समुंदर बचपन में बादल था
बाल कबीले का लोकगीत
(बच्चे जो अभी भाषा नहीं जानते, ध्वनि से हुलसते हैं, उनके लिये)
टुईयाँ गुईयाँ
ढेम्पूलाकी चुईयाँ
बेंगी पुंगी चिक्कुल भाकी
नक थुन धाकी भुईयाँ
अब दु़न भेला ठुन ठुन केला
बीन भनक्कम पुईयाँ
हगनू पटला झपड़ तो बटला
शुकमत टमटम ठुईयाँ
गझगन चिम्बू छुकछु़न लिम्बू
झलबुल टोला ढुईयाँ
टुईयाँ गुईयाँ
किंचुल गोला मुईयाँ।
नन्हा स्वावलम्बन
(सोई गोली के लिए)
अंगूठा मुंह में दुबका है
तू गाढ़ी नींद में खोई है
नींद
तुझे ले गई है
एक सूनसान टापू पर
जहां तेरे सिवा
नहीं है कोई और
उस वीरान
एकाकीपन में
यही अंगूठा
तेरे मुंह में घुुल-घुल कर
मीठा-मीठा दूध
बनाता है
तुझे पिलाता है
सच कहूँ
तेरे मुँह में दुबका
यह अंगूठा नहीं
थन है
तेरा ही थन
यों तू माँ बनी है
ख़ुद अपनी
सर्जना भरी हँसी
(टिम्मा लू के लिए)
तेरी हँसी को सुन:
मिट्टी और उतावली
मौसम-बेमौसम
कुछ भी उगा देने को,
तालाब और मछलीदार
खिडकी और हवादार
टहनियाँ और चिड़ियादार।
तेरी हँसी को सुन:
खिलौने और भी प्रयोगधर्मी
किन नये-नये तरीकों से तुझे हँंसाया जाए
फिरकनियाँ और चक्करदार,
गेंद और टप्पेदार
गुल्लक और सिक्केदार।
तेरी हँसी को सुन:
चिडियाघरों को और गहरा अहसास
अभयारण्य होने का
नदियाँ और पानीदार,
हवाएँ और पतंगदार,
आंगन और रंगोलीदार।
तेरी हँसी को सुन:
ईश्वर को और तीव्र चाह
तेरी माँ कहलाने की
शब्द और प्रार्थनादार
रंग और उत्सवदार
श्वास और ख़ुशबूदार
चितुर-पितुर
(डुम्पु के लिये)
आड़ी-तिरछ़ी, गोल-चौकोर लकीरें
इनमें छुपी भाषा की तकदीरें
यह अनाम, अरूप, अजाना
ढेर जो चितरा है
दरअसल अनंत का बिंदुपन है
उद्गम है समुद्र का
इन्हीं में से
अंकुरित होंगे अक्षर
इन्हीं में से उभरेंगे अंक
चिन्ह इन्हीं से
वाक्यों के मोहल्ले में रहने वाले
किताब शहर के नागरिक, अक्षरों।
आओ देखो
तुम सब बचपन में ऐसे ही थे
अनाम, अरूप, अजाने,
सिर्फ़ गोल-गोल
आड़ी-तिरछी
उल्टी-सीधी लकीरें…
हम आधा टिकट
(डिंग फू के लिये)
हम आधा टिकट-
हम आधी सवारी?
गोदी किसी की भी
पूरी सीट हमारी
हम पूरी सैर, पूरे मज़े
हम आधा टिकट-
हम आधी सवारी?
हम पूरी खिड़की, पूरी रेल
हम पूरी नदी, पूरे खेत
हम पूरे पूल, पूरे बोगदे
हम पूरे पहाड़, पूरा आसमान
हम पूरी सैर, पूरे मज़े
हम आधा टिकट-
हम आधी सवारी?
हम पूरी पटरी, पूरी सीटी
हम पूरे जंगल, पूरी घाटी
हम पूरा उतार, पूरी चढ़ाई
हम पूरे स्टेशन
हम खाने-पीने की
पूरी-पूरी चीज़ें
हम पूरी सैर, पूरे मज़े
हम आधा टिकट-
हम आधी सवारी?
हम पूरी धूप, पूरी चाँदनी
हम पूरी हवा, पूरी धरती
हम पूरी छुट्टी, पूरी मस्ती
हम पूरा शोर, पूरा धमाल
हम पूरी सैर, पूरे मज़े
हम आधा टिकट,
हम आधी सवारी
हँसी का रंग हरा होता है
हँसी का रंग हरा होता है
जहाँ-जहाँ भी हरापन है
तेरे ही खिलखिलाने की अनुगूंज है वहाँ-वहाँ
कल्पना का रंग होता है आसमानी
जहाँ तक पसरा हुआ है आसमान
तेरी कल्पनाओं के दायरे में आता है….
ज़िद का रंग होता है बहुत गहरा
इतना कि एक बार जिस चीज़ की रट लगा लेती है तू
हमारी किसी भी समझाईश का रंग
चढ़ता ही नहीं उस पर
और रोने का रंग…?
वह तो किसी रंग जैसा
होता ही नहीं
क्योंकि जब रोती है तू
रंगों के चेहरे पड़ जाते हैं फीके
रंग जो हमेशा
भरपूर चटखीलेपन में
जीना चाहते हैं
चाहते हैं पृथ्वी भर हरापन
क्योंकि तेरी हँसी का रंग
हरा होता है।
कट्टी
जब तू कट्टी हो जाती है
मिठास खट्टी हो जाती है।
गुस्से में आग बबूला हुई
जलती भट्टी हो जाती है।
खिलौनों के नन्हें दिल दल देती
चलती घट्टी हो जाती है।
चिड़ियों-सी चहचह काफू़र हुई
मुंह पर पट्टी हो जाती है।
मचलकर ज़मीं पर ही लोट गई
धूला-मट्टी हो जाती है।
कल्पना
उसने काग़ज़ पर
एक चौकुट्टा सा
गोला बनाया
और मन में कहा
‘चिड़िया’।
फिर उसने उस गोले में
कहीं एक बिंदी मांड दी
और मन में कहा
‘आसमान’।
सच,
चिड़िया की आखों में
आसमान
बिंदुभर ही तो होगा।
वह नींद में है
(पिंचुक पिन्ना के लिए)
वह नींद में है।
जब तक वह नींद में है
तब तक शोरगुल
चुप्पी ओढ़े सो रहा हैे
और मस्ती
थमी हुई गाड़ियों के साथ
आराम फ़रमा रही है।
जब तक वह नींद में
भागमभाग
स्टैण्ड पर खड़ी साइकिल की तरह
सुस्ता रही है
और सारे हठ
सन्यासी जैसी आँखें मूंदे
इच्छाओं के पार चले गए हैं।
जब तक वह नींद में है
शांति रानी बनी बैठी है
लेकिन हर पल उसे अपने राज पर
एक खतरा-सा महसूस होता है
और बंद पलकों पर टिका
उसका सिंहासन डोलता रहता है
डोलता रहता है…।
राग रुदन
(टेमली पू के लिये)
उसने राग रुदन छेड़ रखा है
यह दिन या रात के
किसी भी पहर गाया जाने वाला राग है-
बचपन के थाट का है
इसमें हँसी ठठ्ठे का हर एक स्वर वर्जित है
कुछ चीज़ों के ‘ख़याल’ संजोए थे उसने
जो हमने विलम्बित कर दिये थे
अचानक द्रुत हो उठे हैं
उसने बिगड़कर, झगड़कर
ज़मीन पर लेटकर, मचलकर
कार्यक्रम का आग़ाज़ किया है
उसके आलापों में तीव्र विलाप हैं
कोमल स्वर सारे निषिद्ध हैं
आँसू वादी और सम्वादी स्वर
तानपूरे पर संगत कर रही है
उसकी जिद
जो उसकी आड़ मे छुपकर बैठी है
और टुंग-टुंग-टुंग-टुंग कर
उसके कान भरे जा रही है लगातार
तबले पर संगति है उसके गुस्से की
जो हाथ-पाँव पटक-पटककर
अपने ही कायदे और परण बजा रहा है
हारमोनियम पर है
उसकी फेंका-फेंकी
कुटती, पिटती, टकराती चीज़ें
अपनी टंकारों से
उसे स्वरों से भटकने नहीं देती
वह राग में बनी रहती है
वह तानें लेते हुए ताने मार रही है
वह खरज पर उतरे तो धरती फट पड़े
और तार-सप्तक के आखिरी स्वर तक पहुँचे तो आसमान
उसकी घरानेदार गायकी की यह ख़ासियत है
पता है?
उसके गालों पर एक टीका था
जिस पर एक घोंसला था
जिसमें ‘हँसी’ नाम की चिडिया अण्डे दिया करती थी
बाढ़ में बह गया है
इतना डूबकर गाया है आज राग उसने
हम सब जो उसके श्रोता हैं
विस्मित हैं उसके रियाज़ पर
हम तालियाँ फिर भी नहीं बजाते
‘’वाह!उस्ताद वाह!!‘’ फिर भी नहीं कहते.
उसका रोना सुन
हमारा कलेजा जो भीतर से खून-खून हुआ है
वही उसकी सच्ची दाद है.
उम्मीद है वह जल्द ही समेटेगी सारा विस्तार
और लौट आएगी एक तिहाई लेकर
उस राग से बाहर
हमारी बाँहों में
जहाँ उसकी फ़रमाईशी चीज़ें
ईनामों-इक़रामों की तरह मिलने वाली हैं उसे
….और वे सब चीज़ें भी चाहती हैं
कि इस संगीत सभा का समाहार
एक तराने से हो
‘हँसी’ जिसका राग हो
रोने का हर एक स्वर वर्जित हो.
बचपन में
समुंदर बचपन में बादल था
किताब बचपन में अक्षर
माँ की गोद जितनी ही थी धरती बचपन में
हर पकवान बचपन में दूध था
पेड़ बचपन में बीज
चुम्मियां भर थी प्रार्थनाएं बचपन में
सारे रिश्तेदार बचपन में खिलौने थे
हर वाद्य बचपन में झुनझुना
हंसी की चहचहाहट भर थे गीत बचपन में
ईश्वर बचपन में माँ था
हर एक चीज़ को
मुंह में डालने की जिज्ञासा भर था विज्ञान बचपन में
और हर नृत्य बचपन में
तेरी उछल-कूद से ज्यादा कुछ नहीं था
बाल जिज्ञासा
मुनिया
अब्बू! तुम कहा करते हो
कि तुमने बहुत दुनिया देखी है
तो बताओ न! कहाँ देखी है?
मुझे भी दिखाओ, जहाँ दुनिया देखी है
पापा
बेटा! दुनिया इतनी आसानी से नहीं दीखती
उसे देखने के लिये आँख नहीं,
एक उमर चाहिये
और सिर के बाल जैसे-जैसे सफेद होने लगते हैं
दीखती जाती है दुनिया
मुनिया
अब्बू! तुम कहते हो
कि खूब लंबी है उमर मेरी
तो, उमर है मेरे पास
रहा सवाल बालों का
तो तुम्हारी डिब्बी से चूना निकाल
रंग लूंगी बस
बोलो, अब दिखेगी कि नहीं दुनिया
पापा
बेटा! दुनिया देखने की ज़िद न कर
अभी ये तेरा काम नहीं
अभी तो तू पढ़, खेल, खा-पी, मौज कर
‘दुनिया’ में कोई खेल-खिलौने थोडे ही हैं
न मेले हैं और न फूलों से भरे
फिसल पट्टियों वाले बाग़ हैं।
‘दुनिया’ देखना और दिखाना, तुझ जैसे मासूमों के लिये
सख़्त मना है
क्योंकि दुनिया महज़
कड़वे-खट्टे अनुभवों का एक मुहावरा है
तुझे पता है ?
दुनिया देखने सेे हर कँवलापन
कड़ा हो जाता है
और तब हर बच्चा
वक़्त से पहले बड़ा हो जाता है।
सुन, जैसे-जैसे तू बड़ी होगी
दुनिया देखने लग जाएगी
और जब बूढ़ी होगी
तो दूसरों से यह कहने भी लग जाएगी
“मैंने बहुत दुनिया देखी है
बहुत देखी है दुनिया”
मुनिया
नहीं अब्बू!
