे मैं कार्यालय में बैठा प्रतीक्षित
वेश्या समान, याद कर रहा,
कितने श्मशान घाट मैंने देखे हैं,
कि वह आई।
उसके आग्रह पर
अपनी समझ के विपरीत
मैंने उसे बाहों में समेटा।
जब होंठ होंठ से मिले
वह पृथिवी पर ढेर हुई —
मेरी सांस ने
जान ले ली —
मैं पुनः प्रेम नहीं करूंगा।
हिमालय प्रयाण
याद हैं वह अंगारे
आग बुझने से बचती हुई
वात उछलती हुई जैसे उपेक्षित भूत
तम्बू के हाथी कान थपथपाते हुए
भूले मानचित्र
जल का सरल नाद
तुम और मैं
हमारी घनिष्ठता?
क्या आवारा बेचारा चले
चीड पेडों के बीच से
हमारे पुराने भाई मूर्तिमान
बहुत प्रतीक्षा की इन नें
उनकी याद सो रही है
जब वह जागेंगे
हम सो रहे होंगे,
याद करो।
सुबह जागी है आलसी
अंगों में सुलगती आग
चिडियों का आलाप
घास ओस से नील हुई
पलकें फडफडाईं और मुस्कान
ठंडी हवा बीच उडती आई
चलो टीन गर्माएं
और फिर बाल संवारें।
क्या पर्वत बात करता है?
घुमाऊ पथ पर
खुले स्थान पर
पृथिवी की सूजन दीखती है
टूटी शिला के दान्त
यहां और वहां
और निचली ढाल की घास और चरीले से दूर
पर्वत का ध्यानमग्न मुखमण्डल
आंखें बन्द
उदात्त मस्तक, सीधी नाक
और वर्षा के बीच सुन पडता है
इसके वक्ष का धीमा शब्द।
क्या तुमने शरीर दिखाया है
पर्वत नदी को
इसके फेन को चूमा
इससे पीठ को रगडा
और मित्र के साथ मुक्त पाया
इस विशाल स्नानशाला में?
कितनी रुक-रुक के
गर्मी वापस आए
और जब यह फैले
और हम फिर केवल नाम हैं,
समय लौट आया
पर्वत की पट्टी को चढने का।
मेघ के उतरने के बाद
वर्षा का कडक से गिरना
टट्टू काम्प रहे
उनकी उदास विशाल आंखें अन्दर देख रहीं
और एक भूरा चूहा रास्ता सूंघ रहा
अपने जल-भरे बिल की ओर
क्या यह बन्धु पायेगा
या इसे उन्हें ढूंढने
नदी तट जाना होगा?
ऋतु में जादू हैः
जडें पकडे खींच रहीं मिट्टी
जुड गईं चीडशंकु, अविलीद और बिच्छुओं के साथ
ढाल पर फिसलती हुईं।
क्यों जल जोडता है और गिराता है
शक्ति देता है आत्महत्या के पथ पर,
क्यों वात सुखाती है और जमाती,
सूर्य गरमाता है और जलाता,
पृथिवी सहारती है और दबाती,
क्यों तत्त्वसंकर बढता जाता है?
तथापि नये रूप आते हुए चिल्ला रहे
इस पंकिल रक्ती वसन्त में —
उनके शोकगीत कौन गायेगा
उनके घर हिमक्षेत्र में खोदेगा
जंगल के मैदान में आग बनाएगा?
पहाडी पर प्रकाश बिन्दु तारा नहीं
चरवाहा और पत्नी बात कर रहे है
यादें बांटते हुए
दोनों सौ दिन की गन्ध ओढे हुए हैं
माखन, स्वेद, मूत्र, अन्य रस
धरती का आर्द्र
कढी, ओषधी और धुआं
क्यों वह मिटा लें, जो था?
और शिविर मृदु श्वास ले रहा
क्या तुम अन्धेरे का रिरियाना सुन रहे हो
और बालों का त्वचा में अंकुरण?
जैसे रात्रि मीठे से अपनी चादर बना रही
न ऋक्ष और नाहीं भयावक शब्द
शरीर शान्त धरती पर लेटा हुआ,
क्यों मन तब आग्रही मांगता है नई यात्रा
उन पथ पर जहां हम पहले चले थे?
