फिर कहाँ संभव रहा अब गीत कोई गुनगुनाऊँ 

भोर की हर किरन बन कर तीर चुभती है ह्रदय में और रातें नागिनों की भांति फ़न फ़ैलाये रहतीं दोपहर ने शुष्क होठों से सदा ही स्वर चुराये फिर कहाँ संभव रहा अब गीत कोई गुनगुनाऊँ

प्रज्ज्वलित लौ दीप की झुलसा गई है पाँव मेरे होम करते आहुति में हाथ दोनों जल गये हैं मंत्र की ध्वनि पी गई है कंठ से वाणी समूची कुंड में बस धुम्र के बादल उमड़ते रह गये हैं

पायलों से तोड़ कर सम्बन्ध मैं घुँघरू अकेला ताल पर मैं, अब नहीं संभव रह है झनझनाऊँ

साथ चलने को शपथ ने पाँव जो बाँधे हुए थे चल दिये वे तोड़ कर संबंध अब विपरीत पथ पर मैं प्रतीक्षा का बुझा दीपक लिये अब तक खड़ा हूँ लौट आये रश्मि खोई एक दिन चढ़ ज्योति रथ पर

चक्रवातों के भंवर में घिर गईं धारायें सारी और है पतवार टूटी, किस तरह मैं पार जाऊँ

बँट गई है छीर होकर धज्जियों में आज झोली आस की बदरी घिरे उमड़े बरस पाती नहीं है पीपलों पर बरगदों पर बैठतीं मैनायें, बुलबु हो गई हैं मौन की प्रतिमा, तनिक गाती नहीं हैं

दूब का तिनका बना हूँ वक्त के पाँवो तले मै है नहीं क्षमता हटा कर बोझ अपना सर उठाऊँ

थक गई है यह कलम अब अश्रुओं की स्याही पीते और लिखते पीर में डूबी हुई मेरी कहानी छोड़ती है कीकरों सी उंगलियों का साथ ये भी ढूँढ़ती है वो जगह महके जहाँ पर रातरानी

झर गई जो एक सूखे फूल की पांखुर हुआ मैं है नहीं संभव हवा की रागिनी सुन मुस्कुराऊँ

यादों के दीपक 

 

सिरहाने के तकिये में जब ओस कमल की खो जाती है
राह भटक कर कोई बदली, बिस्तर की छत पर छाती है
लोरी के सुर खिड़की की चौखट के बाहर अटके रहते
और रात की ज़ुल्फ़ें काली रह रह कर बिखरा जाती हैं

तब सपने आवारा होकर अम्बर में उड़ते रहते है
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

बिम्ब उलझ कर जब संध्या में, सूरज के संग संग ढलते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

पनघट की सूनी देहरी पर जब न उतरती गागर कोई
राह ढूँढती इक पगडन्डी रह जाती है पथ में खोई
सुधियों की अमराई में जब कोई बौर नहीं आ पाती
बरगद की फ़ुनगी पर बैठी बुलबुल गीत नहीं जब गाती

और हथेली में किस्मत के लेखे जब बनते मिटते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

इतिहासों के पन्नों में से चित्र निकल जब कोई आता
रिश्तों की कोरी चूनर से जुड़ जाता है कोई नाता
पुरबाई जब सावन को ले भुजपाशों में गीत सुनाये
रजनीगन्धा की खुशबू जब दबे पाँव कमरे तक आये

और क्षितिज पर घिरे कुहासे में जब इन्द्रधनुष दिखते हैं
जाने अनजाने तब मेरी यादों के दीपक जलते हैं

इक गीत लिखूँ 

 

 

बहुत दिनों से सोच रहा हूँ कोई गीत लिखूँ
इतिहासों में मिले न जैसी, ऐसी प्रीत लिखूँ

भुजपाशों की सिहरन का हो जहाँ न कोई मानी
अधर थरथरा कर कहते हो पल पल नई कहानी
नये नये आयामों को छू लूँ मैं नूतन लिख कर
कोई रीत न हो ऐसी जो हो जानी पहचानी