मैं तो आज ही देखूंगी दुनिया
मुझको नहीं होना बड़ा-बूढ़ा
मै तो आज ही देखूँगी दुनिया
पापा
अच्छा, अच्छा !! हाथ-पैर मत पटक
अपने हठ पर इतना मत अटक
हम आज चलेंगे बाज़ार
वहाँ से लेंगे सुन्दर सी एक गुड़िया
एक झाँझ वाला बन्दर
और चौराहे पर देखेंगे खेल मदारी का
फिर हलवाई से दिलवाऊँगा तुझे लड्डू
वहाँ से लौटते हुए
तुझे दुनिया भी दिखा दूँगा, चल
हम आज चलेंगे बाज़ार
(बाज़ार से लौटते हुए)
मुनिया
अब्बू! हम तो लौट रहे हैं, खाली हाथ
तुमने तो कहा था कि ये लेंगे-वो लेंगे
बग़ैर कुछ चीज़ लिये
मैं ना जाती आपके साथ
अब्बू हम क्यों लौट रहे खाली हाथ?
पापा
बेटा, तुझे, अगर इतनी चीज़ें दिला देता
तो बाकी बचा यह महीना
हमारी जान निकाल लेता
कि तेरे खिलौनों से ज़्यादा ज़रूरी
तेरा मेरा पेट है
बोल है कि नहीं…?
मुनिया
अब्बू, मुझे कुछ नहीं मालूम
मुझे तो बस इतना है मालूम
कि आपने वायदा किया था
और आप मुकर गए
आपको हमसे ज़्यादा अपनी पड़ी है
क्या चूल्हे की चिंता गुड़िया से बड़ी है?
और तो और …दुनिया भी नहीं दिखाई तुमने
जाओ, मैं कट्टी हुई आपसे…
पिता
मैं तुझे दुनिया ही तो दिखा रहा था मुनिया
कि जहाँ वाइदा है, सपने हैं, छल है, ख़ुदगर्जीं है
पापी पेट की छोटी-बड़ी मर्ज़ी है
वही तो है दुनिया
कह, अब देखी कि नहीं दुनिया?
कह तो …मुनिया
एक जुलाई का गीत
बीती छुट्टी गर्मी की
खुली पाठशाला सबकी
मौज-मस्ती की आदतें
जैसे-तैसे भुलाई
आया रे, आया रे, आया एक जुलाई।
नई किताबें, नई कॉपियाँ, बस्ते नए-नए
नए-नए गणवेश, स्कूल के रस्ते नए-नए
उत्साह भरे बच्चों ने शान से गर्दन डुलाई
आया रे, आया रे, आया एक जुलाई।
शाला जाने में होगी बहुतों के जी में मचलन
माँ धमकाकर भेजेगी उनको स्कूल जबरन
उधमखोर बच्चों ने गालों की जोड़ी फुलाई
आया रे, आया रे, आया एक जुलाई।
बस्ते, वॉटर बेग लदा तांगा गाता छुनछुन
रस्ते भर बिखरी पट्टी-पहाड़ों की गुनगुन
फिर लौटा शाला में जीवन, टूटी लंबी सुलाई
आया रे, आया रे, आया एक जुलाई।
हो हल्ला
(बिं चिम्पाकु के लिये)
वह चित्र में रंग भर रही है
और रंग बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं
अपनी बारी आने का
उछल-उछल कर कह रहे हैं रंग
‘’पहले मैं…….पहले लो मुझे
सबसे रंगीन हूँ मैं ही
मुझे भर लो नऽ अपने चित्र में, प्लीज़ चिम्पाकु।‘’
कोई ज़रुरी नहीं कि पेड़ हरा ही बनाया जाए
लाल कहता है- “पत्ते मेरे ही अच्छे दिखेंगे”
पीला, गुलाबी, और नीला झगड़ते हैं-
‘’मैं…. मैं बनूंँगा पेड़
पत्ते तो बस मेरे ही!!‘’
पानी तो सदियों से नीला रहा है
बहुत पुराना नहीं हो गया क्या पानी?
नारंगी कहता है-‘’मुझे भर दो,
दुनिया का सबसे नया और अनोखा समुंदर मैं ही बनाऊँगा”
हरा, कत्थई, पीला, भिड़ते हैं
‘’मैं…….मैं बनूंगा समुंदर
पानी तो मेरा ही सबसे सुन्दर।‘’
हवा दिखाई नहीं देती तो क्या
होती तो है न!
कहता है गुलाबी-मैं बनूंगा हवा
भूरा, बैंंगनी, फ़िरोज़ी भी मचलते हैं-
मै… हवा तो मैं ही
ठंडी और बारिश की महक वाली!!‘’
वह चित्र में रंग भर रही है
और हर एक रंग चाहता है
कि उसके चित्र में
वही वही फैला हुआ हो
रंग तो बस उसी का जमा हो
गाढ़ा और चटख…।
गुनगुन के लिए
जी चाहता है
तेरा गुब्बारा बन जाऊँ
या बन जाऊँ घर्र-घर्र घूमती चकरी
या फिर झूला
गेंद,
गुड़िया,
या जैसी भी तेरी मर्ज़ी
खिलौनों में डूबे हुए बच्चे
ईश्वर के बेहद क़रीब होते हैं
मैं तेरी और ईश्वर की अंतरंगता का
साक्षी बनना चाहता हूँ
तेरा खिलौना बनकर देखूँ तो सही
क्या-क्या श्रम करना पड़ता है
तुझे हँसाने में,
तुझे मनाने में,
कौतूहल जगाने में
तेरे चेहरे पर बसंत खिलाने के लिये
खिलौने को अफ्नी सारी ऋतुएँ
खर्च करनी होती हैं
यह कोई सहज बात भी तो नहीं
खिलौना बनना बड़े धीरज का है काम
बड़े साहस की है बात
तू फेंकती है
रौंदती है
तोड़ती है
मोड़ती है
जितनी आत्मीयता से भींचती है बाँहों में
उतनी ही निष्ठुरता से छोड़ भी देती है अकेला।
लेकिन खिलौने को
हर हालत में
अटूट संयम पाले
बस मुसकाना ही होता है
जब तक कि तू फिर नहीं लौटती अपने खेल में
उसे फिर नहीं उठाती-पुचकारती,
गोदी में नहीं बिठाती
उसके बाद भले ही सब्र का बाँध फूटे
और खिलौना तेरी फ्रॉक में मुँह दबा
चुपके-चुपके रो ले
आज़ादी है…।
डिम्बू टिम के लिए
तू अगर फ़ौज में भर्ती हो जाए
तो यक़ीन है कि सारी तोपें
पिचकारियों में बदल जाएँगी
फिर उनसे गोला-बारूद नहीं दाग़ा जाएगा
रंग बरसाए जाएंगे
सरहदों के उस पार
जहाँ गिरेंगे तेरे रंगीले गुब्बारे
ख़ून ख़राबे की आदी हो चुकी धरती
महसूस करेगी अपना नया जन्म होते हुए
फिर दहशत वहाँ कभी नहीं लौटेगी
अब तक के इतिहासों में दर्ज है
पड़ोसी मुल्कों के बीच अक्सर होती
शांति वार्ताएँ,
अक्सर होते शिखर सम्मेलन
और इन महज़ दिखावटी रस्मों के पीछे
छुपा होता है युद्धों का निर्मम चेहरा अक्सर
तंग आ चुकी है दुनिया इस दोगलेपन से
उसे अब और जंग नहीं
तेरे उत्सवदार रंग चाहिये
अब जो इतिहास बने
उसमें ऐसे हुक्मरान हों
जो सरहदों के पार की जनता को भी
अपनी अवाम समझें
तू अगर फ़ौज में भर्ती हो जाए
तो यक़ीन है
सीमाओं पर लगी
कंटीले तारों की बाड़
काट दी जाएगी
और खोल दी जाएँगी तमाम सरहदें
फिर यह पृथ्वी
फिज़ूल टुकड़ों में बँटी नहीं मिलेगी
तब्दील हो चुकी होगी
एक घर-
एक आँगन में.
खिलौनों की थैली
झुनझुने जैसी बजती है
उसके खिलौनों की थैली
ढचरा गाड़ी के अस्थि- पंजर जैसी नहीं
उसमें अब सिर्फ़ पुर्ज़े रहते हैं
खेल ख्ेाल कर, खिलौनों में से ही
उसने ये पुर्ज़े ईजाद किये हैं
बड़े दुर्लभ, हाट-बाज़ार, में ढूंढने से भी नहीं मिलते
ये उसके हाथों की
पहली मौलिक कृति हैं
थैली, जिसे बन्दरिया के बच्चे सा चिपकाए रहती है
उसे वह खजाना मानती है
और बाकी सब चीज़ों को कबाड़
(खिलौनों की थैली और स्कूल के बस्ते में
कमल और रात का सम्बन्ध है)
दुनिया में हवा जैसे बची ही नहीं
ऐसा मुँह हो गया है हवाई जहाज का
पंख उड़ गए हैं,
पहिये ख़ुद ही लुढ़क रहे हैं
और गाड़ियाँ अपाहिज खड़ी हैं,
हाथी की सूंड चिड़िया की चोंच में फँसी हुई,
पिचकी गेंदें चाँद के गड्ढों की मानिंद,
ढोल फटा हुआ
गुफा समझकर उसमें रहने लगा है डायनासौर,
हाथ विहीन सुपरमैन
उसके हाथ रेलगाड़ी को धकाने चले गए हैं
वह अपनी छाती पर गुदे ै को देखकर
बिच्छु से अपना मुँह छुपा लेता है
उसकी थैली एक आसमान है
जिसमें पल-पल बदलते हैं बादलों के रूप- आकार
जैसे ही वह उंडेलती है ज़मीन पर
पते-ठिकाने बदले हुए लोग फिर मिलते हैं
अजनबी से घूरते हैं पहले
फिर धीरे -धीरे लौटने लगती है याददाश्त
और तब अचानक
लौटती हुई याददाश्त को चकमा दे जाते हैं सब।
तु जा रही है छुट्टियों में नानी के गांव
धुआँ दौड़ा जा रहा है
खेत दौड़े जा रहे हैं
पेड़, कुएँ, डबके
नदी, तालाब, पुल और बोगदे
सभी दौडे़ जा रहे हैं
स्टेशन और गाँव
दौड़े जा रहे हैं
बिजली के मोटे-मोटे तारों को
कंधों पर लादे
दौड़ रहे हैं, ऊँचे-ऊँचे खंभे भी
वो दूर…..अकेली
फसलों में दुबकी झोपड़ी
और सबसे आखिर में खड़ा
पहाड़ भी
धीमे धीमे सही
दौड़ा जा रहा है।
यूँ सारी धरती दौड़ी जा रही है
उतनी ही तेज़ी से पीछे
जितनी तेज़ी से बढ़ी जा रही है
यह रेलगाड़ी आगे
वे सब पीछे की ओर
लौटकर
भर देना चाहते हैं
वह ख़ालीपन
जो तू बनाकर आई है
ताकि वहाँ भूतहा वीराना न लगे
कोई चिड़िया घबराकर
अपने बसेरे से उड़ न जाए।
टिग्गुल
फटी पतंगों के
रंगबिरंगी कग्गज को
फाड-फूड कर बनाए गए
गोल-गोल, छोटे-छोटे
टिग्गुल।
ईंधन की तरह
उनमें भरे गए पत्थर
और फेंके गए ऊँचे
आसमान में।
पत्थर तो गिर पड़े जल्द ही
किसी कक्षा में
स्थापित होने के पहले
रॉकेट के जले हुए
अवशिष्ट भाग जैसे…
…और अब
टिग्गुल आ रहा है
धीरे, धीरे, धीरे
धीरे, धीरे, धीरे
जैसे किसी दुर्गम ग्रह से
लौट रहा हो विजयी होकर
अंतरिक्ष यान-सा।
गर्मजोशी से अगवानी करने
जुटी भीड़
हो-हो रे! होय-होय!
हो-हो रे!! होय-होय!!
-लूट
सेमडू की नाक आई
हरा-हरा-सा
गाढ़ा-गाढ़ा
ठंड़ा-ठंड़ा
खारा-खारा
मक्खन का रेला।
निकल आता
पिटारे से बाहर
सर्दी का
ताजा-ताजा
झौल-झमेला।
“सुडुर-सुडुर”
है पूंगी बजती
थोडा सा चख लेता
फिर अंदर
सटका देता गेला।
हरा-हरा-सा
गाढ़ा-गाढ़ा
ठंड़ा-ठंड़ा
खारा-खारा
मक्खन का रेला।
रंगपंचमी
1
तेरे गालों का ख़ुशबूदार पावडर
और बाजू में टिमटिमाता काला टीका
तूझे चूमते वक़्त
मेरे होंठ और नाक पर
छप गया था-
चला आया है साथ में
घर से दफ़्तर तक
तेरा ऑटोग्राफ समझकर
सहेजने की कोशिश करूंगा।
शाम तक के लिए
तेरा चेहरा महसूस होता रहेगा
अपने चेहरे में उगा हुआ।
2.
