हर मौसम में ख़ाली-पन की मजबूरी हो जाओगे
हर मौसम में ख़ाली-पन की मजबूरी हो जाओगे
इतना उस को याद किया तो पत्थर भी हो जाओगे
हँसते भी हो रोते भी हो आज तलक तो ऐसा है
जब ये मौसम साथ न देंगे तस्वीरी हो जाओगे
हर आने वाले से घर का रस्ता पूछते हो
ख़ुद को धोका देते देते बे-घर भी हो जाओगे
जीना मरना क्या होता है हम तो उस दिन पूछेंगे
जिस दिन मिट्टी के हाथों की तुम मेहँदी हो जाओगे
छोटी छोटी बातों को भी इतना सजा कर लिखते हो
ऐसी ही तहरीर रही तो बाज़ारी हो जाओगे
जो भी कुछ अच्छा बुरा होना है जल्दी हो जाए
जो भी कुछ अच्छा बुरा होना है जल्दी हो जाए
शहर जागे या मिरी नींद ही गहरी हो जाए
यार उकताए हुए रहते हैं ऐसा कर लूँ
आज की शाम कोई झूठी कहानी हो जाए
यूँ भी हो जाए कि बरता हुआ रस्ता न मिले
कोई शब लौट के घर जाना ज़रूरी हो जाए
याद आए तो बदलने लगे घर की सूरत
ताक़ में जलती हुई रात पुरानी हो जाए
हम से क्या पूछते हो शहर के बार में ‘रज़ा’
बस कोई भीड़ जो गूँगी कभी बहरी हो जाए
कुछ अजब सा हूँ सितम-गर मैं भी
कुछ अजब सा हूँ सितम-गर मैं भी
उस पे खुलता हूँ बदन भर मैं भी
नई तरतीब से वो भी ख़ुश है
ख़ूब-सूरत हूँ बिखर कर मैं भी
आ मिरे साथ मिरे शहर में आ
जिस से भाग आता हूँ अक्सर मैं भी
अब ये पा-पोश-ए-अना काटती है
लो हुआ अपने बराबर मैं भी
झिलमिला ले अभी उजलत क्या है
और कुछ देर हूँ छत पर मैं भी
रौशनी होने लगी है मुझ में
रौशनी होने लगी है मुझ में
कोई शय टूट रही है मुझ में
मेरे चेहरे से अयाँ कुछ भी नहीं
ये कमी है तो कमी है मुझ में
बात ये है कि बयाँ कैसे करूँ
एक औरत भी छुपी है मुझ में
अब किसी हाथ में पत्थर भी नहीं
और इक नेकी बची है मुझ में
भीगे ल़फ़्जों की ज़रूरत क्या थी
ऐसी क्या आग लगी है मुझ में
तुम भी इस सूखते तालाब का चेहरा देखो
तुम भी इस सूखते तालाब का चेहरा देखो
और फिर मेरी तरह ख़्वाब में दरिया देखो
अब ये पथराई हुई आँखें लिए फिरते रहो
मैं ने कब तुम से कहा था मुझे इतना देखो
रौशनी अपनी तरफ़ आती हुई लगती है
तुम किसी रोज़ मिरे शहर का चेहरा देखो
हज़रत-ए-ख़िज्र तो इस राह में मिलने से रहे
मेरी मानो तो किसी पेड़ का साया देखो
लोग मसरूफ हैं मौसम की ख़रीदारी में
घर चले जाओ ‘रज़ा’ भाव ग़ज़ल का देखो
उस का ख़याल आते ही मंज़र बदल गया
उस का ख़याल आते ही मंज़र बदल गया
मतला सुना रहा था कि मक़्ता फिसल गया
बाज़ी लगी हुई थी उरूज ओ ज़वाल की
मैं आसमाँ-मिज़ाज़ ज़मीं पर मचल गया
चारों तरफ उदास सफेदी बिखर गई
वो आदमी तो शहर का मंज़र बदल गया
तुम ने जमालियत बहुत देर से पढ़ी
पत्थर से दिल लगाने का मौक़ा निकल गया
सारा मिज़ाज नूर था सारा ख़याल नूर
और इस के बा-वजूद शरारे उगल गया