आग और वात
आप और मिट्टी
बहुत हैं हिमालय पर
परन्तु मन दौडता है प्राचीन छायाओं साथ,
विद्यालय और पिता
मित्र और माता
गाडी और वस्त्र,
और पहुचता है पर्वतीय आश्रम।
यह सचमुच व्यर्थ है,
हम आप हैं
हम आप है।
धागे
जब अनुभूति तर्क में बन्धे
निर्भाव की पीडा
डुबोती है
निर्भाव उपहासते हैं
अवयव जलते हैं
कोशिकाएं पिघलती हैं
अम्ल में।
हा क्या जलना था
अपनी ही आग में?
प्रश्न का उत्तर
दूसरे प्रश्न में है।
वही स्वप्न आये हैं,
दस वर्ष
वही बिम्ब बैठे,
वही भय दबाये,
निर्वाण कैसे हो?
योगिनी छज्जे पर बैठी
पथिकों को कहती सी
मैं अकेली हूं
दूरबोध से।
क्या मैंने सही सुना
चाय के अवशेष परखूं
चित्र दर्पण मे देखूं
छाया मापूं
लाख का मन्त्र पाठ
रोम पर करूं?
हां वह कामुक है
पर शीघ्र ऊब जायेगी।
एक निःशब्द चीख झंझोटती है
गांव के सूअर का प्रेत
धुंध में घुलता सा दीखता है।
दौडता हूं कसाईक्षेत्र
और सूअर वहां है लकडी समान
पांव बंधे, मुंह दबा
उसकी चीखें आकाश फाडती,
चार लंगोटित लोग बहरे हैं
छुरी पैना रहे यह
घर के लिये मांस चाहते।
उस शाम को व्रत है
पर सूअर की आत्मा के बजाय
मेरे विचार भटकते हैं
और रुकते हैं आनन्द की पुत्री पर
मेरे मन्दिर पर षोडशी उपासिका
वह स्पर्श से स्फटिकमय है,
अतः मैं उसे रहस्य बतलाता हूं
अस्तित्व और शून्यता का।
मेरी चाह इतनी है
कि चाह ही इसकी पूर्ति है।
एक ताल, एक दर्पण / भाग १
(१९९९, “एक ताल, एक दर्पण” नामक पुस्तक से)
१
जैसे फूल की गिरती पंखडी
शाखा को लौटे
ऐसी थी तितली की उडान।
२
शरद की झंझानिल में
व्याघ्र और हरिण
साथ ठिठुरे।
३
मध्याह्न की गर्मी में
जल से भाप उठी,
पुराना संगीत
कान में गूंजा —
ताल ही दर्पण है।
४
झांझा अति पीडित
तितली नहीं बनेगा।
५
फुलवारी के शृंगार
और पक्षियों के कोलाहल के मध्य
देखो पीपल का धैर्य।
६
लगता है तरबूज़ को नहीं मालूम
रात तूफान आया।
७
चांद को देखते देखते
मेरी गर्दन दुखियाई।
८
वसन्त का पहला गीत गाते
पक्षी शर्माता है।
९
कितने तीर्थ जाकर
आकाश गंगा
उतनी ही दूर।
१०
यात्रयों के साथ
पक्षी भी डेरा डाले।
११
पुरुष बैठे करे ध्यान–
कठोर परिश्रम।
१२
डाकू साधूवेश में हैं
कवि ने
तलवार बान्धी है।
१३
मैं हंस से खेलने चला
पर उसकी उडान से
डर गया।
१४
चिडियाघर के पिंजरे
का भालू
मुझे भाई लगा।
१५
दर्पण में बिम्ब
धुंधलाता है।
१६
इस रात देर
मेरा साथ कौन जगा है?