इतनी मीठी…
इतनी मीठी है री तू
कि जब हवाएँ
तेरी परिक्रमा करते हुए
तुझे भँवर में घेर लेती होंगी
तेरी कसम
जिलेबी बन जाती होंगी
3.
तेरी चोटी में लगा हुआ
गुलाबी हेयर क्लिप-
जैसे नदी पर बनी
पुलिया है
सुबह
जिस पर से गुजरती है
और उस पार जाकर
साँझ हो जाती है।
तेरी पाजे़ब-
जैसे दूर-दूर तक फैला हुआ
समंदर का गोल किनारा है
तेरे कूदते-फांदते पैर
उसमें लहरें उठाते हैं हर पल
और समंदर का गोल किनारा
कभी खामोश नहीं रह पाता
गाता ही रहता है।
तेरे नाक की नथनी-
जैसे दूज के चाँद के चेहरे पर
बिंदिया जैसा लकदकाता
शुक्रतारा
जिसके टिमटिमाने में
सुनाई देता है
सितार पर सांझ के पहर का कोई राग।
4.
सूरज कुछ और नहीं
रेडियम का एक टुकड़ा भर है
जो तेरी आँख खुलते ही जगमगाने लगता है
5.
दुनिया के
किसी भी साज़ के
किसी भी सप्तक का
कोई भी सुर
इतना
ठंडा,
भीगा
और चाशनीदार नहीं
जो सुर
तेरी पप्पी में छिपा है
गणित की किताब
तूने अब फिसलना भले ही छोड़ दिया हो
पर फिसलपट्टी ने
तेरा साथ नहीं छोड़ा है
वह तेरी गणित की किताब में
वर्गमूल का चिन्ह हो गई है
कभी जमीन छूता
कभी आसमान होता –
सी सॉ
गुणा का चिन्ह बन गया है
और हर वक्त टप्पे खाती,
लुढ़कती तेरी गेंद
अंकों को अनंत तक
दौड़ाने में दक्ष हो गई है
अब शून्य कहलाती है
तेरे आईसक्रीम का कोन
बदल गया है शंकु में
तेरे चित्रों के सारे पहाड़
अब त्रिभुज बन गए हैं
और उगता हुआ सूरज
वृत्त के रूप में पूरा उग चुका है
टिम्पुकली तू बड़ी होकर क्या बनेगी
मैं
बनना चाहती हूँ
ऐसा पेड़
जिसमें
कभी कोई पतंग न फंँसे।
बनना चाहती हूँ
मैं
ऐसी कलम
जो
कभी कोई गलत उत्तर न लिखे
मैं चाहती हूँ बनना
ऐसा मेला
जिसमें
कभी कोई बच्चा न बिछुड़े
मैं
बनना चाहती हूँ
ऐसी नदी
जिसमें
कभी कोई नाव न डूबे
बनना चाहती हूँ
मैं
ऐसी दुकान
जो
कभी खिलौनों के दाम न मांगे
मैं
चाहती हूँ बनना
छुट्टी की घंटी
जो मैदानों को सूना न रखे।
सीधी लकीर
(मिंचू के लिये)
केवल कलम से ही
खींच सकती थी तू
एक सीधी लकीर।
पर तेरी कलम ठहरी
मनमौजी, खिलंदड़
चलते रस्ते अपने दादाजी का हाथ
छुड़ाकर जैसे भागती है तू
बिना उछलकूद के
वह भी कोई सीधी राह चलती क्या?
लेकिन जब उसे
तेरे हाथ पर चटाक् से पडने वाली
स्केल का डर दिखाया गया
तो गर्दन नीची करके
हुक्म मानने वाली शहाणी बच्ची की तरह
छुटे हुए तीर सी,
सीधी-सीधी चली थी वह
अगर तुझे
थोड़े तालाब, थोड़े टीले
अपनी लकीर पर पसंद हों
तो कलम को
स्केल की धौंस मत दिखाना
…फिर देखना।
टिंगी डिंबू के लिए
सारे खिलौने
एक हठ को पकड़े
जीते हैं तेरे संग
कि बचपन की ओस को
भाप न बनने देंगे।
मगर जब तू तेरे पापा के
ढीलम-ढाले जूतों में
पिद्दे से पैर डाले
डगमगाती फिरती है घर भर,
उनके दाढ़ी का बुरुश
पीपल के लाल पत्तों जैसे
अपने गालों पर घुमाती है,
कभी-कभी
आईने में देखकर
उनके जैसी मुच्छी भी चितर लेती है
क्या तूने कभी जाना
कि जल्दी से बड़ी हो जाने की तेरी जिज्ञासा का
खिलौनों की कसम पर
क्या असर हुआ होगा?
कितनी ठेस पहुँची होगी उन्हें
जो जीते हैं
तेरे संग
तेरी परछाई बन
महज़ इसलिये कि तू
कभी जान न पाए
बचपन की क्षण भंगुरता
और चिरंजीवी बना रहे
तेरा-उनका चहचहाता साथ।
मगर
एक डर
सताता तो है उनको
कि जैसे-जैसे तू बड़ी होती जाएगी
वे छूटते जाएँगे
और एक दिन अकेले रह जाएँगे
यही सोच गुमसुम होते हैं वे
इसीलिये तेरी पलकों में
छुपकर सोते हैं वे।
बच्चों की सोहबत में
घर की हर चीज़ व्यवस्थित रखी हुई है
पर चीज़ें ख़फ़ा हैं बहुत
इस करीनेपन से।
वे इंतज़ार में हैं कि बच्चे आएँ
और सारी सजावट कतरा-कतरा बिखेर दें
चीज़ें महज़ दिखावटीपन जीना नहीं चाहतीं।
बच्चे जो चीज़ों को मुक्त करते हैं
बंधी-बंधाई जगहों, चरित्रों और उपयोगिताओं से।
वे उनके दायरों को बनाते हैं- अंतरिक्ष
कंघी को गाडी बनाकर सरपट दौड़ाते हुए
उनसे नई-नई भूमिकाएं करवाते हैं
वे अपना विज्ञान स्वयं खोजने में तल्लीन
इसलिए उन्हें खिलौनों से खेलना कम
उन्हें खोलना ज़्यादा खेल भरा लगता है।
वे मचलते हैं उन चीज़ों के लिए
जिन्हें उनके डर से
छुपा दिया गया है
(उन चीज़ों के मुंह तो देखो
जैसे काले-पानी की सजा दी हो)
चीज़ेें उनके हाथों में जाना चाहती हैं
ताकि कोई नया नाम, नया काम और
जीने की कोई नई वजह मिल सके।
चीज़ें बच्चों की सोहबत में
भूल जाना चाहती हैं
अपनी तमाम निष्प्राणता।
झुनझुने का कंकड़
(थिम्पू के लिये)
तेरे झुनझुने में क़ैद
वह कंकड़ छोटा सा
सोच तो क्या उस बंधन से छूटना
नहीं चाहता होगा
तुझे छूना और अपलक निहारना
और तेरे नवरंगी खेलों में शामिल होना
नहीं चाहता होगा?
तेरे शहज़ादे खिलौनों की रियासत में
यह फकीर-सा कंकड
अपने लिये कोई चबूतरा चुनना
नहीं चाहता होगा…?
तेरे शहज़ादे खिलौनों के बीच रहकर
तुझे हँसाने-मनाने का
लालच उसके मन में भी तो होता होगा।
पर उसे मालूम है कि
जब तक वह झुनझुने के अंदर है
तब तक शिशु रंजक स्वर है
वरना बाहर केवल कंकर है।
इसलिये उसे नहीं दुःख ज़रा भी
क़ैद से छूटने की तड़प नहीं उसे।
बच्चों की हँसी एक त्यौहार है
और झुनझुना उन पर्वगीतों की
धुनंे रचता है।
उसे सुन तू जितनी बार भी खुश होती है
वह उतनी बार मुक्त होता है,
तुझे छूता है
तेरे नवरंगी खेलों में शामिल होता है
तेरे झुनझुने में बंदी
यह कंकड़ छोटा-सा।
तेरा पड़ोस
(पीहू के लिए)
तेरे जन्म के वक़्त
जितना ज़रूरी था माँ के स्तनों में
दूध उतरना
उतना ही ज़रूरी था पड़ोस
एक गोद से दूसरी में जाने जैसा
या बांये स्तन को छोड़
दांये को मुंह लगाने जितना दूर
यह पड़ोस
माँ की ही दूसरी देह होता है
घुटनों-घुटनों सरककर पड़ोस में जाना
तेरी पहली यात्रा है
पड़ोस तुझे क्षितिज की तरह लगता
कौतुहल भरा, प्रलोभन जगाता
उसके पास कुछ वर्जनाएं नहीं
सिर्फ़ स्वीकारोक्तियां हैं
तेरे लंगोट पड़ोस की तार पर सूखते
और जब तू लौटती है घर
तेरे मुंह पर दूध या भात चिपका होता
वहां की कोई न कोई चीज़ रोज़
तेरे घर चली आती
तू अपना घर पड़ोस को बताती
और पड़ोस पूछने पर अपना घर
बचपन के बाद यह ख़्याल
धीरे-धीरे गुम क्यों हो जाता है?
हमारी उम्र का कपास धीरे-धीरे लोहे में बदल रहा है (कविता)
हमारी गेंदें अब लुढ़कती नहीं
चौकोर हो गई हैं,
खिलौने हमारे हाथों में
आने से कतराते हैं,
धींगा-मस्ती, हो-हुल्लड़ याद नहीं
हमने कभी किया हो
पैदाइश से ही इतने समझदार थे हम
कि किसी चीज़ की ज़िद में
कभी मचले या रोए नहीं
स्कूल को जाने वाला रास्ता
नहीं देखा हमारे पैरों ने
हमारी उम्र का कपास धीरे-धीरे
लोहे में बदल रहा है
दूध से भरे हमारे कोमल शरीर
पसीने से लथपथ रहते हैं अक्सर
और हमारे माँ-बाप को फ़ख्ऱ है हम पर
कि हम गिरस्थी का बोझ उठाने के काबिल हो गए हैं
हम पटाखों में भरते हैं बारूद
होटलों में कप बसियाँ धोते हैं,
रेल के डिब्बे में अपनी ही क़मीज़ से
लगाते हैं पोंछा
गंदगी के ढेर पर बीनते हैं
प्लास्टिक और काँच
ग्रीस की तरह इस्तेमाल होता है
हमारा दूधिया पसीना
कारख़ानों के बहरा कर देने वाले शोर
और दमघोंटू धुएँ के बीच
हम तरसते हैं अक्सर
बाहर आसमान में कटकर जाती
पतंगों को लूटने
लेकिन हमने कभी सवाल नहीं उठाए
कि खेलने-कूदने की आज़ादी क्यों नहीं हमें?
क्यों पढ़ने-लिखने का हक़ नहीं हमें भी?
ये सवाल न उनसे पूछे
जिन्होंने काम पर भेजा हमें
और न पूछे उनसे जिन्होंने
काम पर रखा हमें
दुत्कार और लताड़ से भरे शब्द ही
हमारे नाम रह गए हैं
हमारे बारे में ये दुआएँ की जाती हैं
कि हम कभी बीमार न पड़ें
शोरगुल और धमा-चौकड़ी मचाते बेफ़िक्र बच्चे
हमें दिखाई न दे जाएँ
और स्कूल जाते बच्चों का
हमसे कभी सामना न हो
दूध से भरे हमारे कोमल शरीर
पसीने से लथपथ रहते हैं अक्सर
हमारी उम्र का कपास
धीरे धीरे लोहे में बदल रहा है।
मालगाड़ियों का नेपथ्य
रेल्वे स्टेशनों की समय सारिणी में
कहीं नहीं होतीं वे नामज़द.
प्लेटफार्म पर लगे स्पीकरों को
उनकी सूचना देना कतई पसंद नहीं.
स्टेशन के बाहर खड़े
सायकल रिक्शा, ऑटो, तांगेवालों को
कोई फ़र्क नहीं पड़ता उनके आने या जाने से.
चाय-नमकीन की पहिएदार गुमठियाँ
कहीं कोने में उदास बैठी रह जाती हैं
वज़न बताने की मशीनों के लट्टू भी
क्या उन्हें देख धड़का करते हैं?
