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प्रेम करने से पहले

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
नदियाँ अनवरत हो जाएँ
और पत्थरों से टकराने का सिलसिला थम जाये !

डूब जाने का डर,
नदियाँ अपने साथ बहा ले जाएँ
और उनकी प्रवाह में डूबा हुआ मेरा पाँव
ये महसूस करे,
कि नदियाँ किसी देवता के सर से नहीं
वरन पृथ्वी कि कोख से निकली हैं !

मैं चाहूँगा नदी के किनारे पर बैठी औरत,
जब सुनाए कहानियाँ नदियों की
तो त्याग दे देवताओं की महिमा !
वो बताए अपने पुरखों के बारे में
और बताए, कि सबसे पहले हम आकर, यहीं बसे
नदी हमारा पहला प्रेम थी !

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
पेड़ पतझड़ के बाद
बसंत की आवक का, दर्शक ना रह जाए
हरेपन के लिए मौसम के खिलाफ़
नदी और सूर्य को एक कर दे,
वो महसूस कर ले
घोसलों और झोपड़ियों के प्रति अपने दायित्व को !

मैं चाहूँगा,
गौरैया और पेड़, जब आपस में बातें करें
तो कहें, वो आँगन जहाँ तुम्हें दाने मिलते हैं
सृष्टि की आदि में मेरी इन्ही भुजाओं पर बसे थे
आज पृथ्वी से इस पर ईर्ष्या है मेरी !

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
पत्थर ह्रदय की तरह धड़कने लगे !
खोल दे ख़ामोशी की सारी तहें,
जहाँ से कभी नदियाँ गुज़रीं
कभी कोमल तो कभी उखड़ जाने जितने दबाव के साथ!
जहाँ लोग शिकार की तलाश में घंटों टेक लिए रहे !

दिखाएँ वे निशान
जहाँ रगड़कर आग पैदा की गई
और कहें,
मेरी ख़ामोशी का मतलब ये ना लिया जाए कि,
आग देवताओं कि देन है
मुझे ही तराशकर उनको आकार दिया गया
जबकि उनके भीतर
मैं आज भी मौन हूँ !

मैं चाहूँगा,
मेरे प्रेम करने से पहले
गुफ़ाएँ, खोल दें सारी गुफ़ा चित्रों का इतिहास
जिसे इस श्रृष्टि के पहले कलाकार ने
अपने ह्रदय की चित्र भाषा में खिला था !
इतने तनाव में कोई पहली बार दिखा था !

उसके आने से पूर्व, कई दावानल आए
और नदियों का रंग लाल रहने लगा ,
तभी इसने छोड़ दिया अपना समूह
कभी वह बर्बर नरभक्षी लगता ,
कभी असीम सहृदयी ,
लेकिन अंततः, इस द्वन्द में
भाले और तीर लिए लोगों के मध्य
उसने अंकित किया
एक निहत्था मानव जो चलता ही जा रहा था
कहीं किसी ओर !
मेरे प्रेम करने से पहले…….

मैं अंकुरित हो रहा हूँ

मैं अभी खेत जोतकर
धीरे-धीरे अंकुरित हो रहा हूँ

कुहासे भरी रात के बीच
और तुम, सड़क के उस तरफ़ लहराती हुई
नदी की तरह बहकर, दूर निकल गई
आसमान की तरह साफ़ होगी तुम्हारी देह
जो अभी भी झलकती है, तुम्हारे ही अन्दर
नदी में, टिम-टिम करती हुई !
उसे छूने के लिए मैं बहना नहीं चाहता
क्योंकि छूट गए पीछे, अनगिनत लोग ।

मैं खेत में अंकुरित हो रहा हूँ,
और मेरे ऊपर औंधे लेटी हुई तुम!
सहलाता है मेरे प्यार को एक किसान
लबालब भरी हुई क्यारियों की तरह,
जिसमे टिमटिमाती है तुम्हारी देह
फिर धरती सोख लेती है उसे
लेकिन मैं बेचैन हो जाता हूँ
कहीं धरती की सतह पर छूट तो नहीं गईं
तुम्हारी देह, तुम्हारी आँखे
क्योंकि मैं अंकुरित हो रहा हूँ

मेरे भीतर से फूटेगा कौन
मेरे भीतर खाली है आत्मा
एक पहाड़ की तरह
जहाँ से हवा गुजरती,मैं ख़ुद को तराशता
लेकिन सीने पर पाल नहीं बाँधी
जिसे तुम सहारा देती, एक नाविक की तरह
आसमान के दूसरे छोर पर बैठी तुम

याकि जिसके सहारे खुद ही उतर पाऊँ
तुम्हारे भीतर, इस नदी में
तैरूँ उस तरफ़
जहाँ गायें चरती हैं, जहाँ मोर नाचते हैं
जहाँ पतलो के भूए तपती रेत पर बिछे,
ऊपर तुम्हारी देह देख रहें हैं
और पहाड़ तुम्हें प्रेम करना चाह रहें हैं
बस, उसी तरफ मैं अंकुरित हो रहा हूँ
एक किसान के सहारे,
एक नाविक के सहारे,
एक पहाड़ तराशती हवा के सहारे !

