उठे बादल, झुके बादल
उधर उस नीम की कलगी पकड़ने को
झुके बादल।
नयी रंगत सुहानी चढ़ रही है
सब के माथे पर।
उड़े बगुल, चले सारस,
हरस छाया किसानों में।
बरस भर की नयी उम्मीद
छायी है बरसने के तरानों में।
बरस जा रे, बरस जा ओ नयी दुनिया के
सुख सम्बल।
पड़े हैं खेत छाती चीर कर
नाले-नदी सूने।
बिलखते दादुरों के साथ सूखे झाड़
रूखे झाड़।
हवा बेजान होकर सिर पटकती
रो रही सरसर।
जमीं की धूल है बदहोश
भूली आज अपना घर।
किलकता आ, बरसता आ,
हमारी ओ खुशी बेकल।
उधर वह आम का झुरमुट
नहीं हैं पास में पनवट।
किलकती कोकिला, बेमान हो कर देखती जब
चाँद मुखड़े पर घटा-सी छा गयी है लट।
खड़ी हैं सिर लिये गागर
तुम्हारी इन्तजारी में
दरद करती कमर, दिल काँपता है
बेकरारी में।
जहाँ की बादशाही भी जहाँ पर
सिर झुकाती है
उन्हीं कोमल किशोरी का
दुखा कर दिल
कभी रस ले सकोगे क्या अरे बेदिल?
उठे बादल, झुके बादल।
एक भावना
इस पुरानी जिन्दगी की जेल में
जन्म लेता है नया मन।
मुक्त नीलाकाश की लम्बी भुजाएँ
हैं समेटे कोटि युग से सूर्य, शशि, नीहारिका के ज्योति-तन।
यह दुखी संसृति हमारी,
स्वप्न की सुन्दर पिटारी
भी इसी को बाहुओं में आत्म-विस्मृत, सुप्त निज में ही
सिमट लिपटी हुई है।
किन्तु मन ब्रह्माण्ड इससे भी बड़ा है
जो कि जीवन कोठरी में जन्म लेता है नया बन
आज इस ब्रह्माण्ड में ही उठ रहा है
प्रेरणा का जन्म जीवन-भरा स्पन्दन-भरा
आषाढ़ का सुख-पूर्ण धन।
रुग्ण जन-जन,
युद्ध-पथ पर लड़खड़ाता हाँफता
हर चरण पर भीति से बिजली सरीखा काँपता
तोड़ने को आतुर हुआ यह क्षुद्र बन्धन
आँज कर पीले नयन में ज्योति का धुँधला सपन।
जल रहीं प्राचीनताएँ बाँध छाती पर मरण का एक क्षण।
इस अँधेरे की पुरानी ओढ़नी को बेध कर
आ रही ऊपर नये युग की किरण।
एक मित्र से
वस्तुतः हम मित्र हैं।
और कुछ होना असम्भव
क्योंकि हम इस सृष्टि की उद्भावना के
नित अधूरे ज्वाल में लिपटे
मिलन की माँग करते
दो दिशाओं में लटकते चित्र हैं।
हट गया पर्दा न जाने कौन पल में :
एक मणि जो मृदु किरण के बन्धनों में
बाँध कर हम को कहीं दुबकी पड़ी थी
हो गयी प्रत्यक्ष।
और उसकी प्राप्ति भी अब हो गयी है लक्ष्य
जो कभी हम को मिला दे।
मैं इसी आलोक में से
दूर के गिरि-गह्वरों में घूम कर जाती हुई दुर्गम
डगर पर देखता हूँ।
सोचता हूँ तुम इसी आलोक की उज्ज्वल लकीरों के
सहारे यदि चली आओ
मिलें हम फिर, चलें आगे जिधर जाना हमें।
यह हमारा लक्ष्य मणि विधुकान्त है
जो वयस की चन्द्र किरणों में पिघलता।
झर रहा अमृत कि जिस में हम नहा कर
आज कर लें कल्प मन का।
आज अमृत की नयी मन्दाकिनी आ कर
हमारे द्वार पर
तुम से मुझे, मुझ से तुम्हें आबद्ध करती।
हम नहा लें आज इस में
आज घर आया हमारे यह नया पावित्र्य है।
मित्र, हम-तुम मित्र हैं।
विश्व के आदर्श की छोटी भुजाएँ
यह हमारे स्वप्न का ब्रह्माण्ड इस में
किस तरह सिकुड़े-समाये?
