भीतर-बाहर
आदमी के भीतर
एक आदमी है
आदमी के बाहर
एक आदमी है
भीतर का आदमी
जब बाहर आता है
बाहर के आदमी से तुरन्त मार खाता है
द्वीप
मैं महाद्वीप
नहीं हूँ
महासागर की उत्ताल तरंगों बीच
एक छोटा-सा द्वीप
निर्जन हूँ
जिसका अस्तित्व किसी मानचित्र ने
नहीं स्वीकारा
देह का भूगोल
देह का भूगोल
नहीं नहीं
कहीं नहीं
गया है
तुम्हारा
कदली-वन
किंचित भी
नहीं हटी हैं
दूधिया पहाड़ियाँ
और उनके बीच की घाटी भी
वहीं है
कमल-कुंज ऊपर
श्याम घटा वैसी ही
छाई है
फिर क्यों
संशय-ग्रस्त अन्धे हाथ से
इन्हीं को
टटोलते हो बार-बार
है यह देह का भूगोल
देश का नहीं
जो बदल जायेगा
कौसानी
पर्वत की पेशानी
चीड़, बुराँस, अखरोट, अलूचा
देवदार, मीठा पागर औ खूबानी
दो-चार घरों की
छिटपुट-सी बस्ती–
यह कौसानी
तासीर हवा में ऐसी
अपने आप लोग बन जाते इसमें
कवि, वैरागी, सेनानी
बाक़ी सब बातें बेमानी
कुछ नहीं
कुछ नहीं
एक विश्वास था
जो मेरे पास था
जिन्दगी के आख़िरी वक्त में
उसको भी
तुमने तोड़ा।
चलो अच्छा हुआ
जो कहने के लिए
अब कुछ नहीं छोड़ा।
वह
कभी-कभी वह
गुलिवर की तरह
लिलिपुट में आता है
ईंट, पत्थर, लोहा और सीमेंट के
बिलों से
निकलते हैं चूहे
अपनी मूँछों को कँपकपाते हुए
दुम को दबाते हुए
और गुलिवर को देखकर
फिर वापिस बिलों में
घुस जाते हैं
लेकिन जब
गुलिवर सोता है
तब कँपकपाती मूँछों वाले
ये चूहे
उसकी नाक, कान, मुँह में घुसकर
उसकी खोपड़ी को बजबजाते हैं
जैसे चाहते हैं
वैसे सुर निकालते हैं।
जनतंत्र
हथौड़ा
अपेक्षा का उत्तर है
ऐसे जनतन्त्र का
मालिक ही ईश्वर है
तुरुप
प्रश्न यह नहीं
कि तुम्हारे पास
पत्ते हैं अच्छे
ग़ुलाम, बेगम, बादशाह, इक्के
यह बताओ
कि तुरुप
है या नहीं
यदि है
तो तुम्हारी दुग्गी
बादशाह पीट सकती है
हारी हुई बाजी जीत सकती है
अंधेरे के अर्जुन
ये रोशनी
नहीं होने देंगे
रोशनी होगी
तब ये कहाँ होंगे
अंधेरे में द्रोपदी को
भोगते रहना ही
काम्य है
आज के अर्जुनों का
साम्य है
सिंहभूम के वनों में
दूर-दूर तक
धुला हुआ वन
आकाश में छितरे
रीते हुए घन
झूलता जिनसे लिपट कर चांदनी का तन
बहकती वायु का अंचल पकड़ कर खींचते हैं
शाल वृक्षों के हठीले हाथ
फुसफुसाते पात पीपल के रहे कह
माधवी से गन्ध-भीनी बात
नटखट निर्झर फिसलते हैं ढलानों से
कि जैसे वारुणी पीकर
बहुत से किन्नरों के पग थिरकते हैं
अन्तिम कविता
यह कविता कवि ने गहन रुग्णावस्था में निधन से मात्र 20 दिन पूर्व लिखी थी
वे आ रहे हैं
श्याम वर्ण अश्वों पर सवार
मेरे घर की ओर ।
उनके काम बता दिए गए
एक का काम है मुझको नहीं बोलने देने का
वाणी को छीन लें ।
दूसरे का काम है
न सुनने देने का ।
तीसरे का काम है
आँख बन्द करने का-
ताकि मैं उनका आतंक न देख सकूँ ।
चौथे का काम है
मेरे दाँत तोड़ने का
ताकि मैं चलते समय
किसी पर आक्रमण न करूँ ।
कुछ देर रुक कर
फिर एक गहन सन्नाटा।