गीत न गाते क्या करते
पलकों के तट बंध तोड़ जब दरिया बहने वाला था।
ऐसी हालत में बतलाओं गीत न गाते, क्या करते?
सपनों की ईंटें चुन चुन कर
नींदों के मजदूर थके।
आंसू भीतर बहे कि सारी
दीवारों का जोड़ पके।
प्राणों की कीमत पर अपना घर जब ढहने वाला था।
ऐसी हालत में बतलाओं गीत न गाते, क्या करते?
ओ ! चाहत के शीर्ष तुम्हारी
राह तकी सौ योजन तक।
पीर सही खुश होकर मन ने
सम्मोहन से मोचन तक।
शंका की उस अग्निशिखा में मन जब दहने वाला था।
ऐसी हालत में बतलाओं गीत न गाते, क्या करते?
उत्तर की अभिलाषाओं में
सारे प्रश्न उपासे हैं।
दिन की आंखें हुई उनींदी
रात के नैन रूआंसे हैं।
तुमने चेहरा फेर लिया जब मैं कुछ कहने वाला था।
ऐसी हालत में बतलाओं गीत न गाते, क्या करते?
मेरा मोल लगाने वाले
मिटटी का बर्तन हूं नश्वर, बिकने को आया हूं लेकिन
मेरा मोल लगाने वाले
मेरा अंतिम मूल्य प्रेम है, मेरी इच्छा रतन नहीं है।
मेरे निर्माता ने मुझकों
कुछ ज्यादा ही ताप दिया है
वरदानों के योग्य हो सकूं
इसीलिए यह शाप दिया है
अहोभाग्य मेरा कि तुम्हारे मन को मैं भाया हूं लेकिन
मुझ में विचरण करने वाले
हाँ ! मुझमें उपवन ठहरा है लेकिन इसमें सुमन नहीं है।
उसका हर उपचार सरल है
जिसकों तड़पाया शूलों ने
लेकिन उसको कौन बचाएं
जिसकों पीड़ा दी फूलों ने
देव पीठिका की किस्मत मैं लिखवा तो लाया हूँ लेकिन
मुझ पर पुष्प चढाने वाले
इस आसन पर राधा ही है बांए कोई किशन नहीं है।
याचक बनकर कितना जी ले
लेकिन ऊपर नहीं उगेगा
बीज वही धरती चीरेगा
नीर धूप जो स्वयं चुगेगा
सिद्ध हुआ हूं तपकर सच है देता भी छाया हूं लेकिन
थक कर ऐ सुस्ताने वाले
साथ रहो तो छांव यही है मेरा कोई भवन नहीं है।
हम और तुम
हम हतभागी
उस पीपल से जिसका जीवन वन में छूटा।
हम चिंकारे
उस मरूथल के जिसमें छलका दर्शन झूठा।
हम दुखियारे
पांव सदी के जिसमें छाले पड़े हुए हैं।
हम दरवाजे
उस मंदिर के जिस पर ताले जड़े हुए हैं।
और तुम ………….
तुम होली का
रंग गुलाबी हर कपोल की मनोकामना।
तुम शिव शंकर
कैलाशी की सिद्धिदायिनी पूर्ण साधना।
तुम थे जिसके
आगे सारे बिम्ब जगत के हार गए हैं।
तुम थे जिसकों
गाकर मेरे गीत स्वर्ग के द्वार गए हैं।
याद जैसलमेर तेरी
स्वर्णनगरी ! चार सालों का सफर मैं छोड़ आया
किंतु तुम बिन दृश्य कोई है नहीं मन में समाया
स्वर्ण सी आभा निराली स्वर्ण सा मन स्वर्ण सा तन
संग तेरे प्रेम की गठरी मेरा सबसे बड़ा धन
याद की चिड़िया सवेरे शाम गाती गीत तेरे
गुनगुनाते चहचहाते शब्द रहते चित्त घेरे
छोड़ती पल भर नहीं बैठी पकड़ मुंडेर मेरी
याद जैसलमेर तेरी !