तुमसे मिलकर

कभी बहुत अच्छा लगता तुमसे बात कर
जैसे गुबरैले सुबह का गोबर लिए
निकल जाते हैं कहाँ
मैं नहीं जानता !

कभी ऐसा लगता ,जैसे पूरी सुबह
ओस में भीगकर
धूल की तरह भारी हो गई हो,जो पाँव से नहीं चिपकती
दबकर वहीँ रह जाती !

जानने का क्या है ,मैं कुछ भी नहीं जानता
हाँ कुछ चीजें याद रह जाती हैं,
एक सूत्र तलाशती हुई !

मैं कुछ बोल नहीं पाता
रात का अँधेरा मेरी जीभ का स्वाद लेकर
सदी का चाँद बुनता है
जिसे ओढ़कर दादी सोती है ,और लोग
सन्नाटे की तरफ़ जाते हैं !

आवाज़ बुनने की कारीगरी मुझे नहीं आती,
मेरी आँख भारी रहती है
जिसे मैं स्याही नहीं बना पाता !

ताल के किनारे खड़ी रहती हैं नरकट की फसलें
जो तय नहीं हैं किसके हिस्से में जाएँगी !
हाथ के अभाव में,
अँगूठा लिखता है इतिहास, और
ज़बान के अभाव में
आँसू
पेड़ों से नाचती हुई पत्तियाँ गिरती रहती हैं
और दरवाज़े का गोबर खेत तक पहुँचता रहता है !

मैं रोता हूँ, और भटकता हूँ
शब्द से लेकर सत्ता तक
लेकिन मुझे, कोई अपने पास नहीं रख पाता

तुम भी कहाँ चली गई

यह बस रात का आख़िरी पहर है
जहाँ उजाले के डर से
चौखट लाँघता है आधा देश !

मैं राख़ होना चाहता हूँ

जिसे तलाश कर रहा हूँ,
वो मेरी परछाइयों के साथ
इस शाम में घुल रही है !

बच रहीं हैं कुछ टूटी हुई स्मृतियाँ
जहाँ से अजीब-सी गंध उठ रही है !
टूटे हुए चश्मे,
मन पर बोझ की तरह लटक रहें हैं !
मेरी पहचान को आईने इनकार कर चुके हैं !

खंडहरों में सुलगती बेचैन साँसें
कबूतरों के साथ
शांति की तलाश में भटक गई हैं!
सातवें आसमान पर बैठने की चाहत को,
सात समंदर पार वाले राजा ने क़ैद कर लिया है !

लगता है पूरी की पूरी सदी लग जाएगी
सुलगकर आग होने में ,
मैं राख़ होना चाहता हूँ !

सुलगना,
आग होना,
और राख़ होना
दरअसल शाम को तुम्हारे साथ मिल जाना है !
मैंने देखा है
परछाई, शाम और राख़ के रंग को
सब ताप के बाद की तासीर !

सूर्य के हाथ से छूट रही है पृथ्वी

तुम पास बैठकर

कविता की कोई ऐसी पंक्ति गाओ

जहाँ मेरे कवि की आत्मा

निर्वस्त्र होकर

मेरे आँख का पानी मांग रही है

ये कैसा समय है

कि, ये पूरी सुबह

किसी बंजारे के गीत की तरह

धीरे-धीरे मेरी आत्मा को चीर रही है

जिसके रक्त से लाल हो जाता है आसमान

जिसके स्वाद से जवान होता है

हमारे समय का सूरज

और चमकता है माथे पर

जहाँ से टपकी पसीने की एक बूंद

जाती है मेरे नाभी तक

और विषाक्त कर देती है

मेरी समस्त कुंडलनियों को

मैं धीरे-धीरे छूटने लगता हूँ

ऐसे, कि जैसे

सूर्य के हाथ से छूट रही है पृथ्वी

सागर के एक कोने में

शाम होने को है

मैं रूठकर कितना भटकूंगा

शब्दों में

कुहरा और उदासी

पूरा दिन कुहरे से ढका हैं!

जैसे कुहरा और उदासी,

एक साथ चले हों किसी समय में!

या फिर किसी ने शरारत की होगी,

पूरी सदी के चेहरे पर

कुहरा मल दिया होगा,

और हम पहचानने लगे होंगे उदासी को !

कहने लगे होंगे कि

आज मेरा मन बहुत उदास है!

या कि आज तुम बहुत उदास लग रही हो !

क्या मेरे बारे में भी ये सच है ?

क्योंकि जहाँ से ये भाषा आ रही है,

वहाँ बहुत घना कुहरा है,

जो मेरे अन्दर तक घर कर गया है!

