मराठी औरतें
अभी भी
वैसी की वैसी ही तैयार होती हैं मराठी औरतें
जैसी हम अपनी माँ को देखा किए
अपनी बुआओं-मौसियों के साथ शादियों-उत्सवों के दरमियाँ
बातें करतीं हुईं लावणी की
मोगरे की वेणियाँ पहने बाकायदा नथ के साथ
जैसे सितारे उतरते हैं चमकते-चमकते
सपनीली रातों में पृथ्वी की नींदों के वक़्त
इन मराठी औरतों ने पहले पढ़ाई की
फिर औरों को पढ़ाया-लिखाया, सिलाई-बुनाई की साथ-साथ पशुओं की देखभाल भी
कइयों की जचकी करवाई भरी बारिशों में अन्धियारे समय में लालटेन की रोशनी में और
सलामत वापस लाईं उम्मीद से रहीं आईं औरतों को धरती पर
ऐसे कई क़िस्से थे जिन्हें बताते
टपकता था पसीना इन मराठी औरतों के माथे पर
इन मराठी औरतों के नाम कुछ भी हो सकते हैं आनन्दी बाई, मनोरमाबाई,
उमादेवी, मालती, निर्मला, सुमन, अरुन्धती या कुछ भी – कुच्छ भी
यह भी जो होंडा स्कूटर पर चली जा रही है
यह भी जो मारूति चला रही है
और वह भी जो आकाश में फ़ाइटर प्लेन पर है
और वह भी तो जो हुसैन की पेण्टिंग में गजगामिनी बने है
अब आज की कढ़ी इतनी स्वादिष्ट हो आई है
तो ज़रूर कुछ न कुछ बात है
और यह तथ्य भी क़ाबिले गौर है कि
अभी भी वैसी की वैसी ही तैयार होती हैं
ये मराठी औरतें ।
औरतों की जेब क्यों नहीं होती
यह कुसूर सिर्फ़ उनके पहनावे से जुड़ा हुआ नहीं है
न ही इतना भर कहने से काम चलने वाला कि क्योंकि वे औरतें हैं
जवाब भले दिखता किसी के पास न हो मगर
इस बारे में सोचना ज़रूरी है
जल्दी सोचो!
क्या किया जाए
दिनों-दिन बदलते ज़माने की तेज़ रफ़्तार के दौर में
जब पेन मोबाइल आई-कार्ड लाइसेंस और पर्स रखने की ज़रूरत आ पड़ी है
जब-जब रोज़मर्रा के काम निपटाने
वे घरों से बाहर निकलने लगी हैं तब
अलस्सुबह छोड़ने आती हैं बस स्टॉप पर बच्चों को
तालीम के हथियार की धार तेज़ करने के वास्ते तब
जाना चाहती हैं सजकर बाहर
संवरती हुई दुनिया को देखने के लिए तब
उम्मीद की जाती है उनसे कि
घर के तमाम कामों को समय पर समेटने के बाद भी
दिखें बाहर के मोर्चे पर भी बदस्तूर तैनात
वह भी बिना जेब में हाथ डाले
और ऐसे वक्त में भी उनसे वही पुरातन उम्मीद कि
वे खोंसे रहें चाबियां या तो कटीली कमर में
या फ़िर वक्षों के बीचों-बीच फंसाकर
निभाती चलती रहें पुरखों के जमाने से चले आ रहे जंग लगे दस्तूर
दिल पे हाथ रखो और बताओ
ऐसे में क्या यह सिर्फ़ आधुनिक दर्जियों और
जेबकतरों का दायित्व है कि वे सोचें कि
औरतों की जेब क्यों नहीं होती ?
या फिर इस बारे में
हमें भी कुछ करने की ज़रूरत है ।
जूता या क़िताब?
ब्रांडेड कंपनी का जूता या किताब!
हाँ!
अब वक़्त आ गया है जब किताबों की तुलना जूतों से करनी पड़े
हाँ!