देव-लिछमोनाथ को करना नमन सौ बार मेरा
और पटवों की हवेली का लगाना एक फेरा
दुर्ग की प्राचीर पर टीका लगाना श्याम रंगी
अस्त होता रवि सजेगा सम-धरा पर बन कलंगी
कुलधरा-सा खंडहर तुम बिन हुआ है गांव मन का
झील गड़सीसर किनारे स्वप्न फिर सजता नयन का
सृष्टि के हर रत्न से अनमोल मुझको रेत-ढेरी
याद जैसलमेर तेरी !
मन नहीं था, जानते हो ! था मगर जाना जरूरी
जानते हो यूं ठहर होती नहीं है साध पूरी
फिर कभी मिट्टी तुम्हारी चूम पाउंगा दुलारे
याद आते है मुझे सोने सरीखे सब नजारे
स्वर्णनगरी ! गीत में पाती तुम्हें लिखता रहूंगा
भावनाएं जो उठेंगी सब तुम्हें आगे कहूंगा
तुम बुलाओगे तो आने में लगाऊंगा न देरी
याद जैसलमेर तेरी !
रूप की साक्षात् प्रतिमा
रूप की साक्षात प्रतिमा देख सम्मुख चाहतों के,
मौन है संदर्भ सारे अर्थ खाली हो गए हैं।
मोह वश होकर नयन
हर ओर ढूंढे एक चेहरा
हाय जादू दो नयन का
है उतरता और गहरा
इक नजर यूं फेरने से सृष्टि के सारे नजारें
चेतना पाकर स्वयं ही इंद्रजाली हो गए हैं।
रात का उपवन हमेशा
चुप्पियों के शोर में था
फूल लेकिन इक निरंतर
फैलने के जोर में था
गंधवाही ! तुम चले आए कृपा है स्वप्न सारे
फूल-फलकर केवड़े की एक डाली हो गए हैं।
कौन सुख था जो रहा वंचित
अभी तक इस हृदय से
किंतु तुमने तार छेड़े
प्रेम के यूं राग लय से
हो गए बौने सभी सुख देखकर तुमकों हमारे
मोह सारे बुद्ध बनकर आम्रपाली हो गए हैं।
मन का रत्नाकर डाकू
मन का रत्नाकर डाकू जब सच के नारद के सम्मुख था
पापों की गठरी का हमनें कोई भागीदार न पाया।
लेकर इच्छाओं का फरसा
काटे थे सब अधे पके फल।
जिद ऐसी की पूरी दुनिया
कदमों में झुक जाएगी कल।
अनगिन स्वप्न मुंड गिरते थे नजरों के सम्मुख घिर घिर कर
जब तक दुख के वन में हमने सच का पारावार न पाया।
घर के पांचों सदस्य धन के
हर हिस्से को भोगा करते।
कहते थे तू भी मत डरना
हम भी नहीं किसी से डरते।
इस बहलावे में आकर हर झूठा सच्चा काम किया था
लेकिन पांचों में से कोई दुख से मुझे उबार न पाया।
सच से साक्षात्कार हुआ तो
अपने सारे झूठे दीखे।
कल तक की मीठी तानों में
आज सुनाई पड़ती चीखें।
तृष्णाओं के वश वनवासी होकर बीहड़ – बीहड़ डोले
जब तक मन ने सच से पावन
मैं एकांकी दुखान्तिका हूं
कथा, कथानक, पात्र सभी है लेकिन इतना अंतर है।
मैं एकांकी दुखान्तिका हूं तुम सुखमयी कहानी हो।
जीवन की वीणा की तारे
आपस में उलझाई है।
एक तुम्हारे दम पर हमने
उलझ उलझ सुलझाई है।
लेकिन इतना भाग्य नहीं था
इक दूजे के हो पाते,
हो जाता गर इतना तो फिर
हम भी सुख से सो पाते।
मैं जाड़े का पाला हूं तुम पुरवा पवन सुहानी हो।
मैं एकांकी दुखान्तिका हूं तुम सुखमयी कहानी हो।
लहरों से लड़कर साहिल तक
आ भी जाते मीत मगर।
हाथ तुम्हारे बढ भी जाते
