ग़ज़लें
ग़म से बिखरा न पैमाल हुआ
ग़म से बिखरा न पैमाल हुआ
मैं तो ग़म से ही बे-मिसाल हुआ
वक़्त गुज़रा तो मौजा-ए-गुल था
वक़्त ठहरा तो माह ओ साल हुआ
हम गए जिस शजर के साए में
उस के गिरने का एहतिमाल हुआ
बस कि वहशत थी कार-ए-दुनिया से
कुछ भी हासिल न हस्ब-ए-हाल हुआ
सुन के ईरान के नए क़िस्से
कुछ अजब सूफ़ियों का हाल हुआ
जाने ज़िंदाँ में क्या कहा उस ने
जिस का कल रात इंतिक़ाल हुआ
किस लिए ज़ुल्म है रवा इस दम
जिस ने पूछा वो पाएमाल हुआ
जिस तअल्लुक़ पे फ़ख़्र था मुझ को
वो तअल्लुक़ भी इक वबाल हुआ
ऐ ‘हसन’ नेज़ा-ए-रफ़ीक़ाँ से
सर बचाना भी इक कमाल हुआ
हुस्न के सेहर ओ करामात से जी डरता है
हुस्न के सेहर ओ करामात से जी डरता है
इश्क़ की ज़िंदा रिवायात से जी डरता है
मैं ने माना कि मुझे उन से मोहब्बत न रही
हम-नशीं फिर भी मुलाक़ात से जी डरता है
सच तो ये कि अभी दिल को सुकूँ है लेकिन
अपने आवारा ख़यालात से जी डरता है
इतना रोया हूँ ग़म-ए-दोस्त ज़रा सा हँस कर
मुस्कुराते हुए लम्हात से जी डरता है
जो भी कहना है कहो साफ़ शिकायत ही सही
इन इशारात ओ किनायात से जी डरता है
हिज्र का दर्द नई बात नहीं है लेकिन
दिन वो गुज़रा है कि अब रात से जी डरता है
कौन भूला है ‘नईम’ उन की मोहब्बत का फ़रेब
फिर भी इन ताज़ा इनायात से जी डरता है
जब कभी मेरे क़दम सू-ए-चमन आए हैं
जब कभी मेरे क़दम सू-ए-चमन आए हैं
अपना दुख दर्द के लिए सर्व ओ समन आए हैं
पाँव से लग के खड़ी है ये ग़रीब-उल-वतनी
उस को समझाओ कि हम अपने वतन आए हैं
झाड़ लो गर्द-ए-मुसर्रत को बिठा लो दिल में
भूले-भटके हुए कुछ रंज ओ मेहन आए हैं
जब लहू रोए हैं बरसों तो खुली ज़ुल्फ-ए-ख़याल
यूँ न इस नाग को लहराने के फ़न आए हैं
कुछ अजब रंग है इस आन तबीअत का ‘नईम’
कुछ अजब तर्ज़ के इस वक़्त सुख़न आए हैं
जंगलों की ये मुहिम है रख़्त-ए-जाँ कोई नहीं
जंगलों की ये मुहिम है रख़्त-ए-जाँ कोई नहीं
संग-रेज़ों की गिरह में कहकशां कोई नहीं
क्या खबर है किस किनारे इस सफ़र की शाम हो
कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ में बादबाँ कोई नहीं
आशिकों ने सिर्फ अपने दुख को समझा मोतबर
मेहर सब की आरज़ू है मेहरबाँ कोई नहीं
एक दरिया पार कर के आ गया हूँ उस के पास
एक सहरा के सिवा अब दरमियाँ कोई नहीं
हसरतों की आबरू तहज़ीब-ए-ग़म से बच गई
इस नफ़ासत से जला है दिल धुआँ कोई नहीं
