पागल हुआ रमोली
राजकुँवर की
ओछी हरकत
सहती जनता भोली
बेटी का
सदमा ले बैठा
पागल हुआ ‘रमोली’
देह गठीली
सुंदर आँखें
दोष यही ‘अघनी’ का
खाना-खर्चा
पाकर खुश है
भाई भी मँगनी का
लीला जहर
मरेगी ‘फगुनी’
उठना घर से डोली
संरक्षण में
चोर-उचक्के
अपराधी घर सोयें
काला-पीला
अधिकारी कर
हींसा दे खुश होयें
धंधे सभी
अवैध चलाते
कटनी से सिंगरौली
जेबों में
कानून डालकर
प्रजातंत्र को नोचें
करिया अक्षर
भैंस बराबर
दादा कुछ ना सोचें
बोलो! खुआ
लगाकर दागें
घर में घुसकर गोली
अम्मा
मुर्गा बाँग न
देने पाता
उठ जाती
अँधियारे अम्मा
छेड़ रही
चकिया पर भैरव
राग बड़े भिनसारे अम्मा
सानी-चाट
चरोहन चटकर
गइया भरे
दूध से दोहनी
लिये गिलसिया
खड़ी द्वार पर
टिकी भीत से हँसी मोहनी
शील, दया,
ममता, सनेह के
बाँट रही उजियारे अम्मा
चौका बर्तन
करके रीती
परछी पर
आ धूप खड़ी है
घर से नदिया
चली नहाने
चूल्हे ऊपर दाल चढ़ी है
आँगन के
तुलसी चौरे पर
आँचल रोज पसारे अम्मा
पानी सिर पर
हाथ कलेबा
लिये पहुँचती
खेत हरौरे
उचके हल को
लत्ती देने
ढेले आँख देखते दौरे
जमुला-कजरा
धौरा-लखिया
बैलों को पुचकारे अम्मा
घिरने पाता
नहीं अंधेरा
बत्ती दिया
जलाकर धरती
भूसा-चारा
पानी-रोटी
देर-अबेर रात तक करती
मावस-पूनों
ढिंगियाने को
द्वार-भीत-घर झारे अम्मा
सूरज की हरवाही
जेठ तमाचे
सावन पत्थर
मारे सिर चकराये
माघ काँप कर
पगडौरे में
ठण्डी रात बिताये
भूखे पेट
बिहनियाँ करती
सूरज की
हरवाही
हारी-थकी
दुपहरी माँगे
संध्या से चरवाही
देर रात तक
पाही करके
चूल्हा चने चबाये
चिंताओं से
दूर झोंपड़ी
देकर ब्याज पसीना
वक़्त महाजन
मूलधनों में
जोड़े लौंद महीना
रातों को दिन
गिरवी धरकर
अपने दाम चुकाये
मंगल में
बसने की इच्छा
मँगलू मन से कूते
ममता के
हाथों गुड़पानी
जीवन सुख अनुभूते
हाथ नेह का
फिरे पीठ पर
अंक लिये दुलराये
खुली खरीदी
हरदी तेल का
उबटन करके
पीरी पहना रही खेत में
हवा लगे
उसकी भौजाई
राई, पियर-पियर पियराई
चढ़कर
देह जवानी महके
फीके लगते
बाग बगीचे
अगहन में
खुलने लग जाते
मन के सारे बंद गलीचे
नज़र बचाकर
पी जाने को
घर को ताके दूध, बिलाई
राई, पियर-पियर पियराई
धरने आई
आसों राई
जैसे बिटिया के
सिर छींदी
निकले
सगुन महाजन लाओ
आये कर
ले खुली खरीदी
नहीं! मानती
है नातिन के
पीले हाथ करेगी दाई
राई, पिपर-पियर पियराई
भोगा हुआ अतीत
जंगल-चिड़ियाँ
फूल-पत्तियाँ
नाव-नदी
पर गीत लिखूँगा
भूख-गरीबी, शोषण दाबे
निकलूँ तब !
