धनकटनी
दुपहरिया अगहन की
शीतल मन्द तपन की ।
लेती मीठी झपकी,
पुरबइया की सनकी !
ऊबड़-खाबड़
खेतों की छाती पर
विपुल शालि-दल
स्वप्नों से भर अंचल
कंगालों के सम्बल
राशि-राशि फल
झुक-झुक पड़ते बोझल
संजीरा, गज केशर
मन सरिया, दुध काँड़र
बाँस बरेली, कान्हर
तुलसी फूल मनोहर
सबुजे, गेहुँए, साँवर
रूप धौर, चित कावर
वर्ण, गन्ध मधु अक्षर
पलकों में मृदु भर-भर
रंग-रंग के सुन्दर
जिन पर जीवन निर्भर
जिनसे तृप्ति निरन्तर
नवोल्लसित भूतल पर
ऊर्वर
लहराते रह-रहकर ।
दुपहरिया अगहन की
शीतल हरिचन्दन की ।
आते झोंके थम-थम,
धनखेतों से गम-गम !
मूढ़, असभ्य, उपेक्षित
पीड़ित, शोषित, लुण्ठित
बहरे, गूँगे, लँगड़े
बच्चे, बुड्ढे, तगड़े
ओढ़े जर्जर चिथड़े
तूल जलद-से उमड़े
मरभूखे दल-के-दल
पके शस्य-फल
शाद्वल-शाद्वल
काट रहे लो, चर-चर
हँसिया से छप, छप, छप !
देखो, अन्ध विवर को
चूहे के उस घर को
मुसहर के दो बच्चे
कोमल वय के कच्चे
कद के छोटे-छोटे
मांसल, मोटे-मोटे
नटखट, भोले-भाले
मैले, काले-काले
भगवे पहने ढीले
काजर-से कजरी ले
कोड़-कोड़ खुरपी से
पूँछ पकड़ फुर्ती से
पटक-पटक ढेले पर
मृत चूहे से लेकर
बाँध लिए पछुवे में
भगवे के ढकुवे में
खुरच-खुरच अन्दर से
चुनते तंग विवर से
विस्फारित अधकुतरे
मटमैले, धनकतरे
चूहे का रमसालन
नमकीला, मन भावन
और, मजे की निखरी
पके धान की खिचरी
मालिक की धनकटनी
खूब उड़ेगी चटनी
कूड़े करकट संकुल
बिल के कुतरे तंडुल
गन्दे, उञ्छ, अपावन
उदर-पूर्ति के साधन
अखिल धान के अम्बर
प्रियतर, शुचितर, सुखकर
हहर-हहरकर
कटते छप-छप
हँसिया से चर-चर-चर !
दुपहरिया अगहन की
शीतल मन्द तपन की l
लेती मीठी झपकी,
पुरबइया की सनकी !
(रचनाकाल — जनवरी, 1912)
बज उठती वीणा
रह-रह कर बज उठती वीणा अन्तर की,
जा रही सधी सीमा में पंचम स्वर की ।
आवरण पड़ा हट गया ज्ञान-दर्शन पर,
खिंच गई रश्मि-रेखा-सी भीतर-बाहर ।
भर मन-अम्बर रंगों के घन से घुमड़ा,
सागर ही जैसे हृदयराग का उमड़ा ।
उठ रही भैरवी की मरोर अनजानी,
हिय में गहरे घावों की पीर पुरानी ।
बन गई वेदना आँखों में अंजन-सी,
गीतों के गुंजन में नव अभिव्यंजन-सी ।
संगीत उतर आया क्षर में, अक्षर में,
सब एक हो गए स्वर के लहर-भँवर में
(रचनाकाल — सितम्बर, 1976)
डाक्टर के प्रति
तुम सर्वभूतहित की इच्छा के कीर्ति-स्तूप,
परिवर्त्तनीय विज्ञान-शक्ति के शिव स्वरूप ।
तुम चिन्ताकुल म्रियमाण प्राण के संजीवन,
पीड़ित जन-मन के नींद मधुर, चिर अवलम्बन ।
तुम शीतल छाया-वट-से दुख हरने आए,
ले धन्वन्तरि से अमृत-कलश जग में आए ।
अति पाशवीय पर आज तुम्हारा दृष्टिकोण,
भौतिक मानों से मर्यादित हैं, श्रेय जो न ।
दे नहीं सके तुम दिनों को अमरत्व-दान
कर सके नहीं मिट्टी के पुतले प्राणवान ।
है विभवहीन के लिए न तेरा खुला द्वार,
तुम विभववान श्रीमानों के ही प्रति उदार ।
क्यूँ नहीं हुआ स्वल्पत्व तुम्हारा मूल मन्त्र ?
बहुलत्व तुम्हारे जीवन का ही नीति-तन्त्र ।
तुम पर्णकुटीचर नहीं, महल तेरा निवास,
जो जन-मन का आतंक खड़ा गर्वित सहास ।
तुम श्वान डुलाते पुच्छ, जहाँ धन सौध धाम !
निर्धन के राम मँडइयों से क्या तुम्हें काम ?
तुम बने चिकित्सक, क्षुधा-काम से हो पीड़ित,
तुम बने चिकित्सक, धन-तृष्णा से हो मोहित ।
तुम नहीं चिकित्सक, सहज भाव से उत्प्रेरित,
तुम नहीं चिकित्सक, सेवा-व्रत से प्रोत्साहित ।
हो ध्येय तुम्हारा गंगा-जल-सा चिर पावन,
जो कामद, रविकर आलोकित कृति का कारण ।
जो त्याग, दया, परदुखकातरता से मण्डित,
पर गर्हित पद-पद कुत्सित पशुता से वंचित ।
(रचनाकाल — मार्च, 1945)
वटगमनी
जनमल लौंग दुपत भेल सजनि गे
फर फूल लुबधल जाय
साजी भरि-भरि लोढ़ल सजनि गे
सेजहीं दे छिरिआय
फुलुक गमक पहुँ जागल सजनि गे
छाड़ि चलल परदेश
बारह बरिस पर आयल सजनि गे
ककवा लय सन्देश
ताहीं सें लट झारल सजनि गे
रचि-रचि कयल शृंगार
हे सखी, लौंग के बीज अंकुरित हुए, और उसमें दो पत्ते उग आए ।
काल पाकर वह फल-फूल से लद गया ।
तब मैंने डाली भर-भर कर उसके फूल इकट्ठे किए और फिर उन्हें प्रियतम की सेज पर बिखेर दिया ।
उन फूलों की गन्ध से मेरे प्रियतम की नींद टूट गई, और वह मुझे छोड़कर परदेश चले गए ।
हे सखी, वह पुनः बारह वर्ष बाद वापिस आए, और मेरे लिए अपने साथ कंघी उपहार में लाए ।
मैंने उसी से अपने उलझे हुए बालों को सँवारा, और रच-रच कर शृंगार किया ।