है इख़्तियार में तेरे तो ये मोजेज़ा कर दे
है इख़्तियार में तेरे तो मोजेज़ा कर दे
वो शख़्स मेरा नहीं है उसे मेरा कर दे
ये रेत्ज़ार कहीं ख़त्म ही नहीं होता
ज़रा सी दूर तो रस्ता हरा भरा कर दे
मैं उस के जौर को देखूँ वो मेरा सब्र-ओ-सुकूँ
मुझे चराग़ बना दे उसे हवा कर दे
अकेली शाम बहुत जी उदास करती है
किसी को भेज कोई मेरा हमनवा कर दे
कभी ग़ुंचा कभी शोला कभी शबनम की तरह
कभी ग़ुंचा कभी शोला कभी शबनम की तरह
लोग मिलते हैं बदलते हुए मौसम की तरह
मेरे महबूब मेरे प्यार को इल्ज़ाम न दे
हिज्र में ईद मनाई है मोहर्रम की तरह
मैं ने ख़ुशबू की तरह तुझ को किया है महसूस
दिल ने छेड़ा है तेरी याद को शबनम की तरह
कैसे हम्दर्द हो तुम कैसी मसिहाई है
दिल पे नश्तर भी लगाते हो तो मरहम की तरह
कोई दोस्त है न रक़ीब है
कोई दोस्त है न रक़ीब है
तेरा शहर कितना अजीब है
वो जो इश्क़ था वो जुनून था
ये जो हिज्र है ये नसीब है
यहाँ किस का चेहरा पढ़ा करूँ
यहाँ कौन इतना क़रीब है
मैं किसे कहूँ मेरे साथ चल
यहाँ सब के सर पे सलीब है
मंज़िल न दे चराग़ न दे हौसला तो दे
मंज़िल न दे चराग़ न दे हौसला तो दे
तिनके का ही सही तू मगर आसरा तो दे
मैं ने ये कब कहा के मेरे हक़ में हो जवाब
लेकिन ख़ामोश क्यूँ है तू कोई फ़ैसला तो दे
बरसों मैं तेरे नाम पे खाता रहा फ़रेब
मेरे ख़ुदा कहाँ है तू अपना पता तो दे
बेशक मेरे नसीब पे रख अपना इख़्तियार
लेकिन मेरे नसीब में क्या है बता तो दे
मुझ से वाक़िफ़ तो मेरे जिस्म का साया भी न था
मुझ से वाक़िफ़ तो मेरे जिस्म का साया भी न था
कैसे हो जाता तुम्हारा मैं ख़ुद अपना भी न था
जितना मायूस है वो शख़्स बिछड़ कर मुझ से
इतनी शिद्दत से तो मैं ने उसे चाहा भी न था
जैसे इल्ज़ाम लगाये हैं मेरे सर उस ने
ऐसी नज़रों से तो मैं ने उसे देखा भी न था
मेरी आवाज़ का ग़म शहर ने जाना क्योंकर
मैं तो उस भीड़ में ख़ामोश था बोला भी न था