चांदनी
चांदी की झीनी चादर सी
फैली है वन पर चांदनी
चांदी का झूठा पानी है
यह माह पूस की चांदनी
खेतों पर ओस-भरा कुहरा
कुहरे पर भीगी चांदनी
आँखों के बादल से आँसू
हँसती है उन पर चांदनी
दुख की दुनिया पर बुनती है
माया के सपने चांदनी
मीठी मुसकान बिछाती है
भीगी पलकों पर चांदनी
लोहे की हथकड़ियों-सा दुख
सपनों सी मीठी चांदनी
लोहे से दुख को काटे क्या
सपनों-सी मीठी चांदनी
यह चांद चुरा कर लाया है
सूरज से अपनी चांदनी
सूरज निकला अब चांद कहाँ
छिप गई लाज से चांदनी
दुख और कर्म का यह जीवन
वह चार दिनों की चांदनी
यह कर्म सूर्य की ज्योति अमर
वाह अंधकार की चांदनी
परिणति
दुख की प्रत्येक अनुभूति में
बोध करता हूँ कहीं आत्मा है
मूल से सिहरती प्रगाढ़ अनुभूति में
आत्मा की ज्योति में
शून्य है न जाने कहाँ छिपा हुआ
गहन से गहनतर
दुख की सतत अनुभूति में
बोध करता हूँ एक महत्तर आत्मा है
निबिड़ता शून्य की विकास पाती उसी भांति,—
सक्रिय अनंत जलराशि से
कटते हों कूल ज्यों समुद्र के
एक दिन गहनतम इसी अनुभूति में
महत्तम आत्मा की ज्योति यह
विकसित हो पाएगी घिर प
केरल
एक घनी हरियाली का सा सागर
उमड़ पड़ा है केरल की धरती पर
तरु पातों में खोए से हैं निर्झर
सुन पड़ता है केवल उनका मृदु स्वर
इस सागर पर उतरा वर्षा का दल
पर्वत शिखरों पर अँधियारे बादल
हरियाली से घनी नीलिमा मिलकर
सिन्धु राग-सी छाई है केरल पर
घनी घूम की गुंजें शिखर शिखर पर
झूम रहा हो मानो उन्मद कुंजर
ऐसे ही होंगे दुर्गम कदलीवन
कविता में पढ़ते हैं जिनका वर्णन
सीमा तज कर एक हो गए सरि सर
बाँहें फैलाए आता है सागर
कल्पवृक्ष हैं यहीं, यहीं नंदन वन
नहीं किंतु सुर सुंदरियों का नर्तन
घनी जटाएँ कूट कूट कर बट कर
पेट पालते है ज्यों त्यों कर श्रमकर
यही वृक्ष है निर्धन जनता का धन
अर्धनग्न फिर भी नर नारी के तन
जिन हाथों ने काट काट कर पर्वत
यहाँ बनाया है दुर्गम वन में पथ
कब तक नंदन में श्रमफल से वंचित
औरों की संपदा करेंगे संचित
अर्ध मातृ सत्ताक व्यवस्था तज कर
नई शक्ति से जागे है नारी नर
लहराता है हरियाली का सागर
फिर सावन छाया है इस धरती पर
रिणति महाशून्य में।
सिलहार
पूरी हुई कटाई, अब खलिहान में,
पीपल के नीचे है राशि सुची हुई,
दानों-भरी पकी बालों वाले बड़े
पूलों पर पूलों के लगे अरम्भ हैं ।
बिगही-बरहे दीख पड़े अब खेत में,
छोटे-छोटे ठूँठ-ठूँठ ही रह गये ।
अभी दुपहरी में पर, जब आकाश को
चाँदी का सा पात किये, है तप रहा,
छोटा-सा सूरज सिर पर बैसाख का,
काले धब्बों-से बिखरे वे खेत में
फटे अँगोछों में, बच्चे भी साथ ले,
ध्यान लगा सीला चमार हैं बीनते,
खेत कटाई की मजदूरी, इन्हीं ने
जोता बोया सींचा भी था खेत को ।
शारदीया
सोना ही सोना छाया आकाश में,
पश्चिम में सोने का सूरज डूबता,
पका रंग कंचन जैसे ताया हुआ,
भरे ज्वार के भुट्टे पक कर झुक गये ।
“गला-गला” कर हाँक रही गुफना लिये,
दाने चुगती हुईं गलरियों को खड़ी,
सोने से भी निखरा जिस का रंग है,
भरी जवानी जिस की पक कर झुक गयी ।
दिवा-स्वप्न
वर्षा से धुल कर निखर उठा नीला-नीला
फिर हरे-हरे खेतों पर छाया आसमान,
उजली कुँआर की धूप अकेली पड़ी हार में,
लौटे इस बेला सब अपने घर किसान ।
पागुर करती छाहीं में, कुछ गम्भीर अध-खुली आँखों से,
बैठी गायें करती विचार,
सूनेपन का मधु-गीत आम की डाली में,
गाती जातीं भिन्न कर ममाखियाँ लगातार ।
भरे रहे मकाई ज्वार बाजरे के दाने,
चुगती चिड़ियाँ पेड़ों पर बैठीं झूल-झूल,
