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रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’की रचनाएँ

पानी

मैं पानी हूँ मैं जीवन हूँ
मुझसे सबका नाता ।
मैं गंगा हूँ , मैं यमुना हूँ
तीरथ भी बन जाता ।
मैं हूँ निर्मल पर दोष सभी ,
औरों के हर लेता ।
कल तक दोष तुम्हारे थे जो ,
अपने में भर लेता ।
पर सोचो तो मैं यों कब तक ,
कचरा भरता जाऊँ !
मुझको जीवन भी कहते हैं ,
मैं कैसे मरता जाऊँ !
गन्दा लहू बहा अपने में
कब तक चल पाता तन ।
मैं धरती की सुन्दरता हूँ ,
हर प्राणी की धड़कन ।
मेरी निर्मलता से होगी,
धरती पर हरियाली ।
फसलों में यौवन महकेगा,
हर आँगन दीवाली ।
नदियाँ ,झरने ,ताल-तलैया ,
कुआँ हो या कि सागर ।
रूप सभी ये मेरे ही हैं,
एक बूँद या गागर ।
हर पौधे की हर पत्ती की
प्यास बुझाऊँ जीभर ।
पर जीना दूभर होगा ये,
दूषित हो जाने पर ।

गाँव अपना

पहले इतना

था कभी न

गाँव अपना

अब पराया हो गया ।

खिलखिलाता

सिर उठाए

वृद्ध जो, बरगद

कभी का सो गया ।

अब न गाता

कोई आल्हा

बैठकर चौपाल में

मुस्कान बन्दी

हो गई

बहेलिए के जाल में

अदालतों की

फ़ाइलों में

बन्द हो ,

भाईचारा खो गया ।

दौंगड़ा

अब न किसी के

सूखते मन को भिगोता

और धागा

न यहाँ

बिखरे हुए मनके पिरोता

 

कौन जाने

देहरी पर

एक बोझिल

स्याह चुप्पी बो ग

कहाँ गए?

कहाँ गए

वे लोग

इतने प्यार के,

पड़ गए

हम हाथ में

बटमार के।

मौत बैठी

मार करके कुण्डली

आस की

संझा न जाने

कब ढली

भेजता पाती न मौसम

हैं खुले पट

अभी तक दृग- द्वार के।

बन गई सुधियाँ सभी

रात रानी

याद आती

बात बरसों पुरानी

अब कहाँ दिन

मान के, मनुहार के।

गगन प्यासा

धूल धरती हो गई

हाय वह पुरवा

कहाँ पर सो गई

यशोधरा –सी

इस धरा को छोड़कर

सिद्धार्थ- से

बादल गए

इस बार के।

या।

दिन डूबा

दिन डूबा

नावों के

सिमट गए पाल।

खिंच गई नभ में

धुएँ की लकीर

चढ़ गई

तट पर

लहरों की पीर

डबडबाई

आँख- सा

सिहर गया ताल ।

थककर

रुक गई

बाट की ढलान,

गुमसुम

सो गया

चूर ­चूर गान

हिलते रहे

याद के दूर तक रूमाल।

उदास छाँव

नीम पर बैठकर नहीं खुजलाता

कौआ अब अपनी पाँखें

उदास उदास है अब

नीम तले की शीतल छाँव ।

पनघट पर आती

कोई राधा

अब न बतियाती

पनियारी हैं आँखें

अभिशप्त से हैं अधर

विधुर-सा लगता सारा गाँव।

सब अपने में खोए

मर भी जाए कोई

छुपकर निपट अकेला

हर अन्तस् रोए

चौपालों में छाया

श्मशानी सन्नाटा

लगता किसी तक्षक ने

चुपके से काटा,

ठिठक ­ठिठक जाते

चबूतरे पर चढ़ते पाँव ।

न जवानों की टोली

गाती कोई गीत

हुए यतीम अखाड़े

रेतीली दीवार- सी

ढह गई

आपस की प्रीत

गली- गली में घूमता

भूखे बाघ -सा अभाव ।

 

 

 

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