कट चुके हैं अपने माज़ी से सुख़न के पेशा-वर
मर्सिया-गो सो चुके और क़िस्सा-ख़्वाँ कोई नहीं
पूछता है आज उन को बे-तकल्लुफ़ सा लिबास
इस गली में क्या जियाला नौजवाँ कोई नहीं
वो रहे क़ैद-ए-जमाँ में जो मकीन-ए-आम हो
लम्हा लम्हा जीने वालों का मकाँ कोई नहीं
मजलिसों की ख़ाक छानी तो खुला मुझ पर ‘नईम’
आज़मी सा ख़ुश-निगाह ओ ख़ुश-बयाँ कोई नहीं
जब्र-ए-शही का सिर्फ़ बग़ावत इलाज है
जब्र-ए-शही का सिर्फ़ बग़ावत इलाज है
अपना अज़ल से एक हुसैनी मिज़ाज है
आगे तो ज़हर-ए-इश्क़ में सब ज़हर थे घुले
अब शाइरी की जान रग-ए-एहतिजाज है
आली नज़र के शेर पे तीखे मुबाहिसे
बे-नूर आलिमों का मरज़ ला-इलाज है
हर आन हैं दिमाग़ में अफ़कार-ए-शब-नवाज़
इस ग़म की सल्तनत में बस इक दिल सिराज है
क्या दी है लब-कुशाई की क़ीमत उसे भी देख
इस दफ़्तर-ए-नवा में सभी इंदिराज है
इस सोंधी मिट्टियों ने दिया रंग ओ ज़ाएका
हीरों से बढ़ के आब में मुल्की अनाज है
‘इकबाल’ की नवा से मुशर्रफ है गो ‘नईम’
उर्दू के सर पे ‘मीर’ की ग़ज़लों का ताज है
ख़ैर से दिल को तिरी याद से कुछ काम तो है
ख़ैर से दिल को तिरी याद से कुछ काम तो है
वस्ल की शब न सही हिज्र का हँगाम तो है
नूर-ए-अफ़लाक से रौशन हो शब-ए-ग़म कि न हो
चाँद तारों से मिरा नामा ओ पैग़ाम तो है
कम नहीं ऐ दिल-ए-बे-ताब मता-ए-उम्मीद
दस्त-ए-मै-ख़्वार में ख़ाली ही सही जाम तो है
बाम-ए-ख़ुर्शीद से उतरे कि न उतरे कोई सुब्ह
ख़ेमा-ए-शब में बहुत देर से कोहराम तो है
जो भी इल्ज़ाम मिरे इश्क पे आया हो ‘नईम’
उन से वाबस्ता किसी तौर मिरा नाम तो है
ख़्वाब की राह में आए न दर ओ बाम कभी
ख़्वाब की राह में आए न दर ओ बाम कभी
इस मुसाफिर ने उठाया नहीं आराम कभी
रश्क-ए-महताब है इक दाग़-ए-तमन्ना कब से
दिन का नज्ज़ारा करो आ के सर-ए-शाम कभी
शब-ए-ख़ैर उस ने कहा था कि सितारे लरज़े
हम ने भूलेंगे जुदाई का वो हँगाम कभी
सरकशी अपनी हुई कम न उम्मीदें टूटीं
मुझ से कुछ ख़ुश न गया मौसम-ए-आलाम कभी
हम से आवारों की सोहबत में वो लुत्फ़ कि बस
दो घड़ी मिल तो सही गर्दिश-ए-अय्याम कभी
ऐ सबा मैं भी था आशुफ़्ता-सरों में यकता
पूछना दिल्ली की गलियों से मिरा नाम कभी
नुदरत-ए-फ़िक्र ने गर साथ जो छोड़ा तो ‘नईम’
अपने सर लेंगे ततब्बो का न इल्ज़ाम कभी
किसे बताऊँ कि वहशत का फ़ाएदा क्या है
किसे बताऊँ कि वहशत का फ़ाएदा क्या है
हवा में फूल खिलाने का क़ाएदा क्या है