आधी नींद और आधे उपन्यास में डूबा
बुकस्टॉल वाला अचानक चौंक नहीं पड़ता
किताबों पर जमी धूल हटाने के लिये.
मालगाडियों के आने जाने के वक़्त
पूरा स्टेशन और क़रीब-क़रीब पूरा शहर
पूरी तरह याददाश्त खोए आदमी सा हो जाता है
और इस सौतेले रवैये से
घायल हुई आत्मा के बावजूद
अपनी पीड़ा को अव्यक्त रखते हुए
वे तय करती रहती हैं तमाम दूरियाँ.
भारी-भरकम माल असबाब के साथ
ढोती हैं दुनिया की ज़रूरतें
और ला-लाकर भरती हैं हमारा ख़ालीपन.
पैसेंजर ट्रेनों से पहले चल देने की
गुस्ताख़ी कभी नहीं करेंगी वे
पीढियों की दासता ने उन्हें
इतना सहनशील और ख़ामोश बना दिया है.
दो प्लेटफार्मों के बीच छूटी सुनसान पटरियों पर
अंधेरे में आकर जब चुपचाप गुज़र जाती हैं
तब उनकी ज़िंदगी
दुनिया के तमाम मज़दूरों की कहानी लगती है
एक-सी अनाम
एक-सी उपेक्षित
और एक सी इतिहास के पन्नों से
खारिज
पेड़ों का अंतर्मन
कल मानसून की पहली बरसात हुई
और आज यह दरवाज़ा ख़ुशी से फूल गया है
खिड़की दरवाज़े महज़ लकड़ी नहीं हैं
विस्थापित जंगल होते हैं
मुझे लगा, मैं पेड़ों के बीच से आता-जाता हूँ,
टहनियों पर बैठता हूँ
पेड़ों की खोखल में रहता हूँ किताबें
मैं, जंगल में घिरा हूँ
किंवदंतियों में रहने वाला
आदिम ख़ुशबू से भरा जंगल
कल मौसम की पहली बारिश हुई
और आज यह दरवाज़ा
चैखट में फँसने लगा है
वह बंद होना नहीं चाहता
ठीक दरख़्तों की तरह
एक कटे हुए जिस्म में
पेड़ का खून फिर दौड़ने लगा है
और यह दरवाज़ा बचपन की स्मृतियों में खो गया है
याद आने लगा है
किस तरह वह बाँहें फैलाकर
हज़ारों हथेलियों में समेटा करता था
बारिश को
और झूमने लगता था
वह स्मृतियों में फिर हरा हुआ है.
गुल मकई
वर्णमाला / गुल मकई
‘अ’ अनाड़ी
‘आ’ का लेकर डंडा
इ ई की ताने छतरी
उ ऊ के पहने जूते
ए ऐ की उड़ाती चुटैया
ओ औ के गुब्बारे बांध डंडे पर
अं की लगाए बिंदिया
अः के कंचे लेकर
दौड़ रही है
वर्णमाला
सम्पूर्ण भाषा बन जाने को
परागण / गुल मकई
तितली के होंठों में दबे हैं
दुनिया के सबसे सुंदर प्रेम-पत्र
तितली एक उड़ता हुआ फूल है
हंसी किसी फूल की
उड़कर जाती है
एक उदास फूल के पास
उड़कर जाता है मन एक फूल का
एक फूल का स्वप्न
उतरता है किसी फूल के स्वप्न में
दो फूलों के बीच का समय
कल्पना है एक नए संसार की
तितली की तरह
सिरजने की उदात्तता भी होना चाहिए
एक संवदिया में
घड़ी की दुकान / गुल मकई
घड़ी की दुकानों में
समय नई-नई पोशाकों में
पोज़ देता है
(गतिशीलों को पोज़ देने की फुर्सत नहीं)
रुकी घड़ियाँ दिलासा हैं
कि समय अभी शुरू हुआ नहीं
घड़ी एक गुल्लक है
जिसमें भरी है
समय की काल्पनिकता
अगर इस दुकान में बेहिसाब समय भरा है
तो मुमकिन है, बुज़ुर्ग किसी रात लूट ले जाएँ
अपनी घड़ी मिलाने के लिए
ये जगह अत्यंत भ्रामक
एक तश्तरी में
पुर्ज़ा-पुर्ज़ा खुली घड़ी कहती है-
समय और घड़ी दो असंगत चीज़ें हैं
घड़ी की मरम्मत संभव है,
समय की नहीं
भारत भवन में अगस्त का प्रवेश / गुल मकई
हरी घास में समाधिस्थ
बैल की पीठ का कूबड़ है –
उद्घाटन शिला
यह लाल पत्थरों की विशाल बावड़ी है
क्या भरने,
किस में डूबने
उतरते हैं उकताए मन के पाँव
घनी घास के बीच से
उग आई हैं फर्शियाँ
यह बारिश के लंगड़ी-पव्वा खेलने का मैदान है
सीपी में दुबके मोती-सा कछुआ
चलता है तो पीछे, दीवारों के
पोस्टर बदल जाते हैं
पोस्टर : कैलेंडर में त्यौहार वाले लाल चौखाने हैं
बारिश में भीगी दीवारें
और ज़्यादा ताज़ी, गाढ़ी
जैसे गीले बदन पर चिपटा सफ़ेद दुपट्टा
कत्थई गुलाब हो गया हो
लकड़ी पर उगी फफूंद की तरह : शिल्प
यहाँ की हर चिड़िया
स्वामी की उड़ती हुई पेंटिंग है
रंगीन पिरामिड जैसे पीसा की मीनार
पत्थरों का उत्तरी गोलार्ध
मेघालय का कोई मोहल्ला है
बहिरंग के मंच पर घुटनों तक घास
और फहराती काँस की कलगियाँ
जितनी झील खुश है
यह दर्शक दीर्घा उतनी ही उदास
काला शामियाना तना हुआ है
और ‘बादल राग’ का पोस्टर भीग रहा है
अलमारी में किताबें / गुल मकई
उनकी आजानुबाहु भुजाओं पर
गुदा है उनका नाम
अकेलेपन से हताश
उन्होंने अपने चेहरे
धँसा दिये हैं एक-दूसरे की पीठ में
अलमारी में एक अंधा निर्वात है
किताबों का निर्वासन
शब्दों का पतझड़ नहीं है सिर्फ़
रेगिस्तान में एकाकी जीने की
आत्मघाती भूल भी है हमारी
ध्यान से सुनो
अलमारी में किताबें
किसी आपदा राहत शिविर में
अनाथ हो चुके बच्चों की डबडबाई पुकार है
क़ैद में किताबें स्वप्न देखती हैं
रात में बोट क्लब / गुल मकई
रुकी हुई नावें
जैसे लहरों ने
बेतरतीबी से उतार फेंकी
अपनी जूतियाँ
और समा गईं तलघर में
उनकी नींद पर
मछलियों का पहरा है
बंद है पानी का दरवाजा
चाँद उस पर लटका है
ताले की तरह
एक घर में होते हैं कई घर / गुल मकई
सर्दी की रातों में
जूता
निर्जन में कोई डाक बंगला है
सुबह
हमें अपने पैरों से ये उम्मीद करना चाहिए
कि दस्तक की तरह
वे हौले-हौले खटखटाएँ
जूतों को
कड़ी सर्दी से बचने के लिए
जूतों में अपना घर बना लेते हैं
झींगुर
एक घर में होते हैं कई घर
साझेदारी से चलती है यह दुनिया
मुँहासे / गुल मकई
गेंदे के कुछ फूल खिले हैं
गुलाबों की क्यारियों में
उनकी अवांछित नागरिकता पर
गुलाब उठाते हैं सवाल –
“तुम यहाँ क्यों ?”
ढीठ हैं फूल गेंदे के
सिर उठाकर देते हैं जवाब –
“वसंत से पूछो!!”
प्रायश्चित / गुल मकई
इस दुनिया में
आने-जाने के लिए
अगर एक ही रास्ता होता
और नज़र चुराकर
बच निकलने के हज़ार रास्ते
हम निकाल नहीं पाते
तो वही एकमात्र रास्ता
हमारा प्रायश्चित होता
और ज़िंदगी में लौटने का
नैतिक साहस भी
प्रेम की अनिवार्यता / गुल मकई
बहुत असंभव-से आविष्कार किए प्रेम ने
और अंततः हमें मनुष्य बनाया
लेकिन अस्वीकार की गहरी पीड़ा
उस प्रेम के हर उपकार का
ध्वंस करने पर तुली
दिया जिसने
सब कुछ न्यौछावर कर देने का भोलापन,
तर्क न करने की सहजता
और रोने की मानवीय उपलब्धि
प्रेम ने हमारी ऊबड़-खाबड़, जाहिल-सी
भाषा को कविता की कला सिखाई
और ज़िंदगी के घोर कोलाहल में
एकांत की दुआ मांगना
संभव नहीं था प्रेम के बिना
सुंदरता का अर्थ समझना
प्रेम होना ही सबसे बड़ी सफलता है
कोई असफल कैसे हो सकता है प्रेम में…
जुलाई / गुल मकई
आमों से सिंहासन छीनने लगे हैं जामुन
कैलेंडर के पलटे हुए पन्नों में
दब गई हैं कोयल
ताज़े खिले फूल हैं किताबें
सफ़ेद पंखुड़ियों की सुगंध से
निढाल पड़े विद्यालयों की चेतना लौटी है
धूप वैशाख के खंडहर की ध्वस्त खिड़की
प्रवासी पक्षियों की तरह आए हैं बादल
यह उनके प्रजनन का समय है
युवा ख़ून की तरह बहता पानी
जुलाई की नसों में
हर्ष से विस्मित रोम हैं घास
राष्ट्रीय रंग की तरह पसरा है ‘हरा’
छत पर बंधी रस्सियाँ
कर्फ़्यूग्रस्त सड़कें हैं
बूंदों के अंडों से निकलते हैं
मेंढकों के बच्चे
बारिश जुलाई का आवास है।
चार आने घंटा / गुल मकई
यह बात उन दिनों की है
जब बच्चों के पास नहीं होती थी अपनी साइकल
किराये की सायकलें ही होतीं मुफ़ीद
सीखने के लिए
किराया – चार आने घंटा
एक शांत-सी गली में
नन्ही सायकल चलना सीखती
और गुरुत्व बल को खुराफ़ातें सूझतीं
यह उन दिनों की बात है
जब हर लड़खड़ाती साइकल के साथ
एक भाई या दोस्त दौड़ा करता था
बेहद चौकन्ना और जवाबदार ।
वह टेका लगाने की बल्ली भी था
और मटका थापते कुम्हार का हाथ भी
संतुलन नहीं था उसके बिना संभव
गुरुत्व के सारे बल बे-असर थे उसके आगे
आज इतनी संपन्नता
कि हर बच्चे के पास साइकल
लेकिन विपन्नता बस इतनी
कि साइकलों के साथ दौड़ने वाले
भाई या दोस्त अब नहीं मिलते
समय सबसे महंगी धातु है
दूसरों को गढ़ने मे इसे गंवाना
अब
एक आत्मघाती विचार
यह मनुष्यता के संकट का दौर है
और उपचार तकनीकों से किए जा रहे
अब देखिये नन्ही साइकलों के पीछे
दायें-बाएँ घूमते
दो छोटे रक्षा पहिये।
जब देखता हूँ उन छोटे पहियों को बचाव में घूमते
याद आते हैं
साथ दौड़ते भाई या दोस्त
बेहद चौकन्ने और जवाबदार
…और समय भी
जो मिट्टी की तरह
हर कहीं उपलब्ध था
और उसका कोई किराया नहीं था।
आजोबा / गुल मकई
बचपन में
माँ के स्तनों के अलावा
आँख मूंदकर भी जिन्हें पहचानता था
वे थे दो हाथ
उनकी गर्माहट,
खुरदुरापन, गंध
इकलौती थी दुनिया में
वे माँ के हाथ नहीं थे
पर लगता था
माँ ने व्यस्तता के कारण ही उन्हें गढ़ा
उन हाथों में कुछ ज़्यादा ही माँ-पन भर दिया
उन हाथों ने मेरे गीले लंगोट बदले
थपकियाँ देते की पहरेदारी
कोई बुरा सपना
कभी ख़लल नहीं डाल पाया
नींद में
उनकी उंगली पकड़ चलते हुए
जाना कि पाँव आगे बढ़ाने पर ही
नजदीक आती हैं चीज़ें
मेरी अबोध उँगलियों को
अपनी हथेली में थाम
पट्टी की काली मिट्टी में
हल की तरह चलाते पेम
कितना आश्चर्य
अंकुर की तरह अक्षरों का फूटना
भाषा का मेरे हाथों उगना
वे हाथ
दिन भर इसी फ़िक्र में रहते
कि आसपास की कौन-सी चीज़ें बटोरकर
नए खेल, खिलौने पैदा किए जाएँ
किसी डंडे में
टीन का गोल ढक्कन ठोंककर
बनाते गाडियाँ ,
कपड़े की चिन्दियाँ
पत्थर पर लपेट-लपेट कर गेंद
नर्म और ठोस एक साथ :
उछलने से उकताने वाली गेंद
नाली में भीगकर पोतड़ा बन जाने तक
एक और गेंद बनाने में जुटे हाथ
दशहरे का मेला हो
या अनंत चौदस की झाँकियाँ
घनी भीड़ के पैरों में
कभी गुम नहीं होने दिया
वे हाथ मुझे कंधों पर बिठा लेते
मैं आजोबा की पगड़ी की तरह दिखाई देता
झील / गुल मकई
1
हज़ारों शीशे
रह–रहकर चमक उठते हैं
धूप इस तरह
झील के जालीदार दर्पण में
झाँकती है
2
मारवा का कोमल रिषभ है
ढलता सूरज
एक मुलायम आग
झील में जल उठी
सूरज पिघल रहा
3
झिलमिलाती रोशनियों के
पिलर गड़े हैं
पानी में
यह शहर
झील की बुनियाद पर
खड़ा है