इस लिए आओ बदल लें राह अपनी
चल नयी पगडण्डियों पर
हम नया आदर्श पायें।
यह हमारा पथ छिदा है कण्टकों से
झर चुकीं निर्गन्ध सूखी पंखुड़ियाँ बनफूल की।
दूसरे पथ पर पड़ी हैं हड्डियाँ
फैला हुआ भोले जनों का रक्त
द्रौपदी-सी चीखती हैं नारियाँ निर्वस्त्र
जिन के चीर दुःशासन कहीं पर
फेंक आया खींच कर।
मूक शिशुओं के अधर की प्राणदा पय-धार
नभ का चाँद बन कर हो गयी है दूर।
देखती जिन को सरल मृदु स्वच्छ आँखें
उँगलियाँ मुड़तीं पकड़ने
उस गगन के चाँद को।
ले रहा करवट नयी हर बार जीवन
किन्तु तीखा तीर जो उस के हृदय में आ लगा है।
और पीड़ा में नहीं कुछ भान
कौन-सा है मोड़ पथ में कुछ न इस का ध्यान
हम इसी पथ पर चलें
संसार का दुःख दर्द धो दें।
इस हमारी मित्रता के दीप को, एक अभिनव ज्योति
किरनों से सँजो दें।
सोचता हूँ तुम सजीवन
चेतनामय प्राण से सींची हुई
नव रम्यता के पल्लवों के भार से झुकती हुई
नववल्लरी हो।
और जिसके स्वप्न के सुन्दर सुमन खिल कर निकटतर
झुक रहे मेरे अधर के।
जिन की रम्यता मुस्कान बन बिखरी हुई है।
यह पुरानी बात है
युग-युग पुरानी।
किन्तु आओ, इस पुरानी बात से हम भी नया
आदर्श पायें।
क्योंकि इस में सब नये मन को मिला तब रूप
सब को यह दिखी बन कर नयी अपनी कहानी।
पास आओ, हम इसी से
आज अपना अर्थ पायें।
तोड़ कर सब आड़
हम तुम पास आयें
क्योंकि हम तो मित्र हैं।
मित्र, आओ, अब नया आलोक दें इस दीप को।
यह हमारा आत्मज नैकट्य का सुख
साथ हम को देखने का हठ लिये है,
साथ चल कर हम इसी की चाह पूरी आज कर दें।
जन समुन्दर के किनारे की समय की बालुओं पर
हम युगल पद-चिह्न अपने भी बना दें।
और हम तुम एक होकर
कोटि जन की सिन्धु लहरों में मिला दें
आप अपनापन।
हम खड़े हो कर बुभुक्षित फौज में
निज मोरचे पर
सामने के शत्रु दुर्गों के –
क्योंकि पहले तोड़ना है दुर्ग
जिस की गोद में बन्दी हमारी चाहना है।
ग्रन्थि
लिख दिया तुम्हारा भाग्य समय ने
उसी पुरानी कलम पुराने शब्द-अर्थ से।
उसी पुराने हास-रुदन, जीवन-बंधन में,
उन्हीं पुराने केयूरों में
बँधा हुआ है नया स्वस्थ मन
नयी उमंगें, नव आशाएँ
नये स्नेह, उल्लास सृष्टि के संवेदन के।
उन्हीं जीर्ण-जर्जर वस्त्रों में नये आप को ढाँक न पाती।
तुम अभिनव विंशति शताब्दि की
जागृत नारी
जिस की साड़ी के अंचल में
बँधा हुआ है वही पुराना पाप-पंक
अविजेय पुरुष का।
नव जीवन के भिनसारे में
इस मैली सज्जा में तुमको
हुई नयी अनुभूति जगत की।
बड़े वेग से आज समय की नदी गिर रही
नव जीवन की आग तिर रही।
तुम इस में हो स्वयं समर्पित बही जा रही।
मैं नवीन आलोक बँधा हूँ तुम से
उसी पुरानी क्षुद्र गाँठ में
जीवन का सन्देश, भार बन इस यात्रा का।
नशीला चाँद
नशीला चाँद आता है।
नयापन रूप पाता है।
सवेरे को छिपाती रात अंचल में,
झलकती ज्योति निशि के नैन के जल में
मगर फिर भी उजेला छिप ना पाता है –
बिखर कर फैल जाता है।
तुम्हारे साथ हम भी लूट लें ये रूप के गजरे
किरण के फूल से गूँथे यहाँ पर आज जो बिखरे।
इन्हीं में आज धरती का सरल मन खिलखिलाता है।
छिपे क्यों हो इधर आओ।
भला क्या बात छिपने की?