क्योंकि इतनी बेचैनी के बाद भी,

ये भाषा बेचैनी कि नहीं, उदासी कि है!

जबकि मुझे लगता है

उदासी कि भाषा बेचैन होनी चाहिए ,

हरकत से भरी हुई !

इलाहाबाद 

मैंने इस शहर को पहली बार
पानी के आईने में देखा
रेत के बीच
पिघलते हुए लोहे की तरह !
जैसे कुछ लोग बहुत दूर से
किसी ऊँची ढलान से
एक गहरी खाई में दस्तक दे रहें हैं !

एक पाँव पर खड़े होकर
सूर्य की पहली किरण के साथ
अर्घ का लोटा उठाये हुए
पूरी सभ्यता का भार
एक पैर पर लिए, निचोड़कर सूर्य का सारा ताप
मुझे विसर्जित कर दिया इस शहर की
ढलान से तंग गलियों के बीच !

आखिर मैं दंग हूँ
इस गहरी खाई में जहाँ इतने दरबे हैं,
जिसके मुख पर मकड़ियों ने जले बुन रखें हैं ,
हर तिराहे चोराहे पर लाल बत्ती लगा दी गई है!
जिसके जलते ही हम दुबक जाते हैं
चालीस चोरों की तरह !

हमने अपनी हर साँस रोजगार के रिक्क्त स्थानों में भरकर
लिफ़ाफ़े को चिपका दिया है !
उसके ऊपर गाँधी छाप डाक टिकट चिपका दिया है !
हमने अपने हर सपने हर जज्बात को
किताब के हर पन्ने पर अंडरलाइन कर दिया है !
लेकिन उसके भी
धीरे-धीरे पिला पड़ने ,सड़ने के अतिरिक्क्त
और कोई विकल्प सुरक्षित नहीं है !
लेकिन हमारे सपनो की नींव जहाँ पर है
वहीँ पर इतिहास का पहला प्रतिरोध दर्ज है !

लेकिन जब-जब इस दरबे से बाहर निकलने की कोशिश करता हूँ
और सोचता हूँ कि
ये खाई में पड़े हुए लोग
मेरे साथ खड़े होंगे
लेकिन तभी बजता है एक शंख
मंदिर का घड़ियाल
और लोग लेकर खड़े हो जातें हैं
लेकर मेरी अस्थियों का कलस !

शंख और घड़ियाल के बीच
मैं देखता रह जाता हूँ
दरबों में आत्म्हत्त्याओं का सिलसिला
मैं बैठ जाता हूँ और गौर करता हूँ
कि दरअसल,
जिस संस्कृति कि भट्ठी तुम
प्रयाग और कांची में बैठकर सुलगा रहे हो
उसकी आग कहीं और से नहीं
बल्कि मेरे घर के चुलल्हे से मिल रही है !

रेत हो गए लोग

एक दिन पा लेना है तुम्हें

पीपल कि कोपलों पे पड़ती

पीली धूप कि तरह !

गेंहू कि किसलाई बालियों में

दूध कि तरह!

अभी तुम मेरे लिए

मुट्ठी में बंद रेत कि तरह हो

भुरभुराती हुई !

मेरे घर से एक पकडंदी

नदी कि तरफ जाती है

वो नदी सुखी हुई है,

यहाँ सिर्फ रेत ही रेत है!

कुत्ते मरे हुए जानवरों को नोच रहे है,

बच्चे जली लाशों के राख के ढेर में

कुछ खोज रहें है

कैसा खेल खेल रहे हैं वे ?

वो दूर बबूल के ढेरों पेड़

बंजर और कटीले हो चुके हैं!

इस नदी की पंखो पे उड़ने वाली नावे

आधी रेत में धस चुकी हैं ,

और पतवार कहीं खो गई है !

लेकिन मेरी स्मृतियों में कहीं,

अभी भी

नदी का बहाव बसा हुआ है

बगदाद की तरह !

फैले पंखों पे उड़ती नावे बसी हैं

पानी पे छपकते बच्चों की तरह!

नदी तुम

हिमालय की गोंद में क्यों छुप गई हो ?

तुम्हारी गोंद में बसे लोग

रेत हो गए हैं

उन्हें पाना, तुम्हें फिर से

फिर -फिर से ,

सागर की तरफ जाते हुए

देखना है

धूमिल के लिए

कवितायें संसद के

हर बलात्कार के बाद

पैदा हुई उस संतान की तरह हैं

जिसे जिंदगी भर अपने

बाप की तलाश रहती है

और माँ को उसके

गुनाहगार की !

गोष्ठियों ,सम्मेलनों और न्यायालयों से

होती हुई जब ये कवितायें

संसद में बहस के लिए रखी जाती है

तो सारी संसद मौन हो जाती है !