जो न अभी तक बजा, आज स्वर्णिम संगीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ

प्रीत रूक्मिणी की लिख डालूँ जिसे भुलाया जग ने
लिखूँ सुदामा ने खाईं जो साथ कॄष्ण के कसमें
कालिन्दी तट कुन्ज लिखूँ, मैं लिखूँ पुन: वॄन्दावन
और आज मैं सोच रहा हूँ डूब सूर के रस में

बाल कॄष्ण के कर से बिखरा जो नवनीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ

ओढ़ चाँदनी, पुरबा मन के आँगन में लहराये
फागुन खेतों में सावन की मल्हारों को गाये
लिखूँ नये अनुराग खनकती पनघट की गागर पर
लिखूँ कि चौपालों पर बाऊल, भोपा गीत सुनाये

चातक और पपीहे का बन कर मनमीत लिखूँ
बहुत दिनों से सोच रहा हूँ मैं इक गीत लिखूँ

याद की प्रतीक्षा

 

धुंध में डूबी हुई एकाकियत बोझिल हुई है
मैं किसी की याद की पल पल प्रतीक्षा कर रहा हूँ

मानसी गहराईयों में अनगिनत हैं जाल डाले
चेतना, अवचेतना के सिन्धु भी मैने खंगाले
आईने पर जो जमी उस गर्द को कण कण बुहारा
सब हटाये गर्भ-गृह में जम गये थे जो भी जाले

तीर पर भागीरथी के, आंजुरि में नीर भर कर
जो उठाईं थीं शपथ, उनकी समीक्षा कर रहा हूँ

खोल कर बैठा पुरानी चित्र की अपनी पिटारी
हाथ में थामे हुए हूँ मैं हरी वह इक सुपारी
तोड़ने सौगंध का बाँधा हुआ हर सिलसिला जो
पीठ के पीछे उठा कर हाथ थी तुमने उछारी

कोई भी सन्मुख नहीं है पात्र, फिर भी रोज ही मैं
कल्पना की गोद में कोई सुदीक्षा भर रहा हूँ

एक चितकबरा है, दूजा इन्द्रधनु के रंग वाला
जिन परों को डायरी में है रखा मैने संभाला
है उन्हें ये आस कोई उंगलियों का स्पर्श दे दे
तो है संभव देख पायें फिर किसी दिन का उजाला

उत्तरों की माल मुझको प्रश्न से पहले मिली है
फिर न जाने किसलिये देते परीक्षा डर रहा हूँ

होली

न बजती बाँसुरी कोई न खनके पांव की पायल
न खेतों में लहरता है किसी का टेसुआ आँचल्
न कलियां हैं उमंगों की, औ खाली आज झोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को, आज होली है

हरे नीले गुलाबी कत्थई सब रंग हैं फीके
न मटकी है दही वाली न माखन के कहीं छींके
लपेटे खिन्नियों का आवरण, मिलती निबोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को आज होली है

अलावों पर नहीं भुनते चने के तोतई बूटे
सुनहरे रंग बाली के कहीं खलिहान में छूटे
न ही दरवेश ने कोई कहानी आज बोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को, आज होली है

न गेरू से रंगी पौली, न आटे से पुरा आँगन
पता भी चल नहीं पाया कि कब था आ गया फागुन
न देवर की चुहल है , न ही भाभी की ठिठोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को आज होली है

न कीकर है, न उन पर सूत बांधें उंगलियां कोई
न नौराते के पूजन को किसी ने बालियां बोईं
न अक्षत देहरी बिखरे, न चौखट पर ही रोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को, आज होली है

न ढोलक न मजीरे हैं न तालें हैं मॄदंगों की
न ही दालान से उठती कही भी थाप चंगों की
न रसिये गा रही दिखती कहीं पर कोई टोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को आज होली है

न कालिंदी की लहरें हैं न कुंजों की सघन छाया
सुनाई दे नहीं पाता किसी ने फाग हो गाया
न शिव बूटी किसी ने आज ठंडाई में घोली है
मगर फिर भी दिलासा है ये दिल को आज होली है