या तो यह तुम्हारी नीयत पर सवाल उठाना है
या फिर
यह किताबों और अगली पीढ़ी पर बनते तुम्हारे दायित्व व
उसके बोध के प्रति संदेह की अभिव्यक्ति है
या तो अभी इसी वक़्त
तुम्हें किताबों से होते हुए तय की गई
अपनी समूची जीवन यात्रा के बारे में ठीक तरह से सोच लेना है
या फिर
शिखर से नीचे की ओर किताबों की सीढ़ी की ओर देखना भर है
फिर तुम्हारे ऊपर है
तुम इस सीढ़ी को लात मार दो जूता पहनकर
या सहेजे रखो कभी वक़्त ज़रुरत के लिए
क्या सोच रहे हो !
ठीक है
तुम्हारा फैसला सिर माथे पर
माना बाज़ार की चीज़ों के प्रति लालच से उबरना मुश्किल ज़रुर है
ये जगमग
ये मोहक बुलावे
तुम्हें लगता है
तुम्हारे लिए हैं
तो तुम्हारे लिए सही
अब तो
तुम्हें ही तय करना है
जूता या किताब !
चालीस के बाद दुनिया
आप जीवन पर नियंत्रण करना सीख लेते हैं
चालीस की उम्र के पार जाकर
आपको लगता है
चालीस के पड़ाव को पार करके कि
एक सही शख़्स की आपकी तलाश भले ही पूरी न हो सकी हो
मगर ग़लत लोगों की पहचान करने के औज़ार तो आपने तराश ही लिए हैं
चालीस की उम्र ही वह मील का पत्थर होता है
जहाँ किसी के लिए
खुद अपने आपको साबित करने के लिए
वक़्त और ऊर्जा ज़ाया नहीं करना पड़ती और
इस सफर में खाई गई ठोकरें आपके लिए नसीहतें होती हैं
जो काम आती हैं उस वक़्त
जब आप अपनी नई मंज़िल के दौरों के लिए
निकल पड़ने को होते हैं
कई ऐसे अवसरों को
आप नज़रअंदाज़ करना सीख जाते हैं
चालीस पार के बाद
जिनके बारे में आप जान चुकते हैं कि वे कुल मिलाकर फिजूल के हैं
चालीस के बाद ही आप ऊपर हो चुके होते हैं
चेहरे के मोह के पाश से और
अपने अक्स के टूटने से तब आपको बिल्कुल भी दर्द नहीं होता
क्योंकि आप जानते हैं
यह बिखरना आपको अपने आप से
जोड़े रखने के काम आया है और
अब आप खुद को मांजना सीख गए हैं
चालीस की उम्र के बाद
आपको लगता है
आपकी नज़र में
एक नज़रिया शामिल हो चुका है और
अब आप दुनिया को
पहले से बेहतर देख सकते हैं ।
गालियों के आड़े आती थी तख्त की दीवार
गालियों के न होने से
पलट सकता था तख्त
गालियों के होने से
बचा रहा तख्त पलट सकने से
गालियाँ निकलते ही
खाली हो जाता था
भीतर का गुस्सा
गालियाँ भीतर भरी रहने से
अनमना रहता था मन
जैसे रोके रखा गया हो
ज्वालामुखी को मुहाने पर
बाहर निकलते ही गालियाँ
चुनावी इश्तहारों की दीवार से टकराकर बिखर जाती थीं
सत्ता
दीवार की मरम्मत का
बराबर ध्यान रखती
कामना करती कि बनी रहे दीवार
गालियों के होने तक
यह गालियों की ताकत का अहसास था
जो दरअसल तख्त को ही मालूम था ।
जिसे तुम शोर कहते हो
रात के इस नीरव सन्नाटे को
कोई मूर्तिकार तोड़ रहा है
अपने छेनी-हथौड़े से और
तुम कहते हो
तुम्हारी नींद में ख़लल है यह !
ठठेरे की यह ठक्-ठक्
भोजन पकाने के बर्तन के पेंदे को
एकदम सही गोलाकार देने के लिए है और
तुम कहते हो
तुम्हारी एकाग्रता में बाधक है यह !
