अहल-ए-नज़र की आँख में हुस्न की आबरू नहीं
अहल-ए-नज़र की आँख में हुस्न की आबरू नहीं
यानी ये गुल है काग़ज़ी रंग है जिस में बू नहीं
दिल को न रंज दीजिए शौक़ से ज़ब्ह कीजिए
आप की तेग़ तेग़ है मेरा गुलू गुलू नहीं
दुश्मन ओ दोस्त के लिए चाहिए शुक्र-ए-तेग-ए-नाज़
कौन है क़त्ल-गाह में आज जो सुर्ख़-रू नहीं
आप से दिल लगाऊँ क्यूँ जौर ओ सितम उठाऊँ क्यूँ
अब तो सुकूँ से काम है दर्द की जुस्तुजू नहीं
बज़्म-ए-सुख़न में ऐ ‘रशीद’ नग़मे से मुझ को काम क्या
शाइर-ए-शोख़-फ़िक्र हूँ मुतरिब-ए-ख़ुश-गुलू नहीं
ऐ दिल इस का तुझे अंदाज़-ए-सुख़न याद नहीं
ऐ दिल इस का तुझे अंदाज़-ए-सुख़न याद नहीं
वो फिरी आँख वो माथे की शिकन याद नहीं
क़ैद-ए-सय्याद में जब से हूँ चमन याद नहीं
दोस्त हैं अहल-ए-क़फ़स अहल-ए-वतन याद नहीं
हिज्र में दिल के हमें दाग़-ए-कुहन याद नहीं
मुस्कुराते हुए फूलों का चमन याद नहीं
वो ख़ुनुक चांदनी रातें वो फ़ज़ा आप और मैं
और वादे वो लब-ए-गंगा-ओ-जमन याद नहीं
मैं वो ना-काम मुसाफ़िर हूँ जहाँ में जिस को
शाम-ए-ग़ुर्बत के सिवा सुब्ह-ए-वतन याद नहीं
आरजू दोस्त की बेकार है ग़ुर्बत में ‘रशीद’
आप को हालत-ए-यारान-ए-वतन याद नहीं
अल्लाह रे हौसला मिरे क़ल्ब-ए-दो-नीम का
अल्लाह रे हौसला मिरे क़ल्ब-ए-दो-नीम का
जिस ने सबक पढ़ा है अलिफ़ लाम नीम का
उट्ठा न बार जलवा-ए-ज़ात-ए-क़दमी का
इतना था जर्फ़ दावा-ए-चश्म-ए-कलीम का
बख़्शिश ख़ुदा की है तो शफ़ाअत रसूल की
रखता हूँ दरमियान करीम ओ रहीम का
आसी को अपने दामन-ए-रहमत में दी जगह
अल्लाह रे करम मिरे रब्ब-ए-करीम का
आसी सही ज़लील सही पुर-ख़ता सही
बन्दा तो है ‘रशीद’ गफ़ूरूर-रहीम का
छुट गए हम जो असीर-ए-ग़म-ए-हिज्राँ हो कर
छुट गए हम जो असीर-ए-ग़म-ए-हिज्राँ हो कर
उड़ गया रंग-ए-रूख़-ए-यार परेशाँ हो कर
कूचा-ए-यार से उट्ठे न परेशाँ हो कर
मिल गए ख़ाक में ख़ाक-ए-दर-ए-जानाँ हो कर
साथ अपने दिल-ए-बीमार को लेते जाओ
क्यूँ हों हम तुम से खज़ल तालिब-ए-दरमाँ हो कर
न गिला तुम से सितम का न वफ़ा का शिकवा
क्या करोगे मिरे अहवाल के पुरसाँ हो कर
हाल अपना जो बयाँ करता हूँ लोगों से ‘रशीद’
देखते हैं मिरी सूरत वो परेशाँ हो कर
दिल इश्क़ में उन के हारते हैं
दिल इश्क़ में उन के हारते हैं
काँधे से ये बोझ उतारते हैं
मिलता नहीं उन का कुछ ठिकाना
हर जा हम उन्हें पुकारते हैं
ले ले के किसी का नाम हर दम
हम उम्र के दिन गुज़ारते हैं
उस बिगड़े हुए का क्या ठिकाना
वो आप जिसे सँवारते हैं
होते हैं वही ‘रशीद’ मायूस
हर तरह जो जान मारते हैं
दिल की बे-इख़्तियारियाँ न गईं
दिल की बे-इख़्तियारियाँ न गईं
न गईं आह ओ ज़ारियाँ न गईं
दिन को छूटा न इंतिज़ार उन का
शब को अख़्तर-शुमारियाँ न गईं
न छुपा गिर्या-ए-शब-ए-फ़ुर्कत
रूख़ा से अश्कों की धारियाँ न गईं
आ गए वो भी वादे पर लेकिन
आह की शोला-बारियाँ न गईं
तंग आ कर वो चल दिए घर को
जब मिरी अश्क-बारियाँ न गईं
उस ने ख़त फाड़ कर कहा ये ‘रशीद’
तेरी मज़मूँ-निगारियाँ न गईं
दिल की क्या क़दर हो मेहमान कभी आए न गए
दिल की क्या क़दर हो मेहमान कभी आए न गए
इस मकाँ में तिरे पैकाँ कभी आए न गए
आप इश्क़-ए-गुल-ओ-बुलबुल की रविश क्या जानें
अन्दरून-ए-चमनिस्ताँ कभी आए न गए