प्रिये हमारी ओर अगर।
तुम साहिल पर खड़ी रही पर
हमको पार उतरना था,
इतनी सी थी बात कि तुमको
जीना हमको मरना था।
मैं भोली इक चालाकी हूं तुम सोची नादानी हो।
मैं एकांकी दुखान्तिका हूं तुम सुखमयी कहानी हो।
रामायाण का भार न पाया।
कर दिया घर में उजाला
फैलता था हर घड़ी साम्राज्य दुख का घोर काला।
चंद्रिका बन कर तुम्हीं ने कर दिया घर में उजाला।
यूं हमारे पास तम का
तोड़ भी कुछ कम नहीं था।
किंतु दुख है जुगनुओं के
बाजुओं में दम नहीं था।
तुम चले आए अधर पर स्वर सजाकर रोशनी के,
और हंसकर डाल दी फिर वैजयन्ती गीत-माला।
मुस्कुराहट जिंदगी में
आंसुओं पर तंज होती।
तुम न होते तो हमारी
जिंदगी शतरंज होती।
भाग्य की आराधना थी पूर्णता की ओर उन्मुख,
इसलिए खुद साधना ने पक्ष में सिक्का उछाला।
इक लड़की
फूलों सी मुस्कानों वाली डिम्पल थे गालों में।
इक लड़की भायी थी हमकों बचपन के सालों में।
चेहरे पर गहरा पाउडर
काजल कारा कारा,
उस चेहरे पर क्यों न आए
फिर ये दिल बेचारा।
दो चोटी बनवाकर उस पर
रिबन लगाकर आती,
इस छोटे से दिल में भारी
अगन लगाकर जाती।
दिल की धड़कन उठती गिरती हिरणी सी चालों में
इक लड़की भायी थी हमको बचपन के सालों में।
चलने फिरने हंसने रोने
और उसके गाने में,
डांट डपट थप्पड़ गुस्से में
और मीठे ताने में।
देख उसें आंखों के संग में
जाता था मन भी तर,
सारे अच्छे गुण गहरे थे
उस रूपा के भीतर।
देख के उसकों हाथ फिराते थे सर के बालों में
इक लड़की भायी थी हमकों बचपन के सालों में।
‘‘खैर नहीं होगी तेरी जो
बात नहीं गर माना,
और परीक्षा में दो घंटी
बजने पर आ जाना।
ए बी सी डी वाले उत्तर
गिनती से कह दूंगी,
मेरी मदद नहीं की तो फिर
कभी नहीं बोलूंगी।‘‘
यह सब करते करते चर्चा फैली चौपालों में
इक लड़की भायी थी हमकों बचपन के सालों में।
चोरी-चोरी पढते पढते
उस पर नजर गिराते,
देख हमें जो लेती तो मुंह
दूजी ओर फिराते।
भोले भोले रहते थे
उसकी आंखों के आगे,
वरना इतने जालिम थे के
भूत स्वयं ही भागे।
हाय मुहब्बत ! उलझ गए हम तेरे जंजालों में
इक लड़की भायी क्या हमकों बचपन के सालों में।
यादें शेष विशेष रही हैं
हैं गीतों के गुंजन,
इतना अच्छा हुआ कि पाया
कविताओं का कुंदन।
दिन लिखने में बीत रहे है
और रातें पढ़ने में,
जीवन के सिरहाने ठहरे
कुछ किस्से गढ़ने में।
अब सपनों की नाव बहाते आंखों के नालों में
इक लड़की भायी थी हमकों बचपन के सालों में
एक दिन तुमसे मिलेगा
एक दिन तुमसे मिलेगा बावरा मन
आस का दीपक जलाना छोड़ना मत।
क्या मिला है एक दूजे से बिछुड़कर,
दर्द का दामन पकड़कर जी रहे हम।
हंस रहे संसार के सम्मुख निरन्तर,
किंतु भीतर आंसुओं को पी रहे हम।
एक मनका प्यार का फिर कह रहा है,
प्रेम का धागा कभी भी तोड़ना मत।
पढ अगर पाते नयन के शुभ्र अक्षर,