पयम्बरों ने कहा था कि झूठ हारेगा
मगर ये देखिए अपना मुशाहिदा क्या है
तमाम उम्र की ज़हमत का अज्र ये दुनिया
ये किस से पूछिये आख़िर मुआहिदा क्या है
सभी ख़ामोश हैं अफ़सुर्दगी का दफ़्तर हैं
खुले तो कैसे कि वो हुक्म-ए-आएदा क्या है
उसी का ख़्वाब है मेरी नवा-ए-ख़्वाब ‘नईम’
मिरा वजूद भी उसे अलाहदा क्या है
किसी हबीब ने लफ़्जों का हार भेजा
किसी हबीब ने लफ़्जों का हार भेजा है
बसा के इत्र में दिल का गुबार भेजा है
हुई जो शाम तो अपना लिबास पहना कर
शफ़क़ को जैसे दम-ए-इंतिज़ार भेजा है
किसी ने डूबती सुब्हों तड़पती शामों को
ग़ज़ल के जाम में शब का ख़ुमार भेजा है
सजा के दामन-ए-गुल को शरारा-ए-नम से
किसी ने ताज-ए-दिल-ए-दाग़-दार भेजा है
किसे बुलाने को इस लाला-ए-वफ़ा ने ‘हसन’
सबा को मेरी तरफ़ बार बार भेजा है
कुछ उसूलों का नशा था कुछ मुकद्दस ख़्वाब थे
कुछ उसूलों का नशा था कुछ मुकद्दस ख़्वाब थे
हर ज़माने में शहादत के यही असबाब थे
कोह से नीचे उतर कर कंकरी चुनते हैं अब
इश्क़ में जो आब-जू थे जंग में सैलाब थे
साज़ ओ सामाँ थे ज़फ़र के पर वो शब में लुट गए
ख़ाक ओ ख़ूँ के दरमियाँ कुछ ख़्वाब कुछ कम-ख़्वाब थे
क्या दम-ए-रूख़्सत नज़र आते ख़ुतूत-ए-दिल-बारी
नक़्श थे उस चाँद के लेकिन ब-शक्ल-ए-आब थे
मैं अदू की जुस्तुजू में था कि इक पत्थर लगा
मुड़ के देखा तो सिनाँ ताने हुए अहबाब थे
थे बहुत नायाब वो नूर-ए-क़लम ज़ोर-ए-बयाँ
शोला उट्ठा जब जुनूँ का फिर वही नायाब थे
क्या फ़िराक ओ फ़ैज से लेना था मुझ को ऐ ‘नईम’
मेरे आगे फ़िक्र ओ फ़न के कुछ नए आदाब थे
पैकर-ए-नाज़ पे जब मौज-ए-हया चलती थी
पैकर-ए-नाज़ पे जब मौज-ए-हया चलती थी
क़र्या-ए-जाँ में मोहब्बत की हवा चलती थी
उन के कूचे से गुज़रता था उठाए हुए सर
जज़्बा-ए-इश्क़ के हम-राह अना चलती थी
इक ज़माना भी चला साथ तो आगे आगे
गर्द उड़ाती हुई इक मौज-ए-बला चलती थी
पर्दा-ए-फिक्र पे हर आन चमकते थे नुजूम
फ़र्श ता अर्श कोई माह-लक़ा चलती थी
मैं ही तन्हा न ख़राबों से गुज़रता था ‘नईम’
शाम ता सुब्ह सितारों की ज़िया चलती थी
रश्क अपनों को यही है हम ने जो चाहा मिला
रश्क अपनों को यही है हम ने जो चाहा मिला
बस हमीं वाक़िफ़ हैं क्या माँगा ख़ुदा से क्या मिला
जिस ज़मीं पे मेरा घर था क्या महल उट्ठा वहाँ
मैं जो लोटा हूँ तो ख़ाक-ए-दर न हम-साया मिला
देखिए कब तक मिले इंसान को राह-ए-नजात