दशहरी आम / गुल मक
लगभग धड़ी भर आम आए थे
उस दिन घर में
मालकिन ने कहा था उससे
कि जल्दी-जल्दी हाथ चला
रस ही निकालती रहेगी
तो पूड़ियाँ कब तलेगी
भजिए भी निकालने हैं अभी
और सलाद काटकर सजाना है तश्तरी
वह दशहरी आमों का रस निकालती रही :
अस्सी रुपए किलो तो होंगे इस वक़्त
” माँ – माँ !! हमें भी खिलाओ न रस
देखें तो कैसे होते हैं दशहरी आम
जब नए-नए आते हैं मौसम में
हम भी खाएँगे आम
हमें भी दो … रस “
उसे लगा रस की पतीली के इर्द-गिर्द
बच्चे हड़कंप मचा रहे हैं
फिर उसने कनखियो से घूरा
दायें-बाएँ
और उन्हें चुप होने का किया इशारा
फिर कोई जान न पाया उसके हाथों की ऐय्यारी को
मालकिन भी नहीं
उसके हाथ आमों पर
अब उतने सख़्त नहीं थे
वह छिलकों और गुठलियों में
बचाती जा रही थी थोड़ा-थोड़ा रस
एक थैली में समेट लिए उसने
सारे छिलके और गुठलियाँ
– “जाते-जाते गाय को खिला दूँगी”
मालकिन से कहते हुए
वह सीढ़ियाँ उतर गई ।
बारिश – 1
बसंत की भाप हैं बादल
बारिश एक दृष्टिभ्रम है –
सिर्फ़ पृथ्वी देख पाती
आसमान से वनस्पतियों का उतरना
बूंदों में कितने भिन्न
और असंख्य बीज
मिट्टी की इच्छा और अनिच्छा से भरपूर
मिट्टी के हर एक कण पर
लहराता है हरा परचम
बारिश कितनी बड़ी तसल्ली है
कि मवेशी अब
किसी दया के मोहताज नहीं
स्वाधीनता का उत्सव है बारिश
बारिश – 2 / गुल मक
रिमझिम बारिश हो रही है
जैसे आसमान से झर रहा है आटा
मिट्टी के रोम-रोम :
चींटियों के असंख्य अकुलाए मुँह
घास पर थिर हैं
बारिश के मोती
जैसे नन्ही हथेलियों में
चिरौंजी के दाने
धूप आ गई
पल भर में घास
जगमगाते हीरों की खदान में बदल गई
सूर्य को
करोड़ों परमाणुओं में बाँटने का
करिश्मा है बारिश
नहाया सूर्य
इस वक़्त ठीक सिर के ऊपर है
सोचता हूँ
इंद्रधनुष अभी कहाँ उगा होगा
क्या यह खिली हुई घास
इंद्रधनुष का ही रंग है?
कंधे / गुल मकई
तराज़ू के दो पलड़े हैं कंधे
एक पर अस्तित्व का बाट
दूसरे पर उत्तरदायित्वों का भार
तुला-दान में खर्च होता है जीवन
हताशाओं से उबारने की जड़ी
कंधों के पर्वत पर उगती है
किसी के गले लग कर देखिये
सबसे सुकून भरे पर्यटन स्थल हैं कंधे
उनके कारण ही हम जान पाते
कि छत्तीस का आँकड़ा
विरोध का नहीं
प्रेम का प्रतीक है
आदमी का संघर्ष
जितना रोटी के लिए
ज़्यादा उससे
मददगार कंधों के लिए
वैकुंठ को ले जाने वाला विमान
कोई मिथक नहीं
कंधों में रूपांतरित यथार्थ है
देखना सबसे पहली घटना है / गुल मकई
प्रेम –
विश्वास जगाने की सहज क्रिया है
अचानक हम पाते
कुछ विशिष्टता अपने भीतर
और ‘साधारणता’
इन बदलावों को देख
अचंभित खड़ी रहती
मसलन उल्टे हाथ की सबसे छोटी उंगली में
आ जाती है पहाड़ ठेलने की ताक़त
त्वचा के भीतर
इच्छाशक्ति की कोशिकाओं में
होने लगते हैं ऐसे करिश्मे
जब पता चलता
कि कोई है जो अपनी हथेली पर
आपके नाम का पहला अक्षर
लिखा करता है अक्सर
और आप ‘चमत्कार’ की तरह घट जाते हैं
किसी के जीवन में
मार्च / गुल मकई
सोलहवें साल की तरह
प्रवेश करता है मार्च
मिट्टी के कौमार्य में
झरते हैं पत्ते
मिट्टी रजस्वला हुई
तरुणाई की उद्दाम उमंगें हैं फूल
सारी ऐंद्रिकता कितनी सुगंधित और निष्पाप
मिट्टी की छातियों का
गुलाबी उभार हैं :
पीले फूलों से भरे चमकते पेड़
परिव्राजक वसंत फिर लौटा है
मिट्टी अपनी मधुबनी देह
नैवेद्य की तरह उसे अर्पण करती है।
गाय की घंटी / गुल मकई
यह घंटी जब बजती है
सजग नहीं होते देवता
काँपती नहीं मंदिर की दीवारें
खुलता नहीं मुँह दान पेटी का
थोड़ी-थोड़ी हरी कच्च घास
दूध बनने की उम्मीद में
जड़ों से उखड़ने लगती है
…और गीली मिट्टी में धँसते खुर
मछलियों के जन्म के लिए
बनाते हैं एक घर पानी का
यह घंटी जब बजती है।
हर घर एक पृथ्वी / गुल मकई
यह गृह प्रवेश का मुहूर्त है
प्रवेश करते
मैं अचानक ठिठका
देखा, घर में चींटियों को कतारबद्ध
चिड़िया थी रोशनदान में
गिलहरी मुंडेर से घूरती
और भी कई देखे-अदेखे निवासी थे
जो पता नहीं कैसे
गृह प्रवेश के पहले ही रहने चले आए थे
उनके बर्ताव से लगा कि
वे पीढ़ियों से यहाँ बसे हों
गृहस्वामी के नाते
आहत था मेरा अहं
मेरा अधिकार संदेह से भर गया
मेरा घर पृथ्वी का हिस्सा है
या पृथ्वी मेरे घर का हिस्सा?
तो क्या मैं किसी और के घर में
प्रवेश कर रहा हूँ
“मित्रों क्या मैं तुम्हारे घर में रह सकता हूँ?”
पूछने पर
दीवारें पीछे हट गई थीं
घर का आयतन प्रेम जितना असीम था
और मैंने अपने घर में नहीं
पृथ्वी में प्रवेश किया
इस दोपहर में / गुल मकई
इस दोपहर में:
जबकि गिलहरी ने पेड़ों पर
अनथक उतर-चढ़ मचा रखी है
और नन्ही मकड़ी अपने तार फैलाने में जुटी है
चिड़ियाँ सूखे तिनके चुनने में व्यस्त
झरे पत्ते भी बैठे नहीं हैं चुप
स्थिर पेड़ की छाया सरक रही है
और चींटियाँ मरे तिलचट्टे को
उठाए जा रहीं
लेकिन यह समय निठल्ला बैठा है
जबकि घड़ी के काँटे झूठा दिलासा दिये जा रहे
दोपहर की उदासी सरोद का आलाप है
शाम को
डोअर बेल की आवाज़ पर
भागेंगी चूड़ियाँ
बिंदी में रक्त और मचल उठेगा
शाम सितार पर ‘जोड़’ बजाती आएगी।
डल झील में एक शिकारा है संतूर / गुल मकई
(पं शिवकुमार शर्मा का संतूर वादन सुनते हुए)
कमल आँख खोलते हैं
झील जागती है
धूप शांत लहरों पर
अनुरणन करती
हिमालय के पैरों के
अँगूठों को छूती है
-पहाड़ जागता है
उनींदे देवदारू
अंगड़ाई भरते हैं-
पंछी उड़ते हैं
पत्थरों के कोटर से
फूटता है शततन्त्री झरना
केसर के मद्धिम बैन्जनी फूल
किसी राग की कल्पना हैं
बर्फ़ की नर्म फुहार से
ढँक गई है शिकारे की छत
और किनारे पर खड़ा शिकारा
चल पड़ता है
दो चप्पू लय के जल में तैरते हैं
संगतकार को इशारा / गुल मकई
( संगीत सभा में एक अनुभूति )
सुनो,
भाई तुम मेरे गाड़ी के ड्रायवर थोडे ही हो
तुम्हारी भी अपनी गाड़ी है
तुमने अच्छी संगत दी
कब तक तुमको बांध कर रखूँ
जाओ थोड़ा घूम-फिर कर आओ
इसी ‘ताल’ के घने जंगल में
पहाड़, घाटी, झील, झरने
नदी, पशु-पक्षी कितना कुछ है
देखने – घूमने को
मौसम भी बड़ा सुहाना है
याद रखना शाम को
मतलब ‘सम’ पर हम फिर मिलेंगे
मैं तब तक इसी लय पर
इंतज़ार करूंगा तुम्हारा
जाओ भाई मौज करो
तुम मेरे ड्रायवर थोड़े ही हो
तुम्हारी भी तो अपनी गाड़ी है
तबलेवाला / गुल मकई
वह दस जीभों से बोलता है
उसका बाँया चेहरा
संगत करते-करते उस्ताद का
आईना बन गया
और दाँया चेहरा
दर्शकों की तालियाँ बटोरता
आलाप उसके धैर्य की परीक्षा है
एक शिकायत तो सभी को
कि वह तबले को घर से मिलाकर भी ला सकता था
पर पता नहीं सदियों से
कौनसी हड़बड़ी है या आलस
उसने यह काम हमेशा मंच पर ही किया
और तबला मिलाने की क्रिया
को अपना आलाप बना लिया
छाया गीत / गुल मकई
शहर भर की सारी छायाएँ
झील में आकर सो गईं
अब रात की तरह
ये झील नीम अंधेरी
और आसमान की तरह शांत
किनारे पर कहीं
एक बड़ा–सा मेंढक टर्राता है
जैसे रेडियो में खरखराहट
तारों पर से
बहुत धीमे गुज़रती है एक नाव
उसकी तलहटी में बजता पानी
‘छाया गीत’ की तरह
सुनाई देता है
अगस्त / गुल मकई
एक बादल चुपके से
नमक की बंद शीशी में समा गया
एक बादल चुपके से
घुस गया रज़ाइयों में
एक बादल चुपके से
फैल गया दीवारों पर
एक बादल
जो बरसने से बच गया
अदृश्य–सा रहता है
घर के भीतर
चीमड़ मुरमुरों और
मटके की तलहटी में रहते केंचुओं को
वह अक्सर दीख जाया करता है
ज्वार / गुल मकई
मैं एक समुद्र हूँ
तुम मेरा चंद्रमा
तुम्हारा मिलना
पूर्णिमा की उत्तेजना भरी रात्रि
मेरा दिल इतना बड़ा हो गया है
कि पूरे शरीर में फैल गया है
नाखूनों तक से “धड़ – धड़” की आवाज़ें आती हैं
कभी यह अनुभव नहीं था
कि मन में भी रक्त
आंधियों की तरह बहता होगा
कानों का लाल होना
समुद्र की सबसे ऊंची लहर है
मैं एक समुद्र हूँ
तुम मेरा चंद्रमा
रात के तट पर / गुल मकई
हम रात के तट पर बैठे हैं
तारों के बीच के अंधकार पर
पैर रखते हुए
अन्तरिक्ष में गुम हो जाने की
कल्पना में
रात दरअसल रति ही है
‘इ’ की मात्रा उड़कर
चाँद बन गई
हमारी जुड़ी हथेलियाँ
फड़फड़ाते समय पर
वज़न की तरह धरी हैं
इसके पहले कि हम खो जाएँ
इस अंधेरे में
लज्जा का आख़री आवरण जो बचा है
उतार दें उसे
पूरी गरिमा के साथ देखें
एक दूसरे की नग्नता
और रोशनी हो जाएँ
हड्डी वार्ड में बच्चा / गुल मकई
(मुदित की कल्पना)
यह जगह है स्कूल से काफ़ी बड़ी
कमरे भी बड़े-बड़े
हर क्लासरूम के ऊपर ‘वार्ड’ लिखा हुआ
ब्लैक बोर्ड चेतावनियों से पटे पड़े
स्कूल की बेंचें
फैलकर बड़ी हो गई हैं
वे अब बिठाती नहीं सुला लेती हैं
सब बच्चों के टिफिन बॉक्स
बॉटलों में बदल कर
चिमगादड़ों की तरह लटके हैं उल्टे
यहाँ जो चार्ट लगे हैं
न अनार-आम के हैं,
न गिनती – पहाड़ों के
और न ही एनिमल्स के
एक आदमी खड़ा है
कपड़े उतार कर
और एक भूत का अस्थि-पंजर है
हमें डराने के लिए
यहाँ की मैडम सफ़ेद युनिफॉर्म में घूमती हैं
वे ख़ुद ही कुछ पढ़ती हैं
लिखती हैं ख़ुद ही कुछ
और कॉपी –किताब बगल में दबाये
भागती हैं इस बच्चे से उस बच्चे तक
(हमारा होमवर्क वो ही करती होंगी –
प्यारी मैडम)
सफ़ेद-सा लबादा और सूंड-सा लॉकेट पहने
हेड मास्टर आते हैं जब
दौड़कर हमारी कॉपियाँ दिखाने पहुँच जाती हैं
हेड मास्टर हमसे गिनती पहाड़े पूछें
उसके पहले ही मैडम सारे लेसन सुना देती हैं
और हम बरी हो जाते हैं
( माँ जैसी मैडम )
तकलीफ़ इसी बात की
कि कड़वी-सड़वी दवाई
और पुट्ठों पर मोटे-मोटे सुए
यहाँ की जानलेवा सज़ा है
लेकिन एक अजीब-सी आज़ादी यहाँ
दिन भर जाने-अनजाने चेहरे चले आते
आँखों में करुणा और होठों पर
न जाने कहाँ से हँसी लिए,
हाथों में फल और बिस्कुट भी
अब तक कहाँ छुपे थे
इतना प्यार करने वाले लोग?