नहीं फिर मिल सकेगी यह
नशीली रात मिलने की।
सुनो कोई हमारी बात को गर सुनाता है।
मिला कर गीत की कड़ियाँ हमारे मन मिलाता है।
नशीला चाँद आता है।
नेहरूजी के प्रति
क्षुब्ध वसुधा।
लू बवण्डर
पीत पर्णों के विकट तूफान छाये हैं
गगन से वसुन्धरा तक।
घूमती सूखी, दुखी, भूखी, भयानक आँधियाँ
उजड़े हुए उद्यान, सुखमय झोंपड़े,
कुटिया महल के शीश पर।
फट गयी छाती, दरारें पड़ गयीं है
उर्वरा शस्या धरा के वक्ष पर
कण्टकों की भीड़,
लम्बे चीड़ तक के नीड़ सब खाली पड़े हैं।
गिर गये पक्षी सुनहली पाँख वाले
आज असमय की भयानक ऊष्ण भापों ने
झुलस उन का दिया तन
भुन गया जीवन सदा को।
आज केवल एक तू ही छा रहा सूखे गगन में
श्याम घन।
कोटि मानव की दुखी आँखें लगीं तुझ पर
उतर बेखौफ नीचे
निज हृदय की स्नेह-गरिमा बिन्दु को बरसा यहाँ
कर रहा जो भार तन-मन पर वहन
दृढ़ लगन से तू रहा उस को सँभाल।
अब न बनना मोम का पर्वत
न दबना भार से।
क्योंकि तेरी छाँह में
मासूम औ’ सुकुमार बच्चे
स्नेह-ममता-मूर्ति माँ-बहनें वतन की
ले रही हैं निज पनाह
है जिन्हें विश्वास का उल्लास जीवन-शक्तिदाता
देख तेरे देश के सिर पर खड़ा ऊँचा हिमालय
जो अभी तक है अजेय।
प्रति निमिष नित हिम प्रभंजन
क्रुद्ध साँपों से विकट फूत्कार करते
तिलमिलाते क्रोध से
पथ में मिला सब कुछ चबाते
भीति छाते।
किन्तु उस ने की कभी परवाह उन की?
वह सभी का क्रोध
तम-सा कन्दरा में मूँद कर निश्चिन्त सोता।
तू स्वयं निज देश की शुभ भावना का है
हिमालय।
आज तेरा देश तेरे हाथ की तलवार है
तू उसे जग शान्ति हित कर में उठा।
आज तेरे देश की मजलूम जनता की
सबल हुंकार नभ से सात पर्दों पार तक
टंकार लेगी।
हे मनुज के त्राण तेरा स्वागतम्
स्वागतम् शत स्वागतम्!