वक्क्तव्यों और विचारों के धुल कचरे

झाड कर फ़ेंक दिए जाते है

दिमाग जकड जाता है

उंगलियाँ अकड़ जाती हैं

और इसीलिए कवितायें;

एक सार्थक वक्तव्य होते हुए भी

निरर्थक गवाही हैं !

धातु युग

रौंद डालते हैं तुम्हारे बमवर्षक

दुनियां की सरहदें

आसमान में तारों की जगह

टिमटिमाती रहती हैं तुम्हारे बमवर्षकों की बत्तियां !

तुम क्या समझते हो ;

क्या इस युग के सारे हथियार

सिर्फ लोहे बनाए जायेंगे ?

नहीं

ये धातु युग नहीं है

अगर कहते हो इसे ज्ञान और विज्ञान युग

तोह इस युग का हथियार

विचारों से गढ़ा जाएगा

अगर सुन सकते हो तो सुनो !

इस युग का हथियार

जो विचारों से गढ़ा जाएगा

हम गढ़ेगे

और हर चीख का हिसाब मांगेंगे

कबूलनामा

सुनो,

मैं

दुनिया की सभ्यताओं की ढूह पर

बैठा हुआ हूँ !

सुनो की

जिस ढूह पर बैठकर मैं

यह प्रस्तावना लिख रहा हूँ,

उस ढूह के निचे

न जाने कितनी माओं के होंठो पर

रक्त में सनी हुई लोरियां कैद हैं!

न जाने कितने बच्चों की

सुनी पड़ी आँखे

एक चीथड़े आँचल की तलाश में

खिलौनों और हथियारों के अंतर को पाट रही हैं!

मैं देख रहा हूँ

इसी ढूह के निचे

कितने बच्चे सुखी हुई छाती नोच रहे है

और बगल में बैठा हुआ कुत्ता

दुम हिला रहा है!

सुनो,

की मैं देख रहा हूँ की

युद्ध पर जाने के आदेश में

बैठे हुए सिपाही बारूद और गोलियां फांक रहे हैं

और सदेश लिखने के लिए

शराब की बोतलों के लेबल उतार रहे हैं!

मैं देख रहा हूँ

सात समंदर पार बैठा हुआ

एक आदमखोर

मेरे महबूब की हाथों की मेहँदी को

रामपुरी चाकू से छील रहा है

और उसके माथे के सिन्दूर का पेटेंट

मोनसेंटो ,वालमार्ट ,और यूनियन कार्बाइड को भेज रहा है!

सुनो

मगर सिर्फ ये मत समझो

की सुबह की पहली किरण के साथ

तुम्हारे घर की कुण्डी खोलने के लिए

ये किसी मुर्गे की बाग़ है

और ना ही पूरी रात आँखों में आये आंसुओं का हिसाब

ये सात समंदर पार बैठे

उस आदमखोर को

दुनिया की अदालत में

फांसी के फंदे पर लटकाए जाने से पूर्व

उसकी हलक में उंगलियाँ डालकर

पढाया जाने वाला “कबूलनामा” है !

ज्वालामुखी के मुहाने पर

गए साल की तरह आने वाले साल में भी

मृत्यु जीवन पर भारी होगी,

क्योंकि,जीवित हैं अभी दंगों के ब्यापारी

किसानो की आंत अभी गिरवी है साहूकार की दुकान पर

जिसकी रिहाई की शर्त जिस किताब में दर्ज है उसे रखना अब जुर्म है

और उधर जंगलों में छलनी है धरती का सीना

जिसे हत्यारे अपनी मुट्ठी में कैद रखना चाहते है!

जीवित हैं वे सभी जो मेरे देश को मौत का पिरामिड बनाकर

बिना सुबूत जेल में भर दे रहें हैं

इसी आने वाले समय(साल)में निमंत्रण है आप का,

रखी है चाय की केतली अभी भी

ज्वालामुखी के मुहाने पर’

बसंत आने को है..

दुनिया भर में उठ रहे

तमाम विद्रोहों के बीच

अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाते हुए

हम बैठे हुए हैं विश्वविद्यालय

की सीढियों पर

पोस्टरों के साथ !

जिनकी जबान हम बोल रहे हैं ,

जो चले आये है दुनिया भर में पसरे

लोकतंत्र के रेगिस्तान से !

जिनका कहना है कि

अब वहाँ सिर्फ कैक्टस ही उग सकते हैं

हमारी जगह अब वहाँ बाकी नहीं है !

तो हवाएं बहुत तेज़ हैं,

पत्तियां झड चुकी हैं,

और धूप सीधी आ रही है

लेकिन परछाइयों में कहीं ना कहीं

शाखों का हस्तछेप बरक़रार है

और शाख के हर कोने से

हरा विद्रोह पनप रहा है

कि बसंत आने को है!

ये कैक्टसों की दुनिया को खुलेयाम चुनौती है

कि बसंत आने को है!

