अभी-अभी
अभी-अभी जनमा है रवि
पूरे ब्रह्मांड में पसर रही है,
शिशु की सुनहरी किलकारी
पहाड़ों के सीने में
हो रही है गुदगुदी
पिघल रही है
जमी हुई बर्फ़…
चिड़ियाँ गा रही हैं गीत
जन्मोत्सव के
हर्षविह्वल वृक्ष
खड़े हैं मुग्ध-मौन
पुलकित पात बजा रहे हैं
सर-सर
सोने के सिक्के
लुटा रहा है आकाश…
अभी-अभी जनमा है रवि
अभी-अभी जनमा है प्रात
रात की मृत्यु के पश्चात
अभी-अभी जनमा है कवि!
वसन्त
टूटता है मौन
फूलों का
हवाओं का
सुरों का
टूटता है मौन…
टूटती है नींद
वॄक्षों की
समय के
नए बीजों की
सभी की
टूटती है नींद…
टूटती है देह मेरी
टूटता वादा
पुराना ।
घिर रही है शाम
ढल रहा है सूर्य
घिर रही है शाम
पर ठहरो
कुछ कहना है तुमसे!
बेचैन पंछी चीखते चकरा रहे हैं
धूसर आकाश में कि अब तक
घास काटने गई किशोरियाँ
नही लौटीं
मैदानों से बच्चे, ख़ानों से मजूर
समुद्रों से मछेरे नहीं लौटे
सुबह का निकला हुआ कितना कुछ
शाम तक नहीं लौटा घर!
सिहर रही हैं हवाएँ
काँप रही हैं पत्तियाँ
फूलों के जीवन पर झड़ रहा है
काला पराग!
नदियों तक जाने वाले रास्ते
और जंगलों तक जाने वाले रास्ते
समुद्रों तक जाने वाले रास्ते
और गुफ़ाओं तक जाने वाले रास्ते
सब एक से लग रहे हैं
हमारे साथ जो चल रहे हैं
वे नर हैं की नरभक्षी
कुछ नहीं सूझता!
घर और रास्ते
लोग और आवाज़ें
इतिहास और कथाएँ और स्वप्न…
सब धूसर हो रहे हैं!
धूसर हो रहा है
दुपहर-भर चांदी के महाकाय फूल-सा
खिला हुआ स्तूप!
शाम गहराएगी, होगी रात
रात चांद नहीं उगेगा
पर कोई नहीं देखेगा
कि चांद नहीं उगा है
कोई नहीं सोचेगा
कि चांद नहीं उगा है
कोई नहीं कहेगा
कि चांद नहीं उगा है!
ढल रहा है सूर्य
घिर रही है शाम
पर ठहरो
कुछ कहना है तुमसे!
सुन लो
तो जाना!
जाना खतरनाक है अन्धेरे में
लौटना तो और भी
फिर भी मैं कहता हूँ–
चीखूँ जब
अन्धकार के खिलाफ़ उठकर पुकारूँ
तो आना!
तब भी तो
तुम मेरी हो भी जाओ
तब भी तो
होंगे ये दुख और ये जुल्मोसितम
ठह-ठह हँसेगा असत्य
नाचेगी नंगी दरिन्दगी
होगी ज़माने की भूख
दर्द से फटेगा कलेजा
रात भर न आएगी नींद
आएगी शर्म अपने सोने पर
तुम मेरी हो भी जाओ
तब भी तो
आएगी शर्म अपने होने पर!
कवि
निकलता है
पानी की चिन्ता में
लौटता है लेकर समुन्दर अछोर
ठौर की तलाश में
निकलता है
लौटता है हाथों पर धारे वसुन्धरा
सब्जियाँ खरीदने
निकलता है
लौटता है लेकर भरा-पूरा चांद
अंडे लाने को
निकलता है
लौटता है कंधों पर लादे ब्रह्मांड
हत्यारी नगरी में
निकलेगा इसी तरह किसी रोज़
तो लौट नहीं पाएगा!
कैटवाक
फ़ैशन शो के
जगमग मंच से उतरकर
दबे पाँव
इच्छाओं के अन्धेरों में
टहलती हुई
बिल्लियाँ
खरहे की खाल-सी मुलायम
बाघिन के पंजों-सी क्रूर
खंजर-सी नंगी
चमकीली
हर तरफ़ अन्धेरा
हर तरफ़ बिल्लियों की
नीली-भयानक
आँखों की चमक
प्रकाश-पथ के पथिक
ठमके हुए सरेराह
उनकी राहें
काटती हुई बिल्लियाँ
महान सिंहों की नस्लें
कुत्तों के झुंड में
तब्दील होती हुईं…