हम अपनी पुश्त पर खुली बहार ले के चल दिए
हम अपनी पुश्त पर खुली बहार ले के चल दिए
सफ़र में थे सफर का ए’तिबार ले के चल दिए
सड़क सड़क महक रहे थे गुल-बदन सजे हुए
थके बदन इक इक गले का हार ले के चल दिए
जिबिल्लतों का खून खौलने लगा जमीन पर
तो अहद-ए-इर्तिका ख़ला के पार ले के चल दिए
पहाड़ जैसी अज्मतों का दाखिला था शहर में
कि लोग आगही का इश्तिहार ले के चल दिए
जराहतें मिली हमें भी इंकिसार के एवज
झुका के सर सदाकतों की हार ले के चल दिए
जो तू नहीं तो मौसम-ए-मलाल भी न आएगा
जो तू नहीं तो मौसम-ए-मलाल भी न आएगा
गए दिनों के बाद अहद-ए-हाल भी न आएगा
मिरी सुखन-सराइयों का ए’तिबार तो नहीं
जो तू नहीं तो हिज्र का सवाल भी न आएगा
अगर वो आज रात हदद-ए-इल्तिफात तोड़ दे
कभी फिर उस से प्यार का खयाल भी न आएगा
शब-ए-तिसाल है बिसात-ए-हिज ही उलट गई
तो फिर कभी खयाल-ए-माह-ओ-साल भी न आएगा
मिलेगा क्या तिलिस्म-ए-जात का हिसार तोड़ कर
कि इस के बाद शहर-ए-बे-मिसाल भी न आएगा
मिरी दुआओं की सब नरमगी तमाम हुई
मिरी दुआओं की सब नरमगी तमाम हुई
सहर तो हो न सकी और फिर से शाम हुई
खुला जो मुझ्ा पे सितम-गाह-ए-वक्त का मंजर
तो मुझ्ा पे ऐश-ओ-तरब जैसी शय हराम हुई
मिरे वजूद का सहरा जहाँ में फैल गया
मिरे जुनूँ की नहूसत जमीं के नाम हुई
अभी गिरी मिरी दीवार-ए-जिस्म और अभी
बिसात-ए-दीदा-ओ-दिल सैर-गाह-ए-आम हुई
तू ला-मकाँ में रहे और मैं मकाँ में असीर
ये क्या कि मुझ पे इताअत तिरी हराम हुई
रौशनी मेरे चराग़ों की धरी रहना थी
रौशनी मेरे चराग़ों की धरी रहना थी
फिर भी सूरज से मिरी हम-सफरी रहना थी
मौसम-ए-दीद में इक सब्ज-परी का साया
अब गिला क्या कि तबीअत तो हरी रहना थी
मैं कि हूँ आदम-ए-आजिम की रिवायत का नकीब
मेरी शोखी सबब-ए-दर-ब-दरी रहना थी
आज भी जख्म ही खिलते हैं सर-ए-शाख-ए-निहाल
नख्ल-ए-ख्वाहिश पे वहीे बे-समरी रहना थी
साज़-ओ-सामान-ए-तअय्युश तो बहुत थे ‘यावर’
अपने हिस्से में यही हर्फ-गरी रहना थी
शहर-ए-सुख़न अजीब हो गया है
शहर-ए-सुख़न अजीब हो गया है
नाक़िद यहाँ अदीब हो गया है
झूठ इन दिनों उदास है कि सच भी
परवर्दा-ए-सलीब हो गया है
गर्मी से फिर बदन पिघल रहे हैं
शायद कोई क़रीब हो गया है
आबादियों में डूब कर मिरा दिल
जंगल से भी मुहीब हो गया है
क्या क्या गिले नहीं उसे वतन से
‘यावर’ कहाँ ग़रीब हो गया है
सुख़न को बे-हिसी की क़ैद से बाहर निकालूँ
सुख़न को बे-हिसी की क़ैद से बाहर निकालूँ
तुम्हारी दीद का कोई नया मंज़र निकालूँ
ये बे-मसरफ़ सी शय हर गाम आड़े आने वाली
अना की केंचुली को जिस्म से बाहर निकालूँ
तिलिस्मी मारके कहते हैं अब सर हो चुके हैं
ज़रा ज़म्बील के कोने से मैं भी सर निकालूँ
लहू महका तो सारा शहर पागल हो गया है
मैं किस सफ़ से उठूँ किस के लिए ख़ंजर निकालूँ
बस अब तो मुंजमिद ज़ेहनों की ‘यावर’ बर्फ़ पिघले
कहाँ तक अपने इस्तेदाद के जौहर निकालूँ