कि ये आवाज़ मेरे लिए है

मैं कैसे समझूं

ये आवाज़ मेरे लिये है

जबकि एक आहत आवाज़

मेरे सामने गिरकर

छटपटाती रहती है !

मेरी आँख ,जैसे बबूल की छाल

जिसमे तैरता है

तुम्हारा चेहरा

हिलता, कोतड्डों में गुम होता हुआ

मेरा ह्रदय

जो दबा रहता है

एक पत्थर के नीचे युगों से

मुक्त होना चाहता है

एक मुल्क की तरह

संगीनो ,क्रूर आँखों

और कटीले तारों से जूझता हुआ

जिस पर एक कोयल बैठी है

वो मेरे जख्मों का गीत गाती है

सरहद के पार

और मुझे राष्ट्रगीतों की धुन पर

नाचने को कहा जाता है

रेत और रक्त से सरहदों पर

उलझा मेरा ह्रदय ,तुम्हे छूना चाहता है

एक साबुत अखंड सौंदर्य

जो अब तक कहवाघरों की

दीवारों से लड़कर लौट आती है

एक विस्थापित घूंट, जो सदियों से

गले के नीचे जा रही है

मैं वापस लौट रहा हूँ

आवाज़ और शब्दों में

प्रेम और एक मुल्क तलाशता हुआ

इसे बाँधो मत ,इसे खोल दो

जिसकी ठंडी रेत पर मैं खेलता हूँ

एक काली लंबी घनी रात है यह

जो आँखों में समाकर बंद हो जाती है

और अवाक् से होठ

एक लकीर की तरह, मेरी कहानी पर

एक टुकड़ा मुल्क रख जाते हैं

मैं तुम्हारे चेहरे पर ही विस्थापित हो जाता हूँ

उन्माद को दबाए हुए

कि कैसे समझूं ये आवाज़ मेरे लिए है

इस सुबह को गौर से देखो

देखो,

इस सुबह को गौर से देखो !

सूरज उंघते हुए

निकल रहा है कैसे

धरती की कोंख से ,

और रेंग रहा है पहाड़ों पर

आकाश की तरफ !

गौरैया कैसे हसरत भरी नज़रों से

देख रही है आकाश को,

बंद कलियों को गौर से देखो

जो बस अभी मुस्कुराने को है,

आकाश की ओर चलने को आतुर

दूबों की गोंद में खेलती

ओस की बूंदों को देखो !

उठो ,

तुम भी उसी तरह उठो

उठो कि

तुम भी उसी राह के मुसाफिर हो

तुम्हारे तकिये और गाल के बीच में

अभी भी थोड़ी सुबह बाकी है

उठो,उसी तरह उठो

सरयू नदी

मेरा समग्र अकेलापन

सरयू के तीरे

एक पत्थर में कैद है !

जिसकी आजादी की शर्त

सरयू अपने साथ समंदर में बहा ले गई

और मुझे अकेला छोड़ गई !

मैं आज भी वहीँ तीरे पर बैठा हूँ !

सरयू मेरा पांव तुम्हारे सीने मैं है,

फिर भी तुम बहे जा रही हो !

मुझे अपने सीने में लो सरयू

थोड़ी देर रुको ,सुनो सरयू

मैं वही,तुम्हारी रेत का बंजारा हूँ !

सरयू एक बार मेरे सीने में बहो

और तोड़ दो मेरी चुप्पी को !

आखिर मेरा देश मेरे लिए दर्जी क्यों है ?

उसका हर प्रश्न

एक प्रतिरोध की तरह था !

ना वो सड़क पर खड़ी थी,

और ना ही इस देश की संसद के चौराहे पर !

होस्टल के एक छोटे से कमरे में

एक-एक कपडा उतारते हुए

वो सोच रही थी, कि

आखिर इसमें ऐसा क्या है ?

कि मेरे देश का वो हर कोना

जहाँ मैं खड़ी होती हूँ

बाज़ार बन जाता है !

आखिर मेरा देश मेरे लिए दर्जी क्यों है ?

जो मुझे हर तरफ से नाप तौल लेना चाहता है !

जो हर बार नापने तौलने से पहले

मुझे बताता है कि

‘आजकल यही चल रहा है’

वो पूछती है कि,

आखिर ये चला कौन रहा है ?

और उसकी नज़र कहाँ है ?

इतने में रसोईघर में

माँ के हाथ से थाली छूट जाती है!

और हांफते हुए बोली,

इस घर में दो ही मूर्तियाँ टंगी हैं

एक सती कि, दूसरे सीता की,

जिसे तेरे पिता मंदिर की

सीढियों से उठा लाये थे !

चुप्पी की गुम्बज

ये उल्लू

जो आपकी,हमारी चुप्पी की गुम्बज पर

बैठ गया है !

उसका मुंह पश्चिम की तरफ है

और उसका पिछला हिस्सा

आपके हमारे पेट पर है !

ये जो कुछ भी वहां खाता है

उसकी विष्ठा

आपके हमारे पेट पर गिराता है!