लाख बरसों में तो वीराँ चाँद को रस्ता मिला
हर सफ़र इक आरज़ू है वर्ना सैर-ए-दश्त में
किस को शह-ज़ादी मिली है किस को शहज़ादा मिला
सब पुराने दाग़ दिल ही में रहे आख़िर ‘नईम’
हर नए दुख में न पिछले दुख से छुटकारा मिला
उम्मीद ओ यास ने क्या क्या न गुल खिलाए हैं
उम्मीद ओ यास ने क्या क्या न गुल खिलाए हैं
हम आबशार के बदले सराब लाए हैं
हवा है गर्म उदासी का ज़र्द मंजर है
सभी दरख़्त हरी कोंपलें छुपाए हैं
कटे हैं पाँव तो हाथों के बल चले उठ कर
मिसाल-ए-मौज तिर हम-किनार आए हैं
जहाँ दिखाई न देता था एक टीला भी
वहाँ से लोग उठा कर पहाड़ लाए हैं
न एक बूँद इनायत न फूल भर ख़ुशबू
ये किस दयार के बादल कफ़स पे छाए हैं
किसे हुनर का सिला चाहिए मगर कुछ लोग
कहाँ कहाँ से न पत्थर उठा के लाए हैं
अज़ल से हम को ‘हसन’ इंतिज़ार-ए-सब्ज़ा है
जले हैं बाग़ तो पौदे नए लगाए है
याद का फूल सर-ए-शाम खिला तो होगा
याद का फूल सर-ए-शाम खिला तो होगा
जिस्म मानूस सी ख़ुशबू में बसा तो होगा
क़तरा-ए-मय से दबा रात न तूफ़ान-ए-तलब
मुझ पे जो बीत गई रात सुना तो होगा
कोई मौसम हो यही सोच के जी लेते हैं
इक न इक रोज़ शजर ग़म को हरा तो होगा
ये भी तस्लीम कि तू मुझ से बिछड़ के ख़ुश है
तेरे आँचल का कोई तार हँसा तो होगा
वो न मानूस हों कुछ ख़ास अलाएम से ‘हसन’
एक क़िस्सा मिरी आँखों ने कहा तो होगा
नज़्में
बे-इल्तिफ़ाती
मैं ने हर ग़म में तिरा साथ दिया है अब तक
तेरी हर ताज़ा मसर्रत पे हुआ हूँ मसरूर
अपनी क़िस्मत के बदलते हुए धारों के सिवा
तेरी क़िस्मत के भँवर से भी हुआ हूँ मजबूर
तेरे सीने का हर इक राज़ बता सकता हूँ
मुझ में पोशीदा नहीं कोई तिरा-सोज़-ए-दुरूँ
फ़िक्र-ए-मानूस पे ज़ाहिर है हर इक ख़्वाब-ए-जीमल
और हर ख़्वाब से मिलता है मुझे कितना सुकूँ
आज तक तू ने मगर मुझ से न पूछा है कभी
क्यूँ मिरे ग़म से तिरा चेहरा उतर जाता है
जब मिरे दिल में लहकते हैं मसर्रत के कँवल
क्यूँ तिरा चेहरा मसर्रत से निखर जाता है
एक दरख़्त एक तारीख़
जैसे झुक कर उस ने सरगोशी में मुझ से ये कहा
वो दयार-ए-ग़र्ब हो कि गुलसितान-ए-शर्क़ हो
ज़ुल्म के मौसब में बू-ए-गुल से खिलते हैं गुलाब
जुस्तुजू की मंज़िलों में ख़्वाब की मिशअल लिए
डालियों पर आ के गिरते हैं थक-माँदे परिंद
आषियाँ-बदीं में रंग-ओ-नस्ल की तमईज़ क्या
तफ़रीक़ क्या
जाबिर ओ मजबूर की दुनिया अलग उक़्बा अलग
ख़ेमा-ए-याद