१७
मैना ऐसे गाये
जैसे पिंजरे में है ही नहीं।
१८
विशैले छत्रक
सुन्दर लगते हैं।
१९
पक्षी की कूक सुनकर
जल में चन्द्रमा हिला।
२०
चन्द्रमा दौड रहा
एक मेघ से दूसरी ओर।
२१
अरुषी ने ओस के बिन्दु को
अंगुली में पकडना चाहा।
२२
सुन्दर है
पतझड की शाम का चन्द्र
जीवन की शाम में।
२३
तितलियां इधर उधर भाग रहीं
बीते वसन्त को ढूंढतीं।
२४
पाला और भीषण पडा
अब पुष्प नहीं खिलेंगे।
२५
काश गिरती बर्फ पर
तितलियां मंडरातीं
कैसा गातीं वह।
२६
चोर ने हार चुराया
पर चन्द्रमा मेरी खिडकी के बाहर
से नहीं भागा।
२७
मछलियां
गिरते फूलों के डर से
चट्टान नीचे छिप गईं।
२८
श्मशान में
बहुतेरी सुन्दरियों की अस्थियां हैं।
२९
गर्मी की रात
पिंजरे का कोई पक्षी
नहीं सोया।
३०
सुन्दर है
शरद चन्द्रमा
पर हमारी खिडकियां बन्द हैं।
३१
अरुषी बहुत रोई
पूर्ण चन्द्रमा के लिये।
३२
तूफान के झोंके पर बैठी
मन्दिर की घण्टी की आवाज़
चली आई।
३३
बिन जाने कैसे समझूं
ग्रन्थ मैं लौटाता हूं।
३४
पतंग पर किरणें हैं
जब ताल पर अंधेरा आ चुका।
३५
तूफान में कुत्ते
गिरते पत्तों पर भौंक रहे।
३६
प्रकाश
बिम्ब बिम्ब का प्रतिरूप
रूप रूप का प्रतिबिम्ब।
३७
सुन्दरता क्या निहारूं
वसन्त के पग
निरन्तर दूर हो रहे।
३८
कौवे शोर मचा रहे
कि कोकिला को सुन न पाएं।
३९
मां कि गोद में सुरक्षित
भिखारी बच्चे को क्या मालूम
ठंड कितनी है।
४०
चिडिया घोंसला बनाए
पेड पर, कैसे बताएं
पेड कटने वाला है।
एक ताल, एक दर्पण / भाग २
(१९९९, “एक ताल, एक दर्पण” नामक पुस्तक से)
४१
उदास लगे पिंजरे का पक्षी
जब तितली देखे।
४२
जुगनू रोशनी दें
बच्चों को
जो उन्हें पकडें।
४३
नाग जल निर्मल है
पांव कैसे धोऊं।
४४
अनजान कि वसन्त जा रहा
तितली घास पर सोई।
४५
वह पास से निकला
पर सवेरे के कुहरे में
उसे पहचान न सका।
४६
हरिण स्तम्भित हुआ
उछलते बाघ की
भीषण सुन्दरता देख।
४७
आतिशबाज़ी बाद
दर्शक लौटे
अब वीराना है।
४८
मकडे जाल से
तितलियों के पंख
लटक रहे।
४९
उपवन में प्रत्येक पेड
का अपना नाम है।
५०
पतङ्ग धरती गिरा
निरीक्षण से जाना
आत्मा नहीं।
५१
मधुमक्खी बार बार
देवता की मूर्ति पर
वार कर रही।
५२
कितने मूर्ख हैं जो
इशारों का दाम करते हैं।
५३
गंगा की लहरों पर
चांद चित्र बना रहा।
५४
पक्षी हंस रहे
कि हमारे पास समय नहीं।
५५
चांदनी में सब वस्त्र
सुन्दर लगते हैं।
५६
खण्डहर में मैंने
कई फूल उगते पाए।
५७
रुई का फेरीवाला
गर्मी से पीडित।
५८
मेंढक पत्ते बैठ
कुल्या को पार किया।
५९
यदि पपीहा पौधा होता
लोग गीत काट लेते
रेशमी रुमालों
और पन्नों बीच
सुखाने के लिए।
६०
आज भी
सूर्यास्त हुआ
फुलवारी में
बेचारे तारे
शरद के चांद से
हारे।
६१
तूफान के शोर में भी