ये जो जनतंत्र ,लोकतंत्र ,प्रजातंत्र की विष्ठा ,

को इसने हमारे पेट में रोपा और ईमान पर थोपा है,

दरअसल इसे उसने वहीँ खाया है

और इसकी विष्ठा को हमारी आत्मा पर गलाया है !

लेकिन कहीं न कहीं कुछ है,

जो इन उल्लुओं ने अपनी कोंख में दबा रखा है,

और ट्रिकल डाउन का कोहराम मचा रखा है !

मैं अक्सर इन्हें खोजता हूँ

लेकिन ये महज संयोग ही नहीं बल्कि साजिश है

कि जब यहाँ दिन होता है

तो वहां रात होती है

और हमारी हर रात लखना डंडा पटकते हुए,

चिल्लाते हुए,चरती गायों और चोरों से

सावधान करता है !

और काका खरखराती फसल के खिलाफ आग से !

बावजूद इसके

अन्न पूजन के दिन जब काका ने

गेहूं के दुद्धी दाने

गुंड और घी मलकर प्रसाद बनाया

और लक्ष्मी के सामने चढ़ाया, तो मैं देखकर दंग था

लक्ष्मी उल्लू पर सवार थी,

उसका मुंह पश्चिम की तरफ था

और काका की जिद थी,

उसका मुंह का पश्चिम की तरफ रहने दे

नहीं तो अपसगुन होगा !

कितने निराश हो तुम !

कितने निराश हो तुम !

सब कुछ जानते हुए

किस घुप्प अँधेरे में जा बैठे हो

खोखला कर देंगे वे तुम्हें

ख़तम कर देंगे वे तुम्हें!

तुम्हारा निराश होना

उनका तुम्हारे अन्दर तक काबिज हो जाना है !

बाहर निकालो इनसे

लड़ो इनसे

जो ये हवाई जहाजों के शोर से

तुम्हारे लिए दहशत गढ़ रहें हैं
,
तुम्हारी अपनी दुनियां से काट कर

एक मायावी दुनिया का भ्रम रच रहें हैं

तुम्हारी हड्डियों के सूरमे से

सभ्यता का मुखौटा तैयार कर रहे हैं !

कभी उन पीढ़ियों के बारे में सोचते हो

जो आँख खुलते ही

या तो किसी यातना गृह में में होंगी

या तो किसी भयानक पाशविक मशीन का पुर्जा

ये यातनाएं उन्हें सिर्फ इसलिए नहीं मिलेंगी

कि उनका खून गर्म या लाल था

बल्कि इसलिए कि

उनकी विकाश की परिभाषा में

उनकी हड्डियों का बुरादा

दो ईंटों के बीच गारे की तरह लगाया जाना है !

लोकतंत्र का आयत और निर्यात

जो तुम्हारे गाल पर तमाचे की तरह किया गया है !

उनके स्थापित होते ही

तुमने अपने बगदाद को घुटते हुए देखा है,

वियतनाम को सुलगते हुए देखा है !

मुझे उम्मीद है कि

बमों की थर्राहट से कांपती

धरती और ह्रदय के पच्छ में

खड़े होगे तुम !

पत्थर और सीमेंट

इन पेड़ों को ,

जकड दिया गया है

पत्थरों और सीमेंटों से

जबकी शर्तें लगीं हैं विकास की

हमारी हर जरुरत का जवाब उनके पास

पत्थर और सीमेंट हैं !

समझ नहीं पा रहा हूँ, मैंने सवाल क्या किया था ?

लेकिन हमारी हर जरूरत पर पत्थर और सीमेंट

जरुर चढ़ा दिया गया !

पत्थर हमारी सभ्यता की सबसे आदिम अवस्था हैं

तो सीमेंट उसी से पैदा की गयी वर्तमान की

लेकिन फर्क कितना है

एक पत्थर को तराश कर हमने पहिया बनाया था

और तोड़ दी, जड़ता की सारी जंजीरें

और तुमने

हमारी हर जरुरत पर बैठे हुए लोगों

तुमने उसे कूटकर सीमेंट बनाया

और चढ़ा दिया हमारी हर जरुरत पर

तो संदेह है हमें

तुम्हारे द्वारा पैदा की जा रही विकाश की हर परिभाषा पर

क्योंकि उसकी कुक्क्षी में

मैं ,मेरी पहचान और मेरी सभ्यता

विस्थापित हो रही है !

पाती

कैसे पढूं ये पाती

जो लिखी हैं पुरुवा हवाओं पर

ताज़ा और टटके जज्बात

मेरे इस शहर को शहर को बनाने तक

पड़ चुके होंगे पुराने

और मौसम बदल चूका होगा मेरे गाँव का !