साधना यह सिद्ध हो जाती कभी की।
और अर्चन की ऋचा भी अर्थ पाकर,
जिन्दगी का सार हो पाती कभी की।
फिर नयन को सूचना है इक नयन की,
पृष्ठ लोचन ग्रंथ का तुम मोड़ना मत।
हो गए है दूर पर इतना समय है,
लौटकर फिर जी सकें जीवन पुराना।
आज को इतना बुरा मत जान लेना,
कल इन्हीं बातों पे होगा मुस्कुराना।
वक्त अपनी आंच में पक्का करेगा,
जानकर कच्चे घड़ें तुम फोड़ना मत।
एक दिन तुमसे मिलेगा बावरा मन
आस का दीपक जलाना छोड़ना मत।
बादलों ने आसमां में मंत्र फूंका
बादलों ने आसमां में मंत्र फूंका
बूंद अमृत की बरसती जा रही है।
तप रही है यह धरा भी साधना में
दुख निवारण श्लोक जपती है निरंतर।
प्यास वृक्षों की नया विस्तार पाकर
नील नभ की ओर तकती है निरंतर।
आगमन का पत्र शायद मिल गया है
मन मयूरी नृत्य करती जा रही है।
खत्म होता जा रहा वनवास अपना
कोंपलों का भाग्य फिर से लौटता है।
ज्यों कि हर अभिशप्त मन जीवन सफर में
हर घड़ी पूजित चरण को खोजता है।
बढ रही है आस इक नूतन जनम की
दूरियां ज्यों ही सिमटती जा रही है।
बादलों ने आसमां में मंत्र फूंका
बूंद अमृत की बरसती जा रही है।
उपन्यास पढ़ते पढ़ते
तपती दोपहरी से चलते पग ठिठके इक शाम पर
उपन्यास पढते पढते हम ठहरे ऐसे नाम पर।
नाम कि जिसके उच्चारण में
वीणा के स्वर बहते थे
नाम कि जिसके वर्ण वर्ण में
प्राण हमारे रहते थे
नाम कि जो अंबर धरती को
हमसे जोड़े रखता था
नाम कि जिसको जीवन का हम
सत्य आखिरी कहते थे
नाम वही जो चला गया है हाथ पराया थामकर
उपन्यास पढते पढते हम ठहरे ऐसे नाम पर।
कितने आंसू रखने पड़ते
आंखों के तहखाने में
कितनी धूप सहन करते है
दो बादल बरसाने में
हर इक मुखड़े में अंतस की
आह ढूंढनी पड़ती है
तब जाकर हंसता आता है
कोई गीत जमाने में
जिसके गीत उकेरे है हिंदी के अक्षरधाम पर
उपन्यास पढते
तुमकों टूटकर चाहें
छोड़कर जिन्दगी को जाएं तो कहां जाएं?
हमारी नियति है कि तुमकों टूटकर चाहें।
सीप सी आंख में ठहरे हुए सपने के लिए,
टूटकर ऐसे कि जैसे कोई टूटे तारा।
यह जमीं छोड़के मीठा कोई बादल बनकर
ज्यों कि अंबर को चूम लेता है सागर खारा।
ऐसे निखरें कि फिर से टुकड़े जुड़ नहीं पाएं
हमारी नियति है कि तुमकों टूटकर चाहें।
हमारी राह में मुश्किल भी स्वस्ति गान करे
तुम कलावे का कोई भाग्यशाली धागा हो।
रूप को कहते है दुनिया में अगर सोना तो
मेरे ऐ ! प्यार तुम उस सोने पे सुहागा हो।
तुमने गाया कि हमें हम भी तो तुमको गाएं
हमारी नियति है कि तुमकों टूटकर चाहें।
प्यार कहते उसे जो दिल के उजले कपड़ों पर
रेशमी धागों से टांकी हुई तुरपाई है।
चंद सांसें पढ़ी तो हमने इतना जाना है
जिंदगी मौत के रोगी की एक दवाई है।
जिंदा रहना है बोलो क्यों न दवाई खाएं
हमारी नियति है कि तुमकों टूटकर चाहें।
पढते हम ठहरे ऐसे नाम पर।