तुम्हे तो तकलीफ
तॉलस्ताय की कलम से लिखे जाते वक़्त
होने वाली आवाज़ से भी थी और
विंची की कूची के चलने से भी और
ग़ालिब के शे`रों की साफ आवाज़ भी
तुमसे कहाँ बर्दाश्त होती थी !
अंधे घड़़ीसाज हानूश़ की घड़ियों की
उसी टन्-टन् से
तुम्हे शिकायत रही
जिसे सुनकर तुम उठते रहे रोज
बड़ी अजीब बात है
यह सब जानते हुए भी
तुम जिन आवाज़ों को
अब भी़ शोर कह रहे हो
वे दरअसल प्रसव पीड़ा की कराहें हैं
एकदम नैसर्गिक
ऐसी ही आवाज़ों में से
निकलती है एक नई आवाज़ ।
सच्चाई
सच्चाई इतनी साफ और निष्कपट होती है कि
उसे पहचानना ज़रा भी मुश्किल नहीं होता
बयाँ किए जा रहे किसी किस्से के दरमियाँ
कई बार अतिशयोक्ति मिश्रित बातों में से भी
हम सच्चाई को चीन्ह ही लेते हैं बड़बोलों की बातों में से
भीड़ को संबोधि्त
वक्तव्यो-वाक्यों में घुली-मिली सच्चाई की पहचान
हमें सबसे आसान लगती है और
उतनी ही मुश्किल होती है
जब चावल में कंकड़ के बराबर
झूठ को ढूंढ निकालने के लिए
हमें सच्चाई के तमाम दानों को चुनना पड़ता है कई बार
सच्चाई
स्त्री का वेश धरकर पृथ्वी पर उतरी थी
गुज़री जब पुरुष के करीब से,
देखा
तब तक वह आध सच ही पहचानता था
सवारी करता फिरता था आधे झूठ की
झूठ का पुलिंदा पीठ पर लादे हुए
जिसके बिना सरक जाती
उसके पांवों के नीचे की ज़मीन
और देखा
उसके कुल अपराधों का वज़न
उसके कद के बराबर के
पुरुषों के वज़न के ठीक बराबर मालूम होता था
और देखा
पुरुष को कड़वे स्वाद की पहचान ही नहीं थी
बगीचे के तमाम फलों को चखने के बावजू़द
सच्ची औरत ने यह सब देखकर
तहस-नहस कर दिया
फलों-फूलों के रंग-बिरंगे गुच्छों को
और कहा : मैं आई हूँ
मुझे पहचानो / जानो / समझो
रहा पुरुष स्त्री के साथ
सूरज के उगने से ढलने तक
और फिर रहा भोर होते तक भी
और फिर
सुनाया उसने फरमान सच्चाई को भाँपते हुए …
पुरुष ने क्या कहा, क्या आप बता सकते हैं !
गोपनीय चीज़ों को छुपाने के स्थानों की रहस्यात्मकता
यह अपने-आप में एक रहस्य है कि
जितनी बार गोपनीय चीज़ों को रखा जाता है
अलग-अलग जगहें बदल-बदलकर
सबकी नज़रों से परे
उतनी ही बार हमें खटका लगा रहता है
कहीं किसी को पता न पड़ जाए और
हम भी इतने मासूम कि बदलते चलते हैं उनके स्थान
नित नए निरापद स्थानों की तलाश में
एक छोटे से घर के ही भीतर
शक़-शुबहे से घिरे रातभर
हर सुबह उठते ही टटोलते हैं
उन रहस्यमय स्थानों पर चीज़ों को
जैसे रात में मारी न गई हो सेंध
घर के ही किसी अपने द्वारा
ये कैसा रहस्य है गोपनीय चीज़ों के साथ कि
उनके लिए घर तो घर
पूरी पृथ्वी पर भी कोई छोटा सा भी स्थान नहीं सुरक्षित
जो सिर्फ हमारी और उसकी जानकारी में हो
जिसके लिए बनी है वह गोपनीय चीज़
दिल की धुकधुकी बढ़ जाती है जब बातचीत में आता है