सारे आंसू समां गए होंगे

चटकती हुई धरती की दरारों में

खेतों की सींचने में

शब्दों के कल्ले कैसे फूटेंगे

सूखे हुए पपडीदार होंठो पर

ऐसे में पुरुवा हवांए

पेंड़ो की पुंगियों से जमीन पर सरक जायेंगी

छोड़ देंगी तैरकर बटोरना संवेदनाओं को

ऐसे में दादी तुम और तुम

सिर्फ ईश्वर से प्रार्थना कर सकोगी

मैं जहाँ होऊं

सुखी और शांत होऊ!,

दादी

मेरी दादी की आँखों पर होता है

मोटा धुंधले शीशों वाला चश्मा

जिसकी कमानी में एक डोर बंधी है

जाती है जो पीछे की ओर

दूसरी कमानी की तरफ

और बाध देती है दादी के पुरे सर को

उसके अन्दर से पुरे घर को देखती हैं दादी की आँखे

कितनी बार कहा इस लड़के से

सूरज नारायण को उगते ही जल दे दिया कर,

अन्न छु लिया कर,

दातून कर लिया कर,

रोज़ एक ही प्लास्टिक मुह में डाल लेता है

फिर थककर कहती कि `जुग जमाना बदल गयल ह`

दादी का चश्मा

मेरी दादी के पास होती है एक छड़ी

ब्रज के बांसों वाली, खोखली नहीं

जिसके सहारे लगा आती हैं

पुरे घर का चक्कर !

देख आती है गैया को

दे आती हैं अपने हिस्से का कुछ भोजन

इसी डंडे के सहारे

जैसे हांक आती हैं आधुनिकता को

दादी कि छड़ी

मेरी दादी के पास होता है एक हुक्का

जिसपे चढ़ती है कुम्हार कि चीलम,

चूल्हे की आग,

बनिए का तम्बाकू,

और हाँ बढई का शिल्प,

घुडघुडा कर जब दादी इसे पीती थी

कितनी उर्जा मिलती थी उनको

दादी का हुक्का

दादी की मृत्तयु पर टिखटी के सिरहाने

हमने लाकर रख दिया था

दादी का चश्मा ,

दादी की छड़ी,

और दादी का हुक्का

और लेजाकर वो सब विसर्जित कर दिया

सरयू में

जिसके सहारे दादी लड़ती थी

बाज़ार और बाजारुपन से !

अँधेरे के खिलाफ

जब भी रात घनी हुई

आपनी गोंद में लिए दादी ने

अपनी किस्सों की दुनिया से

मेरी स्मृतियों के आसमान पर टाँके

चाँद ,तारे और जुगनू

खिंच डाले गुहा अन्धकार के आसमानी स्लेट पर

चान तारों के शब्द चित्र !

और माँ

जब सूरज घुलने लगता

सागर के घूँघट में !

आँगन में उतरी ताड़ की परछाई

धीरे धीरे वापस लौटने लगती,

चमकती गुलमोहर की पत्तियां

ओस के रंग की हो जाती

ऐसे में माँ

रसोईघर में दिया जलाती

आँचल का एक कोना पकड

ढांपे दिए को

आँगन पार करती

एकटक लौ की निहारती हुई

दालान के चौकठ पर रख आती !

यही मेरे प्रतिरोध की प्रेरणाए हैं

अँधेरे के खिलाफ !

कामरेड चंद्रशेखर लिए 

न तुम्हारे लिए लिखा

न तुम्हारे सिवा किसी और के लिए

भाव और भाषा के बीच

विस्तारित हो तुम

धरती और आकाश के बीच

खिली धूप की तरह

हर शब्द के लिए, आवेदन

और भाव के लिए तुम्हारी दुनिया का

एक सिरे से तुम्हें बार बार खोलता हूँ

और हर बार एहसास होता है

दुनिया के नंगेपन का

और संविधान के बांझपन का

जहाँ संशोधनों की लड़ाई

दंगो से जीती जा रही है

और बहसों की बलात्त्कार से

इस आदिम युग में

जहाँ शब्द और भाव टकरा रहें है

दुनियां में जिसका अर्थं तुम्हारी लड़ाई से खुलना है

महज एक चिंगारी की तलाश में

खोल रहा हूँ तुम्हें बार बार,

और हर बार

क्योंकि ,तुम्हारी लड़ाई से

इस दुनियां की सुबह लिखी जानी है !

अखबार 

मरोड़े गए कबूतर की तरह

फड़फड़ करता हुआ

रोशनदान से गिरता है अखबार

और अपनी आखिरी साँसे गिनने लगता है

जनता, लोकतंत्र और रोटी के साथ!

हर घर

हर सुबह

आँख खुलने से पहले ही

सैकड़ों लाशें फड़फड़आती हैं रोशनदान से

लेकिन सभी घुस नहीं पाती हैं अन्दर!

निः संतान हो चुके लोग

लाशों के ढेर में

अपनी संतानों की तलाश में हैं ,

वहीँ उन पर निग़ाह गडाए

निः संतान दम्पतियों की निराशा दूर करने वाला

कैप्सूलों का व्यापारी है !