कितने हाथ इस वक़्त
बालू में घर बना रहे होंगे,
कितने हाथ पतंग उड़ा रहे होंगे,
कितने हाथ गेंद फेंक रहे होंगे
लेकिन एक घर,
एक पतंग,
एक गेंद
कम होगी संसार में
क्योंकि वह अभी प्लास्टर में बंद है
आज तीसरा दिन है
हाथ पर पट्टा चढ़े
आज भी इस स्कूल की घंटी नहीं बजी
शायद कल छुट्टी हो जाए
किताब / गुल मकई
जब तू अपनी अच्छी
और प्यारी सहेलियों के नाम बताएगी
तो किताब का नाम लेना मत भूलना
वह जितनी बातुनी है
उतनी ही शर्मीली भी
तू अगर उसे बस्ते में ही बंद रखेगी
तो जान भी न पाएगी
कितनी कहानियाँ तुझे सुनाना चाहती है किताब
उसे हमेशा गोदी में लिए रहना
और उसका हाथ पकड़कर चलना
अनाथ बच्ची की तरह छोड़ मत देना अकेला
ये तू बाद में जानेगी
कि किताब तेरी बच्ची नहीं
माँ थी
पैदा होने के बाद हमें
कई-कई जन्म देने वाली माँ।
निवेदन / गुल मकई
( झिम्पुड़ा के लिए )
मत तोड़ री
फूल अभी
इन्हें डाली पर ही
टँका रहने दे
आज तू
अपने भगवान को
हल्दी कुंकू वगैरह
ज़्यादा लगा देना
फूलों के खिलने की बात
उड़ा दी हवाओं ने चुपचाप
देखना थोड़ी देर में
सुंदर-सुंदर पंखों वाली
तितलियाँ प्यारी प्यारी
आकार थिरकेंगी यहाँ
वे जाने कहाँ-कहाँ से आती है
मन में आस लिए, मिठास लिए
फूल नहीं दिखे अगर
सारी आस खट्टी हो जाएगी
फिर फूलों की रानी
तुझसे कट्टी हो जाएगी
भगवान को तू
क्या किसी की कट्टी चढ़ाएगी
मत तोड़ री
फूल अभी
गिनती मुझको आई / गुल मक
जब से मुझको गिनना आया
गिनती करना मुझको भाया
गिनती ही रहती हूँ सब कुछ
चलते-फिरते घर में, बाहर
आँगन के कंडे और गमले
दादा की धोती और गमछे
साइकल की गिनती हूँ ताड़ी
गाँव में टोटल कितनी गाड़ी
गिनती ही रहती हूँ सब कुछ
लेकिन पत्ते पेड़ के गिनूँ तो आख़िर कैसे मैं
क्योंकि वे हर दम हवा में हिलते-डुलते रहते हैं
जब से मुझको गिनना आया
गिनती करना मुझको भाया
गिनती ही रहती हूँ सब कुछ
गली–मोहल्ले घूम-घूम
हस्पताल में रखी शीशियाँ
विद्यालय में लगी फ़र्शियाँ
हर घर में बिजली के खटके
गिने कुम्हार के सारे मटके
लेकिन तारे आसमान के गिनूँ तो आख़िर कैसे मैं
क्योंकि मेरी आँखों में नींद चढ़ने लगती है
जब से मुझको गिनना आया
गिनती करना मुझको भाया
गिनती ही रहती हूँ सब कुछ
गिनती बड़ा मज़े का खेल
मास्टर जी की सभी किताबें
बस्ते, जूते और ज़ुराबें
गिने खेत के सारे गन्ने
पापा की फ़ाइल के पन्ने
गिनती ही रहती हूँ सब कुछ
लेकिन वे मनमौजी बादल गिनूँ तो आख़िर कैसे मैं
क्योंकि बादल उड़-उड़कर आपस में घुल-मिल जाते हैं
गिम्बी चुक के लिए / गुल मक
अचानक आकर कानों में
गा जाती है – “कुर्र”
उसको पकड़ने जाऊँ तो
उड़ जाती है –“फ़ुर्र”
दिन भर मस्ती शोर-शराबा
चैन नहीं पल भर
उसे सुलाते रात ख़ुद
सो जाती है – “खुर्र”
जंगल, नदियाँ, पर्वत, सागर
पार किए जाती
थके नहीं उसकी गाड़ी
चली जाती है – “ढुर्र”
मेले से लौटते सोये बच्चों का गीत / गुल मकई
हम तो ये सोये, ये सोये
लिए चलो हमें, लिए चलो
सीने से लगाए या कंधों पे उठाए
लिए चलो हमें, लिए चलो
हम तो ये सोये
तांगा मिलता है या नहीं ..
तुम देखो
टेम्पो जाएगा या नहीं ..
तुम पूछो
ऑटो पड़ेगा बहुत महंगा ..
तुम जानो
हो चुके सवार हम तो
लिए चलो हमें, लिए चलो
हम तो ये सोये
बजने दो, बजने दो
उस पुंगी को बजने दो
डम्म – टिक – टिक – प्युं – ट्यू
टन्न – छन्न- ढप्प – ढुम
शोर खिलौनों का मचने दो
पता तो चले सुनसान रस्तों को
आते हैं हम मेले से
लिए चलो हमें, लिए चलो
हम तो ये सोये
ध्यान रहे उस थैली में
मिठाई रखी हमारी
और उस वाली में
कपड़े रखे हमारे
हमीं खोलेंगे सुबह, हमीं
देखो ‘बोट’ को अभी न चलाना
हमीं देंगे सुबह चाभी
बिना छूए थैलियाँ सारी
हमारे तकिये किनारे रखना
मेला हमारा ध्यान से
लिए चलो लिए चलो
हम तो ये सोये
और हाँ .. ऊपर ज़रा देख तो लो
चाँद हमारे साथ-साथ
लौट तो रहा है न
घर से चला था साथ
दिखाते मेले की बाट
अगर छूट गया वहीं
तो लौटेगा किसके साथ
देखो, उसे भी लिए चलो
हम तो ये सोये
हम तो ये सोये।
तेरी गेंद / गुल मकई
गुपचुप… गुपचुप… गुपचुप
तेरी गेंद पड़ी है कोने में
कब से बेजान–सी
जैसे छोड़ दिया तूने संग उसका
कि अब दुनिया में बिलकुल ही अकेली
गुमसुम… गुमसुम… गुमसुम…
एक टांग पर खड़ी है कब से
जैसे मुर्गा बना दिया तूने
ली नहीं फिर कोई
सुधबुध… सुधबुध… सुधबुध
तुझे भले ही न हो चिंता
पर उसे परवाह बहुत है तेरी
क्योंकि गेंद की सारी चेतना है तुझसे
जा, लात से अपनी धकेल दे
या हाथों की अंजुरी में झेल ले
या उठाकर फेंक ही दे
टुप्पढुप्प… टुप्पढुप्प… टुप्पढुप्प
गेंद का घर भर में टप्पे खाते
लुढ़कते, बजते रहना
तेरी सेहत की गवाही है
गुमसुम हैं खिलौने
क्योंकि गेंद तेरी
न हिली, न बोली, न खेली
तू उसकी प्यारी सहेली
बांध दे पैरों में नूपुर
खिल उठेगा नाच उसका
रुन झुन… रुन झुन… रुनझुन
बिल्ली की माँ / गुल मकई
उठ, चल उठ मीऊँ !
सूरज भी निकला बिल से बाहर
भों ओं ओं ओं…
पों ओं ओं ओं…
किए इशारे दूधवालों ने
भोंगे बजाकर
उठ ! उठ कि अब दुनिया चाय पिएगी
और मेरी मीऊँ दूध पर जीएगी
चल ज़रा झमक कर एक अंगड़ाई तो ले
और मोहल्लेवालों को अपना योगा दिखा
क्यूँ री, तू आजकल दूध-वूध
पीती नहीं क्या
कैसी काली-कलूटी दिखती है
उस आंटी की गुड्डी को देख
कितनी गोरी-गुमटी है
और सुन, दूध पर झपट्टा मारने में
लजाया मत कर
कोई आ जाए तो आँखें दिखा
धमका दिया कर –
“शेर का बच्चा हूँ
बहुत दिनों से नहाया नहीं
इसलिए काला-मैला हूँ
कहो, नहाकर आऊँ
बिल्ली से शेर बन जाऊँ
नहीं न… ! तो फिर जहां हो
वहीं से पीछे घूम जाओ
दूध यहीं बाहर भूल जाओ”
याद है एक बार दूध समझ
चूने की बाल्टी में तूने मुँह डाला था
ये कारनामा तेरा
बड़ा ही भोला भाला था
सुन ! वह सामने जो घर है न
तू वहाँ मत जाया कर
उस घर में एक बच्चा पलता है
उसकी माँ का अभाव मुझे खलता है
दूध की कीमत माँ से बढ़कर कौन जानेगा भला
चल, बस! अब बहुत हुई हिदायतें
जीने की करनी हैं कवायदें
मैं भी चलूँ
लौटते हुए तेरे लिए गद्देदार चूहा लाऊँगी
चल, अब उठ भी जा
मीयूं!!