मुक्ति के आभास
क्षिति दिगंचल चूमता आकाश,
दिशि-विदिशि की प्राण-धारा चेतना की मुरलिका से
शून्य वन गुंजित, नया रव आज भव में भर चला।
उठ रहे श्रावण घटा से प्रिय-मिलन क्षण
जगमगाते हर निमिष में मुक्ति के आभास
ज्योति अब लेने लगी है जागरण की साँस।
एक-दो नक्षत्र रह-रह
सो रहे अपनी व्यथा कह।
घुल रहा तम
दूर गुम-सुम प्राण तुम।
अधजगी-सी भैरवी स्वर भर रही हो
और भिनसारा पुलक कर बाँटता है प्यास।
मुक्ति में जीवन नहा कर
हर दिशा में फेंकता है
नव-सृजन के फूल भर-भर।
और टूटे कर बढ़ा कर झेलते खँडहर
अजानी आस।
बाल पाँखी तोड़ पिंजर
खोजने निज जीर्ण कोटर
वायुमण्डल चीरता उड़ जा रहा है ले नया विश्वास।
सृष्टि के सौन्दर्य से सज्जित नया आकाश।
वर्षा के बाद
पहली असाढ़ की सन्ध्या में नीलांजन बादल बरस गये।
फट गया गगन में नील मेघ
पय की गगरी ज्यों फूट गयी
बौछार ज्योति की बरस गयी
झर गयी बेल से किरन जुही
मधुमयी चाँदनी फैल गयी किरनों के सागर बिखर गये।
आधे नभ में आषाढ़ मेघ
मद मन्थर गति से रहा उतर
आधे नभ में है चाँद खड़ा
मधु हास धरा पर रहा बिखर
पुलकाकुल धरती नमित-नयन, नयनों में बाँधे स्वप्न नये।
हर पत्ते पर है बूँद नयी
हर बूँद लिये प्रतिबिम्ब नया
प्रतिबिम्ब तुम्हारे अन्तर का
अंकुर के उर में उतर गया
भर गयी स्नेह की मधु गगरी, गगरी के बादल बिखर गये।
शरणार्थी
रात-दिन, बारिश, नमी, गर्मी
सबेरा-साँझ
सूरज-चाँद-तारे
अजनबी-सब
हम पड़े हैं आँख मूँदे, कान खोले।
मृत्यु पंखों की विकट आवाज सुन कर
कौन बोले?
इस लिए सब मौन हैं।
ये हमारी आँख के पर्दे लदे हैं
रुण्ड-मुण्डों के भयानक चित्र से।
चीख और पुकार, हाहाकार
बेघर-बार जन-जन के रुदन के स्वर भरे हैं कान में।
धूम के बादल, लपट की बिजलियाँ घिर रही हैं प्राण में।
कौन जाने यह हुआ क्या?
और क्या होना अभी है?
सब तरफ विध्वंस की बर्छी उठी है
लक्ष्य जिस का है हमारी जिन्दगी की चाह।
आज हम को है मिला क्या ज्ञान का पहला उजाला?
या बुझे ये दीप तन के?