और रक्त के धब्बे साफ करने वाला

डिटरर्जेंटों का व्यापारी है!

क्या मेरे देश में व्यापारी

राजनेता का उत्तराधिकारी है ?

इस रोशनदान से

खून ही खून टपकने लगता है

सने हुए हाथों से मैं जनता का आदमी

रोटी के साथ

लोकतंत्र का सबसे साफ हिस्सा

अपने हाथ में लेना चाहता हूँ

आखिर वो कौन सा हिस्सा होगा ?

वही, जो लाशो के इस बण्डल में

नागी जांघो,वाईनो, बोतलों, खिखियाते चेहरों

और नए जिस्मों के आवेदन के साथ

मेरी माँ ,बहन और प्रेमिका के लिए

तेब्लोयेड के नाम से अलग से बाँध दिया गया है !

खबर दर खबर पढ़ते हुए

मैं माँ ,बहन और रोटी की सुरक्षा की गारंटी की तलाश में हूँ

क्योंकि आज जब ये जनता

नारों में रोटी लटकाए

लोकतंत्र के सामने खड़ी है

तो इसके पास

चुने हुए प्रतिनिधियों के रूप में व्यापारी ,

निःसंतानों के लिए कैप्सूलों की डिस्पेंसरी ,

रक्त में सने लोगो के लिए डिटर्जेंट ,

और रोटी के लिया विज्ञापन ,

के अतिरिक्क्त देने के लिए

और कुछ नहीं है !

आनंद और जरुरत

बारिश की हल्की फुहारों के बाद

जब भी मिट्टी महकती है

बहुत याद आते है मंगरू चाचा

पगडण्डी के इस तरफ

मटर के पौधे किकोरी मारे बैठे हुए थे,

उछल कर देखने को आतुर!

और दूसरी तरफ घने बेहये के बीच से

रह-रह कर

झांक रहा था तालाब,

यहाँ से काफी दूर था उनका घर ,

लेकिन न जाने कब उनकी स्मृतियों में

बस गया था तालाब

इसी तालाब में डूबकर मरे थे !

बारिश तो कई दिनों से हो रही थी

हल्की -हल्की

व्यस्त रहते थे

चूती मड़ई की कासों को दुरुस्त करने में

मौसम की तरह चूल्हा भी ठंडा था

और उस पर चूती बूदें

अपने साथ चूल्हे को गलाए

तालाब की ओर लिए जा रही थीं

बस साथ ही गलते और बहते जा रहे थे मंगरू चाचा ,

उन्हें मिट्टी कभी नहीं महकती थी

दरअसल आनंद और जरुरत के बीच

रोटी की गहराई में

डूब गई थे मंगरू चाचा !

कितनी कोशिशों के बाद 

कितनी कोशिशों के बाद

एक निरर्थक एहसास पाले हुए

कि नहीं गढ़ सका मैं तुम्हारे लिए

शब्दों का विन्यास

अपने ह्रदय का संछिप्त इतिहास

आत्मा का एकालाप !

कभी कभी तो मन करता है

रक्त की तरह दौड़ पडू

अपने शब्दों की धमनियों में

और निचोड़ दूँ अपनी सारी अकुलाहट

कि कैसे बांधू अपनी आत्मा के एकालाप को !

हर बार और बार बार कहा गया

तुम मेरे लिए

चांदनी रात कि तरह

अँधेरे में जुगनू कि तरह

आँखों में बसे ख्वाब कि तरह

बसंत और बरसात कि तरह

हर तरह तुम मेरे लिया सब कुछ हो !

बावजूद इसके

तुम जलाई गई

छोड़ दी गई फिर भी

एक बनवास के बाद फिर-फिर से

दानवी इमारतों के जंगल में

दफन कर दी गई

घर कि काल कोठरियों में ,

और घर के सजे धजे से

मेहमान कमरे में

मैं इज्जत का लिबास ओढ़े बैठा हूँ

और सड़क पर

तेज़ाब कि बोतल लिए एक हत्त्यारा बैठा है !

ऐसे में कौन सी आड़ी तिरछी रेखा में

टांक दूं

आत्मा के एकालाप को

और कह दूं

जो सब संचित है, रक्त रंजित है

मेरे पास कोई शब्द नहीं है

विन्यास नहीं है

उपमाओं का लिबास नहीं है

मान्यताओं पे विश्वास नहीं है

तुम्हारे मेरे बीच कोई सेतु नहीं है

राम और रोटी

जबसे “राम” और रोटी का नाम

साथ में लिया जाने लगा है

न जाने क्यों ऐसा लगता है

कि चौराहे पर खड़ी

एकलव्य की मूर्ति के,

तीर के सामने

शम्बूक को खड़ा कर दिया गया है

और हिटलर

मेरे तवे पर फूलती

रोटी पर नाच रहा है !

 

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