चाँद / गुल मकई
वह आधे चंद्रमा को
हाथ में उठा लेती है
वह आधे चंद्रमा के
आर-पार देखती है
वह काग़ज़ पर
आधे चंद्रमा के
टुकड़े उतार लेती है
वह आधे चंद्रमा को
फ़िर साबुत बचा लेती है
पहाड़ की चोटी से / गुल मकई
मैं पहाड़ की चोटी पर बैठा हूँ
सारा शहर
नक्शे की तरह मेरे सामने फैला है
ऊँचाई
चीज़ों के दरम्याने फ़ासले मिटा देती है
सब कुछ एक-दूसरे से उपजता
एक-दूसरे में होता विलीन
दूर-दूर तक फैले सारे ओर-छोर
एक दृष्टि में सिमटे हुए
लघुता में तब्दील शहर
जैसे आपका हुक्म सुनने को तत्पर अवाम
और आप कोई सम्राट –
ऊँचाई उपदेशक होने का भ्रम है
चोटी पर बैठ सुलझाता हूँ शहर
किसी पहेली की तरह
और लगता हूँ ढूँढने अपना ही घर,
घर के आसपास का कोई निशान
मिलता नहीं मगर कुछ
पर वो जो नहीं ढूँढता
दीख जाता –
ऊँचाई स्वार्थी होने से बचा लेती है
पहाड़ सिखाते हैं
चढ़ाई और ढलान एक होती है –
अंतर सिर्फ़ दिशा का
संसार की कितनी ख़ुशनुमा छत है
पहाड़ की चोटी
-क्या पहाड़ों के भीतर रहा नहीं जा सकता?
पौष / गुल मकई
कोहरे ने लगाया
आपातकाल जारी है
और अमलतास पर ताले पड़े हैं
सलाख़ों-सी लंबी
अमलतास की चेतना शून्य
फलियों के सामने
काली टोपी पहनीं
ठिठुरती बुलबुलें गाती हैं
जनवरी के क्रांति गीत
वे ग्रीष्म को आज़ाद कराने आई हैं।
पानी आजीवन यात्री है / गुल मकई
कोई बोझ नहीं मेरे अस्तित्व का
मैं इतना भारहीन
कि कभी भी उड़ सकता हूँ
मेरा पसारा
ठीक मध्यान्ह के वक़्त
अपनी परछाई जितना
कोई जगह बदलने में
कितना वक़्त लगना है मुझे
क्या है मेरे साथ,
बांधना है जिसे…?
किसी दिशा का भी निर्धारण नहीं
कला आध्यात्मिक रूपान्तरण है
मैं एक अदृश्य प्रयोगशाला में
निरंतर खटता हुआ
मैं एक वक़्त पर कई जगहों पर हूँ
और कई समयों में
कितना जोखिम
इस तरह निर्मूल हो रहने में
कि अपनी कोई जगह ही रेखांकित न हो
पर पानी की जड़ें आख़िर कहाँ होती हैं
पानी आजीवन यात्री है
नाम / गुल मकई
कितना अच्छा हो
कि हमारे नाम न हों
चलो, अगर हों तो
हम पूछें नहीं किसी से
और न बताएं अपने
मिलें जब अजनबी लोगों से
नाम
बिना किसी आहट
एक पक्ष और एक विपक्ष का
तर्कहीन खेमा बाँटने लगते
सारी राजनीति हमारे नामों से शुरू होती है
रविवार / गुल मकई
ढलती दोपहर
तार पर सूखते कपड़ों के बीच से
कैसी तिरछी आती
अपने पलंग पर यह धूप
खिड़की में झूलते
चम्पा के पत्तों की परछाई
रसोईघर में कैसी नाचती
गिलहरी गमलों के पास आकर
कुछ सोच-सोच जाती
चमकते रहते हैं पर्दे रेडियम की तरह
घर में फैलती ये लंबी छायाएँ
और बचे हिस्सों पर धूप की कूचियाँ
कितने अनजान रहते हम
इस दोपहर से
घर भी कितना अपरिचित रहता है
दिन के वक़्त हमसे
एक किरण धूप अचानक / गुल मकई
वह अचानक आई
भरे डबकों की आँखें चौंधियाईं
वह इस तरह आई
जैसे बचपन में खोई बच्ची
अचानक लौट आए जवानी में
अपनी पहचान याद दिलाते
दिखाये तलुवों पर बने छांव के तिल
वह अचरज से ज़्यादा संदेह की तरह आई
बूढ़ी रज़ाइयाँ उसे
जेठ का जिन्न मानतीं
अचार-मुरब्बे की बरनियाँ उसे
मायावी जादूगरनी कहतीं
छातों ने आगाह किया- “न देखें आसमान में”
मानों वह ग्रहण काल में ग्रसित हो रहा सूरज हो
सब डरते थे
उस किरण से
क्योंकि वह तोड़ती थी भरोसा
छत पानी में गलता इकतारा थी
एक किरण धूप ने आँख झपकते
कस दिया ढीला पड़ा तार
गीली सलवार-कमीज़ें भागीं छत की ओर
भीगे दुपट्टे भी भागे
पीछे-पीछे सीलन भरे कपड़े सारे
छत रंग और उमंगों से खिला एक बाग़ हुई
बूढ़ी रजाइयाँ लाख मना करती रहीं
झल्लाती रहीं बरनियाँ
छातों ने उन्हें काफ़िर तक कह डाला
दुपट्टे रस्सी कूद रहे थे
सलवारें झूला झूलने में गर्क
कुछ कपड़े तनी रस्सी पर बाज़ीगरी दिखा रहे थे
खेलों में मगन थी पूरी छत
तभी बादलों की गगनभेदी गर्जना
और एक किरण धूप का
अचानक बिजली में बदलना
अपने बदन समेटने से पहले
घिर गए सब तेज़ बारिश में
बूढ़ी रज़ाइयों, बरनियों, छातों की गालियों को
बादलों की गड़गड़ाहट ढाँपती रही
पहल / गुल मकई
मैं जब आरोप लगाता हूँ
यह समय भयानक है
तो भूल जाता हूँ
कि उसी समय में धड़कता
एक क्षण मैं भी हूँ
इस तरह सारे आरोप
शुरू मुझसे होते हैं
मैं लगाता हूँ जब यह आरोप
कि चरित्र लोगों के
हो गए पतनशील
तो यह भूल जाता हूँ
उन्हीं लोगों में शामिल हूँ मैं भी
इस तरह सारे संदेह
शुरू मुझसे होते हैं
मैं बाज़ार को कोसते हुए
जब लिखता हूँ कविताओं में आक्रोश
तो यह भूल जाता हूँ
इतनी कुव्वत नहीं
कि नकार सकूँ चमकीले प्रलोभन
इस तरह सारे झूठ
शुरू मुझसे होते हैं
रात / गुल मकई
रात मेरी विकलांगता है
मैं इस रात से भागता हूँ
जब लौटकर आता हूँ
अपने हताश अकेलेपन में
शरीर को खूँटी पर टांग देना चाहता
पर ये शरीर उतरता ही नहीं
दिन भर शरीर इसी भुलावे में रखता
कि कितना निर्लिप्त है
कितना अनासक्त
पर रात होते ही
इसमें कुछ जागता है
रजनीगंधा होती है देह
यह धीरे-धीरे खिलती है
गमकती
और गुनगुनाने लगती
मैं सहम कर
इस देह को उतार फेंकना चाहता हूँ
मेरा बिस्तर एक लंबा रेगिस्तान है
अपनी देह की गर्म रेत में
मैं धँसता जाता
पिघलने की हद तक
एक निर्वासित हवा / गुल मकई
कुछ दिनों बाद यह काम भी
ख़त्म हो जाएगा
कुछ दिनों बाद फिर भटकूंगा
नए काम की तलाश में
कुछ दिनों तक रहूँगा सिर्फ़ प्रतीक्षा में
पता नहीं किस चीज़ की
कुछ दिनों बाद लौटूँगा घर अपने
लूँगा चले गए पिता की जगह
और खर्च करूंगा रुपये
कुछ दिनों बाद पूछूंगा सवाल
कहाँ है घर मेरा
मैं कुछ दिनों के लिए
फिर चल पड़ूँगा
एक घर की तलाश में
मेरी नियति / गुल मकई
असंख्य श्राप मेरा पीछा करते हैं
मैं अपनी नियति से भागता हूँ
भेस की तरह बदलता हूँ शहर
रहता हूँ
छुपने के अंदाज़ में
प्रेम की प्रतिक्रिया है विश्वास
जिन्होंने प्रेम किया मुझसे
तोड़ा उनका ही भरोसा मैंने
क्योंकि हर बार दाँव पर लगी थी
स्वाधीनता
स्वतन्त्रता
अ-सामाजिक विचार है
इसका पक्ष लेना याने बाग़ी होना
जब यह ख्याल आए
कि पैसों की दन-फन से ज़्यादा ज़रूरी है
शांति
तो जोख़िम की ख़ातिर
एक उठापटक
जीवन की अनिवार्यता
पर उस शांति में
सन्नाटा है
बहुत कुछ छूट जाने का पछतावा भी
और हर कदम पर
एक नई भूलभुलैया
लौटना / गुल मकई
मुझे लगता है
मैं बार–बार संकल्प की कल्पना में
जी रहा हूँ
संकल्प: लौटने का
जैसे लौटना पढ़ने की तरफ़
लौटना कविता की तरफ़
कभी-कभी सोचता हूँ
अब लौटूँगा संगीत की तरफ़
…अब अभिनय की तरफ़
कभी ये संकल्प कि अब लौटूँगा
कमाने की तरफ़
अब तो परिवार की तरफ़ निश्चित ही
अब लौटूँगा नहीं जी गई उम्र की तरफ़
कितना कठिन है फिर लौट पाना
जब सारे ठौर
जीवन के बीहड़ में
बिखरे हों बेतरतीब
मुझे लगता है
कि अब सिर्फ संकल्प की तरफ़
लौटता हूँ
कलम के बिम्ब / गुल मकई
हाथ की छठी उंगली है कलम
जैसे संवेदना की छठी इंद्रीय
पाँच पाल वाली एक नाव का
मनमौजी चप्पू है कलम
कलम तड़ित चालक है
ख़याल बिजली की तरह गिरता है
सारा विद्युत आवेश
उतर जाता काग़ज़ में
अदृश्य
भाषा में‘अर्थ’हो जाता
एकांगी निसैनी है कलम
रचना अमरता का वरदान है
लिखने के बाद सब कुछ
अ-क्षर हो जाता
एक जादुई जलप्रपात है कलम
जो गिरता है काग़ज़ की खाड़ी में
वह फूटता कहाँ से है
यह सोच-सोच कलम खाली हो जाती
शब्द अगर छाया हैं कलम की
तो प्रकाश का वह स्रोत कहाँ है?
तकिया / गुल मकई
ज़ीने की यही सबसे ऊपरी सीढ़ी
बाक़ी सीढ़ियाँ
नींद के तहख़ाने में उतरी हुईं
अंधेरी गहराइयों में फैले
अपने ही तहख़ाने में
लौटा ले जाती है नींद
बेहद शांत और महफूज़ घर नींद का
जीने के लिए
चाहे जितनी धका पेल मची हो
शुक्र है नींद के लिए
कोई लड़ाई नहीं
तकिया एक सीढ़ी की
इबादतगाह है
और इस पर मत्था टेकना
थके शरीर की सबसे ईमानदार प्रार्थना
छायाएँ / गुल मक
सूर्य एक चरवाहा है
साथ लेकर आता
असंख्य मवेशियों का रेवड़
हर एक को
पेड़ तले बांध
ख़ुद ऊँचे पहाड़ के पीछे
कहीं सुस्ताता
शाम को घर लौटते
खोलकर ले जाता
सारे मवेशी अपने
बाणगंगा की घाटी / गुल मकई
अंधेरे के तंबुओं में
विश्राम करते हैं तारे
शामला हिल्स की ढलानों में
जगमगाहट की बस्ती को देख
झील की ख़ूबसूरती भी हैरान
ये चाँद के संतानों की छावनी है
तारे एक रात पहले
यहीं होते हैं जमा
यहीं से फिर आकाश की ओर
भरते हैं उड़ान
रंगोली बनाती लड़की / गुल मकई
रंग का हर कण
वास्तव में मिट्टी का कण है
वह कठपुतली की तरह
नचाती है रंगों को
रंग उसके मन का अभिनय करते हैं
हर आकृति में कोई नया ही किरदार
सब के चेहरों पर
भाव लेकिन एक
कि त्यौहार जीवन का रस है
सारे रंग बह रहे हैं
उसके भीतर से ही
उसकी चुटकी रंगों का आबशार है
और वह ओटला जो क्षण भर पहले
रंगमंच था
अब एक समुद्र है
( त्यौहार का अगला दिन रीता हुआ )
थकान और ऊब से भरे
रंगों के चेहरे
लड़की उनसे लौट जाने की गुहार करने आई
उड़ने लगे रंगों के चमकीले बाने
अपनी भूमिकाएँ उतार
आकृतियों से छूटकर वापस लौटते हैं रंग
मिट्टी अपना दरवाजा खोलती है।
एक दिन है देश / गुल मकई
एक देश है दिन
सूरज उसका राष्ट्रीय ध्वज
हर एक जो
गुंथा हुआ काम में –
सलामी दे रहा
फहराते झंडे को
हर एक आवाज़
जो किसी क्रिया से उपजी है –
राष्ट्र-गान है।
समय और बचपन / गुल मक
(चिंपुड़ा के लिए)
उसने मेरी कलाई पर
“टिक-टिक” करती घड़ी देखी
तो मचल उठी, वैसी ही घड़ी पाने
उसका जी बहलाते
स्थिर समय की एक खिलौना घड़ी
बांध दी उसकी नन्ही कलाई पर
पर घड़ी का खिलौना मंजूर नहीं था उसे
“टिक-टिक” बोलती
समय बताती
घड़ी असली
हठ में उसके थी मचल रही
अडिग था मैं विचार पर अपने
डटी थी वह ज़िद पर अपनी
स्वीकार नहीं था मुझे
कि यह समय उसे छुए
और बचपन उसका
तेज़ धार में बह जाए
कितना कायर था यह विचार
(और प्राकृतिक तो ज़रा भी नहीं)
इस बर्बर और आतंक भरे समय में भी
खिलेंगे नए फूल
उगेंगे पंख नए
यह खिलना और उगना
हर आतंक की हार है
इसी उम्मीद ने
डर से लड़ना सिखाया
और उसकी नन्ही कलाई पर अब
“टिक-टिक” बोलती घड़ी असली
फूल की तरह खिल रही है
और समय को नए पंख आ रहे हैं।
बाल जिज्ञासा / गुल मकई
मुनिया:
अब्बू! तुम कहा करते हो
कि तुमने बहुत दुनिया देखी है
तो बताओ न! कहाँ देखी है?
