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बाबा जी की छींक

घर-घर को चौंकाने वाली,
बाबा जी की छींक निराली!

लगता यहीं कहीं बम फूटा,
या कि तोप से गोला छूटा!
या छूटी बंदूक दुनाली,
बाबा जी की छींक निराली!

सोया बच्चा जगा चौंककर,
झबरा कुत्ता भगा, भौंककर!
झन्ना उठी काँस की थाली,
बाबा जी की छींक निराली!

दिन में दिल दहलाने वाली,
गहरी नींद हटाने वाली!
निशि में चोर भगाने वाली
बाबा जी की छींक निराली!

कभी-कभी तो हम डर जाते,
भगकर बिस्तर में छिप जाते!
हँसकर कभी बजाते ताली,
बाबा जी की छींक निराली!

आलपीन के सिर होता

आलपीन के सिर होता, पर
बाल न उस पर होता एक,
कुर्सी के दो बाँहें हैं, पर
गेंद नहीं सकती है फेंक!

कंधी के हैं दाँत मगर वह
चबा नहीं सकती खाना,
गला सुराही का है पतला,
किंतु न गा सकती गाना!

होता है मुँह बड़ा घड़े का
पर वह बोल नहीं सकता,
चार पाँव टेबुल के होते
पर वह डोल नहीं सकता!

जूते के है जीभ मगर वह
स्वाद नहीं चख सकता है,
आँखें होते हुए नारियल
कभी न कुछ लख सकता है!

बकरे के लंबी दाढ़ी है
लेकिन बुद्धि न उसके पास,
झींगुर के मूँछे हैं फिर भी
दिखा नहीं सकता वह त्रास!

है मनुष्य के पास सभी कुछ
ले सकता है सबसे काम,
इसीलिए दुनिया में सबसे
बढ़कर है उसका ही नाम।

प्रतिध्वनि

मेरे मुँह से जो कुछ निकला
कौन उसे दोहराता है?
कहाँ छिपा है? किस कोने में?
क्यों न सामने आता है?
‘कौन’? कहूँ तो ‘कौन’? कहे
‘मैं’ कहने पर मैं कहता है
डाँटूँ तो वह डाँट सुनाता,
बात न कोई सहता है!
ओ हो, मैंने अब पहचाना,
रही प्रतिध्वनि यह मेरी!
जो बोलूँगा दोहराएगी,
बिना किए कुछ भी देरी।
इससे अब मैं मीठी-मीठी,
बातें मुँह से बोलूँगा!
कड़वी बातें कहने को अब
कभी नहीं मुँह खोलूँगा!

सुनो कहानी

मस्त राम की सुनो कहानी,
है केवल दिन सात की!
नानी ने है मुझे सुनाई,
बात अभी कल रात की!
सोमवार को जन्म हुआ था,
मुंडन मंगलवार को!
धूमधाम से हुआ जनेऊ,
कहते हैं बुधवार को!
ब्याह बृहस्पतिवार हुआ,
तो लड़का शुक्रवार को।
शनिवार बीमार पड़े वे,
मर गए रविवार को।

-साभार: बच्चों के भाव गीत, रमापति शुक्ल, 15

अगर

खूब बड़ा-सा अगर कहीं,
संदूक एक मैं पा जाता।
जिसमें दुनिया भर का चिढ़ना,
गुस्सा आदि समा जाता।
तो मैं सबका क्रोध, घूरना,
डाँट और फटकार सभी।
छीन-छीनकर भरता उसमें,
पाता जिसको जहाँ जभी।
तब ताला मजबूत लगाकर,
उसे बंद कर देता मैं।
दुनिया के सबसे गहरे
सागर में उसे डुबा आता
तब न किसी बच्चे को कोई-
कभी डाँटता, धमकाता!

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