उस सुब्ह जब कि मेहर
दरख़्शां है चार-सू
मौसम बहार का है
ग़ज़ल-ख़्वाँ हैं सब तुयूर
सब्ज़े सबा के लम्स से ख़ुश हैं निहाल हैं
इक साया इस दरख़्त इसी शाख़ के तले
तन्हाइयों की रूत में है मग़्मूम ओ मुज़्तरिब
बंद-ए-क़बा-ए-शब से उलझता है बार बार
निदा-ए-तख्लीक़
सुकूत-ए-नीम शबी में किसी ने दी आवाज़
‘नईम’ दिल से निकालो न ख़ार-हा-ए-ख़लिश
सुकून है तो इसी इजि़्तराब में कुछ है
गुज़ार-ए-शौक़ में सोज़-ए-तलाश में कुछ है
जुनूँ के जुमला मराहिल से तुम गुज़र देखो
जमाल-ए-फिक्र से आबाद है दिल-ए-वीराँ
शरार-ए-दिल से मुनव्वर जहान-ए-फ़र्दा है
ये कौन मुझ से मुख़ातिब है इतनी क़ुर्बत से
ये किस ने ज़ख़्म को दस्त-ए-शिफ़ा से छेड़ा है
इसी ख़याल में गुम था कि फिर सदाई आई
कमाल-ए-अर्ज़-ए-सुख़न जिस को तुम समझ बैठे
वो इज्ज़-ए-फिक्ऱ है इक़रार-ए-बे-ज़बानी है
निकल के आओ ज़रा कूचा-ए-ख़बर देखो
हर एक चाक-गरेबाँ हर एक गर्द-आलूद
न क़त्ल-गह से हिरासाँ न संगसारों से
कि एक उम्र गुज़रती है जुस्तुजू करते
नज़र को तेज़ हक़ीक़त को रू-ब-रू करते
बस एक तुम कि तुम्हारे क़दम नहीं उठते
क़ुयूद-ए-कोह से आवाज़ दे रहे हैं तुम्हें
पयम्बरों के मक़ामात दे रहे हैं तुम्हें
रूख़-ए-सहर से हटाओ रिदा-ए-शब लिल्लाह
अज़ाब-ए-नार से गुज़रो कि तौफ़-ए-नूर करो
जिगर के दाग़ से रक्खो हरीम-ए-जाँ रौशन
शुआ-ए-दर्द को चूमो गले लगाओ ‘नईम’
सर-ए-वजूद झुकाए सुना किया सब कुछ
तमाम जिस्म था गोया निशाना-ए-आवाज़
तमाम रूह थी सामे तमाम ग़म बेदार
सुकूत-ए-शब में
सदा गूँजती रही पहरों
तशवीश
मुझ को तशवीश है कुछ रोज़ से मेरे महबूब
मेरे अंदाज़-ए-तफ़क्कुर की ये पुर-ख़ार रविश
तेरी हस्सास तबीअत को न कर दे मजरूह
और तू समझे कि नहीं तुझ में वो पहली सी कशिश
अब भी जलवों में है तख़्लीक़-ए-मोहब्बत की सकत
तिरी बातों में अभी तक है फ़सूँ का अंदाज़
आरिज़ ओ लब पे तबस्सुम का ख़िराम-ए-मदहोश
अब भी देता है तख़य्युल को पयाम-ए-परवाज़
फिर भी एहसास-ए-मर्सरत का न हो ज़हन को होश
गिन तो सकता हूँ शब-ए-हिज्र में तारों को मगर
ज़हन आवारा ख़यालात से भर जाता है
अश्क-ए-मजबूर बहाऊँ ग़म-ए-जानाँ में मगर
सिलसिला मेरे इन अश्कों का बिखर जाता है
मुझ को तशवीश है कुछ रोज़ से मेरे महबूब
मिरे अंदाज़-ए-तकल्लुम की ये बे-गाना-रवी
तेरी हस्सास तबीअत को न कर दे मजरूह
और तस्कीं न हो फिर हुस्न-ए-ख़ुद-आरा को कभी