गोपनीय चीज़ को रखे जाने के पड़ोस के स्थान का नाम और
लगता है बातचीत में ही न पहुँच जाए बात करने वाला
उस स्थान तक और
उसी समय हम तय कर लेते हैं कि
फिर बदल दिया जाए वह रहस्यमय स्थान
जितनी जल्दी हो सके
व्यग्रता और संशय से भरी एक दुनिया
हम रच लेते हैं अपने लिए
जब भी रखते हैं कहीं किसी ख़ास जगह पर
वह गोपनीय चीज़
जिसका पता सिर्फ हमें ही है ऐसा हम सोचते हैं
वे चीज़ें आकार में अक्सर सूक्ष्म होती हैं मगर वे
हमारी यादों के ग्लोब पर छाई होती हैं
और अकेले में फेरते हुए उन पर हाथ
हम दुलारते हैं अपनी उन भावनाओं को
जिससे वे चीज़ें जुड़ी हुई होती हैं
यह एक अनसुलझा रहस्य है कि
गोपनीय चीज़ों के भीतर का गुरुत्वाकर्षण
क्यों ऐसा होता है कि
हम चाहते हैं वे बनी हैं सिर्फ हमारे ही लिए और
उन्हें किसी के साथ बांटना कभी भी संभव नहीं
होगी वह चीज़
कोई एक बहुत पुराना ख़त जीर्ण-शीर्ण हालत में
या कान के ऐसे बुंदे जिनकी चमक धुंधला गई हो
या कोई एक हाथ घड़ी
जिसमें ठहरा हुआ दिखाई देता हो वह सुवर्ण समय
या निब वाला कोई एक पेन जिसका चलन अब बंद हो गया हो
या कोई एक सफेद रुमाल
जिस पर रंगीन रेशमी धागे से उकेरा गया हो सहेजने वाले का नाम
जो तब्दील हो गया हो अब ब्लैक एंड व्हाइट छाते में
या कोई एक लाल डायरी जिसमें लिखे गए हों किसी के सबसे पसंदीदा शेश्र
या ऐसा कुछ जिसकी कीमत आंकना संभव ही न हो
या ऐसी तमाम दुर्लभ चीज़ों में से कोई एक वह चीज़
जिसे बना दिया हो हमने गोपनीय और सर्वथा निजी
जिसे महफूज़ रखने के लिए बन गए हों हम मुहाफिज़
तलाशते हुए कोई एक छोटा सा स्थान
जिसकी रहस्यात्मकता के चलते
बदलनी पड़ीं जगहें कई बार ।
सवाल करो
सवाल करो खड़े होकर
अगर चीज़ें तुम्हें समझ नहीं आतीं
अगर तुम्हारे पास
वे चीज़ें नहीं हैं जो दूसरों के पास हैं तो सवाल करो
सवाल करो
अगर तुम्हें शिक्षा सवाल करना नहीं सिखाती
अगर उत्तरों से और सवाल पैदा नहीं होते तो सवाल करो
सवाल करो
अगर तुम्हारे होने की महत्ता को स्वीकारा नहीं गया
अगर तुम अपने-आप के होने को
अब तक साबित नहीं कर पाए हो तो सवाल करो
सवाल करो
और जानो-समझो ऐसा क्यों है ?
ऐसा कौन चाहता है कि सवाल ही पैदा न हों !
ऐसा होने से वाकई किसका बिगड़ता है और
किसका क्या बनता है ?
इस बारे में सबसे सवाल करो
इस शोर भरे समय की चुप्पी तोड़ना चाहते हो तो
सवाल ज़रुर करो ।
आधुनिक श्रमिक
कम्प्यूटर
चाय पीने नहीं जाता
छुट्टी नहीं करता
हड़ताल नहीं करता
सवाल नहीं करता
बहस नहीं करता
चुपचाप काम करता है
विरोध नहीं करता
यह सब सोचकर
कम्प्यूटर के सामने बैठा आदमी
कुछ विचार करता है
कम्प्यूटर के बारे में
फिर लौटता है
आदमी के ही पास
एक भयावह मौन से घबराकर
काम के बाद ।