पीले कनेर के फूल सुनहले फूले पीले,
लाल-लाल झाड़ी कनेर की, लाल फूल ।
बिकसी फूटें, पकती कचेलियाँ बेलों में,
ढो ले आती ठंडी बयार सोंधी सुगन्ध,
अन्तस्तल में फिर पैठ खोलती मनोभवन के,
वर्ष-वर्ष से सुधि के भूले द्वार बन्द ।
तब वर्षों के उस पार दीखता, खेल रहा वह,
खेल-खेल में मिटा चुका है जिसे काल,
बीते वर्षों का मैं, जिसको है ढँके हुए
गाढ़े वर्षों की छायाओं का तन्तु-जाल ।
देखती उसे तब अपलक आँखें, रह जाती
तैर रहे बादल
तैर रहे हैं
ललछौंहे आकाश में
सिंगाल मछलियों-से
सुरमई बादल
खिल उठा
अचानक
विंध्या की डाल पर
अनार-पुष्प-सा
नारंगी सूर्य
मंडराने लगी
झूमती फुनगियों पर
धूप की
असंख्य तितलियाँ
उतर रही है
उतावले डग भरती
नर्मदा घाटी में
बारिश की
चुलबुली सुब
नीलाभ झील पर
दूर ऽऽ
लकदक पहाड़ियों से घिरी
नीलाभ झील पर
पसरा है
मुलायम सन्नाटा
स्पन्दित कर दिया
अचानक
उसका रोम-रोम
रिमझिम फुहारों ने
ऎसे में
लगती है कितनी सुहानी
झील की
थरथराती साँव
अल्हड़ फुहारें
मेले के लिए
सतरंगे परिधानों से सजी-सँवरी
अल्हड़ फुहारें
जोहती हैं बेकली से बाट
जाने कब जुतेंगी
निगोड़ी
ये हवाओं की बैलगाड़ियाँ ।
ली देह ।
ह ।
कवि
वह सहज विलम्बित मंथर गति जिसको निहार
गजराज लाज से राह छोड़ दे एक बार,
काले लहराते बाल देव-सा तन विशाल,
आर्यों का गर्वोन्नत प्रशस्त, अविनीत भाल,
झंकृत करती थी जिसकी वीणा में अमोल,
शारदा सरस वीणा के सार्थक सधे बोल,-
कुछ काम न आया वह कवित्व, आर्यत्व आज,
संध्या की वेला शिथिल हो गए सभी साज।
पथ में अब वन्य जन्तुओं का रोदन कराल।
एकाकीपन के साथी हैं केवल श्रृगाल।
अब कहाँ यक्ष से कवि-कुल-गुरु का ठाट-बाट ?
अर्पित है कवि चरणों में किसका राजपाट ?
उन स्वर्ण-खचित प्रासादों में किसका विलास ?
कवि के अन्त:पुर में किस श्यामा का निवास?
पैरों में कठिन बिवाई कटती नहीं डगर,
आँखों में आँसू, दुख से खुलते नहीं अधर !
खो गया कहीं सूने नभ में वह अरुण राग,
धूसर संध्या में कवि उदास है वीतराग !
अब वन्य-जन्तुओं का पथ में रोदन कराल ।
एकाकीपन के साथी हैं केवल श्रृगाल ।
अज्ञान-निशा का बीत चुका है अंधकार,
खिल उठा गगन में अरुण-ज्योति का सहस्नार ।
किरणों ने नभ में जीवन के लिख दिए लेख,
गाते हैं वन के विहग-ज्योति का गीत एक ।
फिर क्यों पथ में संध्या की छाया उदास ?
क्यों सहस्नार का मुरझाया नभ में प्रकाश ?
किरणों ने पहनाया था जिसको मुकुट एक,
माथे पर वहीं लिखे हैं दुख के अमिट लेख।
अब वन्य जन्तुओं का पथ में रोदन कराल ।
एकाकीपन के साथी हैं, केवल श्रृगाल।
इन वन्य-जन्तुओं से मनुष्य फिर भी महान्,
तू क्षुद्र-मरण से जीवन को ही श्रेष्ठ मान।
‘रावण-महिमा-श्यामा-विभावरी-अन्धकार’-
छँट गया तीक्ष्ण-बाणों से वह भी तम अपार।
अब बीती बहुत रही थोड़ी, मत हो निराश
छाया-सी संध्या का यद्यपि धूसर प्रकाश।
उस वज्र-हृदय से फिर भी तू साहस बटोर,
कर दिए विफल जिसने प्रहार विधि के कठोर।
क्या कर लेगा मानव का यह रोदन कराल ?
रोने दे यदि रोते हैं वन-पथ में श्रृगाल।
कट गई डगर जीवन की, थोड़ी रही और,
इन वन में कुश-कंटक, सोने को नहीं ठौर।
क्षत चरण न विचलित हों, मुँह से निकले न आह,
थक कर मत गिर पडऩा, ओ साथी बीच राह।
यह कहे न कोई-जीर्ण हो गया जब शरीर,
विचलित हो गया हृदय भी पीड़ा अधीर।
पथ में उन अमिट रक्त-चिह्नों की रहे शान,
मर मिटने को आते हैं पीछे नौजवान।
इन सब में जहाँ अशुभ ये रोते हैं श्रृगाल।
निर्मित होगी जन-सत्ता की नगरी विशाल।