चिडिया की पुकार आई।
६२
सर्दी की फुहार
मझे मिलने से पहले
फुलवारी हो आई।
६३
भुर्जतरु भीषण वर्षा में
सोए पडे।
६४
पपीहा कूक करे
पर कोई न आया।
६५
शाम हो चली
मेरी बेटी
चुपचाप रसोई में
खाना खा रही।
६६
कमल सुन्दर है
पर नाविक बहरा।
६७
कारागार के आंगन में भी
पुष्प खिले।
६८
मैं थक गया
क्या नींद में भी
पुष्प खिलेंगे।
६९
पूजा करते
पुष्प मुर्झाए।
७०
कोमल फूलों पर
वर्षा मूसल सी गिर रही।
७१
शरद की चांदनी में
मेरा बालक
गोद नहीं।
७२
पडोसी की उंची दीवार
न वह देखे नदी
न दूर पहाडी।
७३
रात अंधेरे के तम्बू में
छिप गया ताल
पर हंस का स्वर
कोमल और श्वेत है।
मन्दिर की सीढियाँ
१
मेरे समछाया के आंगन में
पपीहे ने पहला गान किया।
२
मालूम नहीं कहां से यह गीत
धरती पर गिर आया।
३
मचान से देखते
बाघ कितना सुन्दर लगता है।
४
तितली मेरे हाथों में
देखते देखते मर गयी।
५
देखो! पर्वत
कम्बल के नीचे सोया है।
६
पुष्प खिले
दूसरे दिन
हिमपात हुआ।
७
मैं फूलों को
चुनना नही चाहता
पर घर कैसे लौटूं
चुने बिना।
८
पता नहीं किन फूलों की
सुरभि फैल गई
आंगन में।
९
बादल कभी कभी
चान्द को ढक लेते हैं
कि हमारी निहारती आंखें
थक न जाएं।
१०
देखो इस पत्ते से गिर
जलबिन्दु
कैसे विभाजित हुआ।
११
पपीहे की चीख सुनकर
मुझे स्वर्गवासी दादा की
याद आई।
१२
चान्द की कितनी
समदृष्टि है।
१३
नववर्ष के उत्सव के लिये
मेरे पास नव वस्त्र कहां?
१४
ओठ ठिठुरते हैं
इन हवाओं में।
१५
इस चांदनी रात में
केवल मेरी छाया मेरे साथ है।
१६
तूफान की हवा बन्द हो चली
पर उसका चीत्कार अब
नदी के कलकल में है।
१७
मन्दिर की घण्टी में
मकडे ने जाल बनाए।
१८
हाय, इस पुष्प वाटिका में
लोग रंगे चश्मे पहने हैं।
१९
मेरी प्रियतमा नहीं
तो मैं क्यों कविता करूं।
२०
उडान भरने से पहले राजहंस
बत्तख लग रहा था।
२१
अद्भुत सौन्दर्य के पुजारी हैं वह
जो वीराने में खोजे हैं खुशी।
२२
सूर्य चढता गया
कलियां फूटती गईं।
२३
अभिनव अर्जुन
केवल तीर चलाता है।
२४
अरुषी रो रही
सखी से कैसे मिले।
२५
एक और सावन ढल गया
सब मित्रों के केश में
रंग है अब।
२६
वर्षा की पहली रात में ही
छुरी कलंकित हुई।
२७
मैं महलों में सोया हूं
वहां बहुत सन्नाटा था।
२८
मरुस्थल में
ऊंट भक्ति से
भार ढो रहे।
२९
पतझड के तूफान में
काकत्रासक तृणपुरुष
सबसे पहले उड गये।
३०
भिखारी के आंगन में
सुन्दर फूल खिले हैं।
३१
कोयल की उडान देख
श्येन को याद आया
वह भी उड सकता है।
३२
आज दिन की धूप में, प्रियतम,
तुम्हारा छत्र कितना छोटा है।
३३
शाम की समीर में
सन्तुष्ट है मकडा
जाल बुनता है।
३४
पेड ऐसे झूल रहे
जैसे चित्र बना रहे।
३५
सूर्य के ३३९ गीत सुनने
मैंने प्राचीन मन्दिर की
१०८ सीढियां चढीं।