परतीत लिखूँगा
संत्रासों की उड़ी
नींद को
लिये गोद में
बैठीं रातें
मुस्कानों की
सिसकी कहतीं
बनती
जीभ रहीं फुटपाथें
आमद बढ़े
ख़ुशी की थोडा
ईंटे वाली भीत लिखूँगा
आरक्षित हैं
लोग वहीं पर
लगे हाथ
न दिखे तरक्की
चढ़ी मूड़ पर
नई योजना
गई पुरानी गुल कर बत्ती
चोंच-दबाये
दाना डाले
बगुला भक्ति प्रीत लिखूँगा
छीन धरा
को नहीं छोड़ती
हवा रुन्धती
रकवा पूरा
सहमी-सहमी
लाचारी है
बात-बात पर बल्लम-छूरा
वर्तमान से
जूझा हूँ फिर
भोगा हुआ अतीत लिखूँगा
स्वाभिमान का जीना
लीकें होती
रहीं पुरानी
सड़कों में तब्दील
नियम-धरम का
पालन कर
हम भटके मीलों-मील
लगीं अर्जियाँ
ख़ारिज लौटीं
द्वार कौन-सा देखें
उलटी गिनती
फ़ाइल पढ़ती
किसके मुँह पर फेंकें
वियाबान का
शेर मारकर
कुत्ते रहे कढ़ील
नज़र बन्द
अपराधी हाथों
इज्जत की रखवाली
बोम मचाती
चौराहों पर
भोगवाद की थाली
मुँह से निकले
स्वर के सम्मन
हमको भी तामील
मल्ल-महाजन
पूँजी ठहरी
दाबें पाँव हुजूर
लदी गरीबी
रेखा ऊपर
अज़ब-अज़ब दस्तूर
स्वाभिमान का
जीना हमको
करने लगा ज़लील
एक नदी बहती है
मेरे भीतर फिर
लावे की
एक नदी बहती है
साँसों की
स्वर लहरी उसका
तेज-तपिश कहती है
उम्मीदों में
कहा-सुनी है
फिर भी चहल-पहल
चक्रवात के
बीच बनाये
हमने हवा महल
पहरे पर यह
धूप घरों की
टुकड़ों में रहती है
चिंताओं को
ओढ़-बिछाकर
भले गिने हों तारे
लेकिन
अँजुरी भर ले आये
दिन के हम उजियारे
रात बदल
जाती है दिन में
अनुकम्पा महती है
बाधाओं के
सभी रास्ते
खुद ही
बंद किये हैं
सीढ़ी दर सीढ़ी
चढ़ते हम
अनगिन द्वन्द्व जिये हैं
खुशी चाह के
कदम सफलता
आप स्वयं गहती है
अपने जैसा होना
मैं पीतल औरों का
चिन्तन
मुझे बनाए सोना
मैं तो केवल
चाह रहा हूँ
अपने जैसा होना
अबके साल समय में
पल-पल
घर के अर्थ बदलते
देने वाले
हाथ काटते
बैशाखी को चलते
फल के भी हैं
अन्दर काँटे
परिणामों का रोना
पाँवों के नीचे
की धरती
पकड़े पर भी सरके
खड़े देखते
रहे तमाशे
अँगना, देहरी, फरके
भित्तियों से
करवाती छानी
मुझ पर जादू-टोना
मैंने उलटी
दिशा चुनी है
पद चिह्नों से हटकर
हवा रोकती
बढ़ना मेरा
स्वर लहरी को रटकर
केवल कोरे
आदर्शों को
कन्धों पर क्या
पाँव जले छाँव के
हम ठहरे गाँव के
लाल हुए धूप में
पाँव जले छाँव के
हम ठहरे गाँव के
हींसे में भूख-प्यास
लिये हुए मरी आस
भटक रहे जन्म से
न कोई आसपास
नदी रही और की
लट्ठ हुए नाव के
हम ठहरे गाँव के
पानी बिन कूप हुए
दुविधा के भूप हुए
छाँट रही गृहणी भी
इतना विद्रूप हुए
टिके हुए आश में
हाथ लगे दाँव के
हम ठहरे गाँव के
याचना के द्वार थे
सामने त्यौहार थे
जहाँ भी उम्मीद थी
लोग तार-तार थे
हार नहीं मानें हम
आदमी तनाव के
हम ठहरे गाँव के
ढोना
धधकी आग तबाही
ठोंके निर्मम खुराफात की
सिर पर गहरी कील
खारा पानी लेकर आईं
आँखों वाली झील
ज़हर उतारा गया हमारे
पुनः कण्ठ के नीचे
नील पड़े सच डर के मारे
खड़े झूठ के पीछे
लौट रही बारूद जेल से
धरे हाथ कंदील
ऐसा जुल्म छद्म के हाथों
करते रोज़ नया
खेले खेल नज़र से देखे
सहमी हुई बया
नागनाथ से सांप छुड़ाने
झपटी फिर से चील
उभरे हुये सुराग पकड़कर
देने चला गवाही
नहीं बुझेगी भीतर बाहर
धधकी आग तबाही
मैंने उखड़े पाँव जमाये
पत्थर जैसे मील