हम ने घर अपना ही वहशत में बयाबाँ समझा
भूल कर सू-ए-बयाबाँ कभी आए न गए
फिर भी करते हैं बयाँ मुल्क-ए-अदम का अहवाल
जीते जी हज़रत-ए-इन्साँ कभी आए न गए
समझें वो क्या कि हैं किस हाल में आसूदा-ए-ख़ाक
जो सर-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ कभी आए न गए
रख लिया इश्क़ में अश्कों ने भरम रोने का
ये गुहर तो सर-ए-मिज़गाँ कभी आए न गए
क़द्र क्या अहल-ए-ज़माना को हमारी हो ‘रशीद’
हम कहीं बन के सुख़न-दाँ कभी आए न गए
है निहायत सख़्त शान-ए-इम्तिहान-ए-कू-ए-दोस्त
है निहायत सख़्त शान-ए-इम्तिहान-ए-कू-ए-दोस्त
ज़िंदगी से हाथ धो लें साकिनान-ए-कू-ए-दोस्त
जब नहीं पाते पता ना-वाक़िफ़ान-ए-कू-ए-दोस्त
दर्द उठ उठ के बताता है निशान-ए-कू-ए-दोस्त
तंग करते हैं हमें क्यूँ पास-बान-ए-कू-ए-दोस्त
और हैं दो-चार दिन हम मेहमान-ए-कू-ए-दोस्त
ना-तवाँ ये और मंज़िल इश्क़ की दुश्वार-तर
चलते चलते थक न जाएँ राह-रवान-ए-कू-ए-दोस्त
आरज़ू-ए-वस्ल है अब और न फ़ुर्क़त का अलम
शुक्र है आराम से हैं ख़ुफ़्तगान-ए-कू-ए-दोस्त
कौन सी जा है असीरान-ए-मोहब्बत के लिए
किस लिए जाएँ कहीं वाबस्तगान-ए-कू-ए-दोस्त
ऐ ‘रशीद’ उल्फ़त में जज़्ब-ए-दिल सलामत चाहिए
ढूँढ ही लेंगे किसी सूरत निशान-ए-कू-ए-दोस्त
हैं बे-नियाज़-ए-ख़ल्क तिरा दर है और हम
हैं बे-नियाज़-ए-ख़ल्क तिरा दर है और हम
तेरी गली है ख़ाक का बिस्तर है और हम
सजदों से रात दिन के है तौहीन-ए-बंदगी
सर तोड़ने के वास्ते पत्थर है और हम
इस ख़ौफ़ से कि पाँव न खुल जाए ग़ैर का
दिन रात कू-ए-यार का चक्कर है और हम
कैसा ख़ुलूस किस की मोहब्बत कहाँ का इश्क़
महशर में दामन-ए-बुत-ए-ख़ुद-सर है और हम
गो हर्फ़ हर्फ़ डाल दिया उन के कान में
आगे ‘रशीद’ अपना मुक़द्दर है और हम
हैं सर-निगूँ जो ताना-ए-ख़ल्क-ए-ख़ुदा से हम
हैं सर-निगूँ जो ताना-ए-ख़ल्क-ए-ख़ुदा से हम
क्या हो गए किसी की मोहब्बत में क्या से कम
अब तक कभी के मिट गए होते जफ़ा से हम
ज़िंदा हैं ऐ ‘रशीद’ किसी की दुआ से हम
याद आ गए जब अपने गले में वो दस्त-ए-नाज़
रोए लिपट लिपट के तिरे नक़्श-ए-पा से हम
बीमार-ए-दर्द-ए-हिज्र की पुर्सिश से फ़ाएदा
अच्छे हैं या बुरे हैं तुम्हारी बला से हम
पैदा हुए हैं फिर से ये समझेंगे ऐ ‘रशीद’
जीते बचे जो चारा-गरों की दवा से हम
इन हसीनों की मोहब्बत का भरोसा क्या है
इन हसीनों की मोहब्बत का भरोसा क्या है
कोई मर जाए बला से इन्हें परवा क्या है
याद आता है शब-ए-वस्ल किसी का कहना
ख़ैर है ख़ैर से इस वक़्त इरादा क्या है
वो अयादत को मिरी आएँगे ऐसे ही तो हैं
नामा-बर वाक़ई सच कहता है बकता क्या है
दुश्मन-ए-मेहर दग़ा-बाज़ सितम-ग़र क़ातिल
जानते भी हो ज़माना तुम्हें कहता क्या है
उठ गए हज़रत-ए-‘महमूद’ ज़माने से ‘रशीद’
न हो उस्ताद तो फिर लुत्फ़ ग़ज़ल का क्या है
जब नज़र उस ने मिलाई होगी
जब नज़र उस ने मिलाई होगी
लब पे आलम के दुहाई होगी
उन की बे-वजह बुराई होगी
मुँह से निकली तो पराई होगी
वो मुझ देखने आते हम-दम
तू ने कुछ बात बनाई होगी
माँगता हूँ जो दुआ-ए-वहशत
हसरत-ए-आबला-पाई होगी
इश्क़ में और दिल-ए-ज़ार की क़द्र
ज़ब्त ने बात बढ़ाई होगी
आए दिन की तो ये रंजिश ठहरी
किस तरह उन से सफ़ाई होगी
दिल ‘रशीद’ उन से लगाया भी तो क्या
न बुराई न भलाई होगी