और हम सब मर, नरक-वासी हुए।
ये सभी हैं चित्र उस के ही कि जिन का दृश्य था
आँका हुआ इस भाग्य-पत्थर पर हमारे।
दूर तक तम्बू तने हैं।
खेलते बाहर
कटे कर-नाक, टूटी टाँग वाले
दीन बच्चे, बाँध उजली पट्टियाँ
हम पड़े हैं तम्बुओं में
गिन रहे हैं कल्पना के फूल की पँखुरी।
खून में भीगे हुए परिधान अपने
खा रहे हैं धूप उस मैदान में।
याद आता घर
गली, चौपाल, कुत्ते, मेमने, मुर्गे, कबूतर
नीम-तरु पर
सूख कर लटकी हुई कड़वी तुरई की बेल।
टूटा चौंतरा
उखड़े ईंट पत्थर।
बेधुली पोशाक पहले गाँव के भगवान
मन्दिर।
मूर्ति बन कर याद की
घर लौटने की लालसा मन में जगाते।
गिर रही चारों तरफ हमदर्दियों की फुलझड़ी।
पूछता प्रत्येक जन
निर्लज्जता की वह कहानी
जो हमारे वास्ते हो गयी फुड़िया पुरानी
दर्द से भरपूर।
युद्ध की वार्ता सदा होती मनोहर
पर हमें भी चाहिए अब पेट भर कर अन्न।
शक्ति को उत्पन्न करने के लिए औजार
कण्टकों को काटने के वास्ते हथियार।
ओ दया के दूत हम को दो फकत दो-चार गेंती औं’ कुदाली।
हम हमारी इस नयी, माँ-सी धरा के वक्ष में से
खोद कच्ची धातु अपने श्रेय के सिक्के बना लें।
इस नये आकाश जल औ’ वायु के आधार पर
फिर से सृजन के बीज डालें।
सुख-संगीत की लहरें बहा लें।
दो हमें विश्वास अपने बाहुबल का
हम तभी आगे बढ़ा हैवानियत की राख को
सात सागर पार डालें
हम हमेशा बन्दियों के वस्त्र सी यह शरण की
‘याचना सज्जा’ पहन
जीते नहीं रह पायेंगे।
शिशिरान्त
हो चुका हेमन्त
अब शिशिरान्त भी नजदीक है।
पात पीले गिर चुके तरु के तले
आज ये संक्रान्ति के दिन भी चले।
नाश का घनघोर नक्कारा
सुबह के आगमन को गूँज दे कर
डूबता जाता विगत के गर्भ में।
भागता पतझार अपनी ध्वंस की गठरी समेटे।
पुष्प ग्रीवा में नवोदित सूर्य की सुन्दर किरण ने
डाल दी है बाँह अपनी
दूर के भटके हुए दो प्राण-तन
आज फिर से मिल रहे हैं हँस-हँस गले।
दिग-दिगन्तों में वसन्ती का आवरण प्रसरित हुआ
छू लिया चैतन्य ने प्रत्येक कण।
जागता जन में अडिग विश्वास
सुख आभास भरता रंग की रेखा
किरण जैसे नये घन में अनोखे रंग भरती।
ज्यों अषाढ़ी मेघ की बौछार
सूखी, चिर-तृषा-विह्वल धरा को
सजल कर सौरभ पिलाती
आज ऐसे ही किया स्वीकार
जग ने प्यार जन का।
अर्थ जीवन को मिला फिर
काम के क्षण मिल गये।
ओ जगत के दीन जन
अपने अडिग विश्वास का सूरज प्रकाशित हो गया
अब शिथिलता को विदा दो
जा चुके क्षण अब विवश आराम के।
साफ कर लो
द्वार, घर, गलियाँ नगर की ग्राम की।
खेत का, खलियान का कचरा समेटो
अब नयी सुन्दर फसल के बीच के अंकुर निकलना चाहते हैं
तोड़ दो यह बाँध
जिस को बाँध कर
रोक दी है धार की गति।
और जिसके तट अँधेरे में मनुज का
रात भर शैतान अपने जाल में करता रहा संहार।
वह महामानव हमारा इस बँधे जल के कहीं
तल में प्रगति की राह पाने खो गया है।
दे चुके हम मूल्य भारी, इस भयानक भूल का।
इसलिए रोको न तुम अब यह प्रवाहित वेग –
मत करो गन्दी अरे जन-जाह्ववी पोखर बना कर।
तुम उसे फिर से सृजन की राह पर लाओ
भगीरथ!
लक्ष्य तक फैली डगर के कण्टकों के डंक तोड़ो
कन्दरा के गर्भ में व्याकुल बिलखता है तुम्हारा विश्व
तुम इसे विश्वास दो
इन्सानियत की ज्योति दो।
अब उठो, कन्धे मिला कर
फिर नया जीवन बसाओ
दिग-दिगन्तों में वसन्ती वायु का परिधान फैला।
गल चुके सब शीत के उत्तुंग भूधर।
फिर नयी यात्रा करो आरम्भ, अब शिशिरान्त भी
नजदीक है।