मुझे भी दिखाओ, जहाँ दुनिया देखी है
पापा:
बेटा! दुनिया इतनी आसानी से नहीं दीखती
उसे देखने के लिये आँख नहीं,
एक उमर चाहिये
और सिर के बाल जैसे-जैसे सफेद होने लगते हैं
दीखती जाती है दुनिया
मुनिया:
अब्बू! तुम कहते हो
कि खूब लंबी है उमर मेरी
तो, उमर है मेरे पास
रहा सवाल बालों का
तो तुम्हारी डिब्बी से चूना निकाल
रंग लूंगी बस
बोलो, अब दिखेगी कि नहीं दुनिया
पापा:
बेटा ! दुनिया देखने की ज़िद न कर
अभी ये तेरा काम नहीं
अभी तो तू पढ़, खेल, खा-पी, मौज कर
‘दुनिया’ में कोई खेल-खिलौने थोडे ही हैं
न मेले हैं और न फूलों से भरे
फिसल पट्टियों वाले बाग़ हैं।
‘दुनिया’ देखना और दिखाना
तुझ जैसे मासूमों के लिये
सख़्त मना है
क्योंकि दुनिया महज़
कड़वे-खट्टे अनुभवों का एक मुहावरा है
तुझे पता है?
दुनिया देखने से हर कँवलापन
कड़ा हो जाता है
और हर बच्चा
वक़्त से पहले बड़ा हो जाता है।
सुन, जैसे-जैसे तू बड़ी होगी
दुनिया देखने लग जाएगी
और जब बूढ़ी होगी
तो दूसरों से यह कहने भी लग जाएगी
“मैंने बहुत दुनिया देखी है
बहुत देखी है दुनिया”
मुनिया:
नहीं अब्बू!
मैं तो आज ही देखूँगी दुनिया
मुझको नहीं होना बड़ा-बूढ़ा
मै तो आज ही देखूँगी दुनिया
पापा:
अच्छा, अच्छा !! हाथ-पैर मत पटक
अपने हठ पर इतना मत अटक
हम आज चलेंगे बाज़ार
वहाँ से लेंगे सुन्दर-सी एक गुड़िया
एक झाँझ वाला बन्दर
और चौराहे पर देखेंगे खेल मदारी का
फिर हलवाई से दिलवाऊँगा तुझे लड्डू
वहाँ से लौटते हुए
तुझे दुनिया भी दिखा दूँगा, चल
हम आज चलेंगे बाज़ार
(बाज़ार से लौटते हुए)
मुनिया:
अब्बू! हम तो लौट रहे हैं खाली हाथ
तुमने तो कहा था कि ये लेंगे-वो लेंगे
बग़ैर कुछ चीज़ लिये
मैं ना जाती आपके साथ
अब्बू हम क्यों लौट रहे खाली हाथ?
पापा:
बेटा, तुझे अगर इतनी चीज़ें दिला देता
तो बाकी बचा यह महीना
हमारी जान निकाल लेता
कि तेरे खिलौनों से ज़्यादा ज़रूरी
तेरा मेरा पेट है
बोल है कि नहीं…..?
मुनिया:
अब्बू, मुझे कुछ नहीं मालूम
मुझे तो बस इतना है मालूम
कि आपने वायदा किया था
और आप मुकर गए
आपको हमसे ज़्यादा अपनी पड़ी है
क्या चूल्हे की चिंता गुड़िया से बड़ी है?
और तो और…दुनिया भी नहीं दिखाई तुमने
जाओ, मैं कट्टी हुई आपसे…
पिता:
मैं तुझे दुनिया ही तो दिखा रहा था मुनिया
कि जहाँ वाइदा है, सपने हैं, छल है, ख़ुदगर्ज़ी है
पापी पेट की छोटी-बड़ी मर्ज़ी है
वही तो है दुनिया
कह, अब देखी कि नहीं दुनिया?
कह तो… मुनिया
सृजन / गुल मकई
कोरा काग़ज़ मुझे ललचाता है
हाथों में एक जुंबिश-सी मचलती है
और दाहिना हाथ ‘स्पाइडर मैन’ की
चमत्कारी ख़ूबी से भर उठता है
अक्षरों का जाल निकलकर
काग़ज़ को गिरफ़्त में लेता है
मैं अपनी संवेदना की लार पर
याने एक अदृश्य तार पर
झूलता हुआ दुनिया तक पहुँचता हूँ।
भारतीय रेल का गीत
पूरे परे उरे दरे
मरे कोरे मेरे
भारे भारे भारे
पूमरे पमरे
उमरे दमरे
भारे भारे भारे
उपूरे दपूरे
उपरे दपरे
भारे भारे भारे
दपूमरे उपूसीरे
पूतरे
भारे भारे भारे
लक्ष्मीनामस्त्रोतम
जेब में फूटी न हो तो – कौड़ी
चमड़ी जाने पर जो न जाए वो – दमड़ी
गड़ा मिल जाए तो – धन
तहखाने में दबा मिले तो – खज़ाना
अपार हो तो – संपत्ति
बेहिसाब हो तो – दौलत
ब्लैक हो तो – मनी
बैंक में हो तो – रकम
महीने भर बाद मिले तो – पगार
रोज़ मिले तो – दाड़की
हाड़ तुड़ाकर मिली तो – मजूरी
भाग्य से मिले तो – लॉटरी
कृपा से हो हासिल तो – ऋण
माथे जो चढ़ जाए तो – कर्ज़
लिखी जाए तो – वसीयत
हाथ लग जाये तो – माल
छापा पड़ने पर मिले तो – नक़दी
लूटी गई जो , वो – तिजोरी
रखी गई वो – रेहन
पूजी जाए तो – लक्ष्मी
सज़ा की तरह भुगतें तो – जुर्माना
सम्मान सहित मिले तो – मानदेय
ज़ब्त हो जाए तो – ज़मानत
सौंपी अगर जाए तो – अमानत
रिहाई के बदले मांगो तो – फ़िरौती
बिदाई के बदले मांगो तो – दहेज
जिसे देना न टाला जाए वो – कर
ऐसी माँ लछमी के नाम हैं सहस्तर
आखिरी मैदान / गुल मकई
लगभग युद्ध क्षेत्र जैसा दिखाई देता है
खेल का मैदान इस वक़्त
पच्चीसों टीमें
एक साथ खेलती हैं क्रिकेट
सारे स्टंप्स बहुत पास-पास गड़े हुए
पहचानना मुश्किल
कौन-सी गेंद किसके बल्ले से छूटी
कौन-सा कैच कौन लपके
वह बाउंड्री की ओर जाती गेंद
रोकें या नहीं
बहुत गफ़लत और माथापच्ची यहाँ
मगर क्या किया जाये
शहर में अब यही एकमात्र मैदान बाक़ी
कुछ दिनों बाद
यहाँ भी
एक बहुमंज़िला कॉम्प्लेक्स बन जाएगा
खुल जाएगा भव्य बाज़ार
और दफ़न हो जाएंगे खेल
खुली हवा और गेंद को पुकारता आकाश
लिफ़्ट चढ़कर बच्चे
जाएंगे किसी मंज़िल पर
उनके हाथों में होगा रिमोट
वे मशीनों के साथ खेल रहे होंगे
क्रिकेट
दिसंबर / गुल मकई
धूप ऐसी रज़ाई
जो हमें मुफ़्त में मुहैया
जैसे घास मवेशियों के लिए
वह इतनी अंतहीन
कि पाँव कहीं से भी
बाहर नहीं रहते
लेकिन वह वहाँ-वहाँ से फटी है
जहाँ-जहाँ छांव है
हवाई अड्डा / गुल मकई
नोक भर ज़मीन के लिए
शुक्रगुज़ार
आसमान के बाशिंदे
महाराणा प्रताप के
भाले की नोक
चिड़ियों का हवाई अड्डा है
हारमोनियम / गुल मकई
ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर से
उँगलियाँ पार करती हैं रास्ता
दोनों ओर
रुका ट्रेफिक
लगातार बजाता है हॉर्न
पर सिग्नल ‘हरा’ नहीं होता
रात पाली / गुल मकई
दिन भर
लेटी रहीं
वे छायाएँ
अब उठ खड़ी हुई हैं
और पेड़ सोने चले गए
मर्तबान का दर्शन / गुल मकई
जब किसी मर्तबान को देखता हूँ
और सोचता हूँ उसके बारे में
तो मुझे पृथ्वी एक मर्तबान लगती है
घड़ी और आदमी भी एक मर्तबान लगता है
यहाँ तक कि मौसम भी
काग़ज़ / गुल मकई
बर्फ़ के नीचे
दबे हैं
शब्द
कलम से
हटाई जा रही
बर्फ़
आँखें / गुल मकई
रेल्वे स्टेशन की तरह
होती हैं
आँखें
सारी यात्राएँ
वहीं से
होती हैं
शुरू
तानपूरे पर संगत करती स्त्री / गुल मकई
पहले-पहल
उसी को देखा गया
साँझ में चमके
इकलौते शुक्र तारे की तरह
उसी ने सबसे पहले
निशब्द और नीरव अन्तरिक्ष में
स्वर भरे
और अपने कंपनों से
एक मृत-सी जड़ता तोड़ी
उसे तरल और उर्वर बनाया
ताकि बोया जा सके – जीवन
वह अपनी गोद में
एक पेड़ को उल्टा लिए बैठी है
इस तरह उसने एक आसमान बिछाया है
उस्ताद के लिए
वह हथकरघे पर
चार सूत का जादुई कालीन बुनती है
जिस पर बैठ “राग” उड़ान भरता है
हर राग तानपूरे के तहख़ाने में रहता है
वह उँगलियों से उसे जगाती है
नहलाती, बाल संवारती,
काजल आँजती, खिलाती है
उसने हमेशा नेपथ्य में रहना ही किया मंजूर
अपनी रचना को मंच पर
फलता-फूलता देख
वह सिर्फ़ हौले-हौले मुस्कुराती है
उसे न कभी दुखी देखा,
न कभी शिकायत करते
वह इतनी शांत और सहनशील
कि जैसे पृथ्वी का कोई बिम्ब हो
अपने अस्तित्व की फ़िक्र से बेख़बर
उसने एक ज़ोखिम ही चुना है
कि उसे दर्शकों के देखते-देखते
अदृश्य हो जाना है।
दस्ताने / गुल मकई
मैं गरम कपड़ों के बाज़ार में था
मन हुआ
कि स्त्री के लिए
हाथ के ऊनी दस्ताने ले लूँ
पर ध्यान आया
कि दस्ताने पहनने की फुर्सत
उसे है कहाँ
गृहस्थी के अथाह जल में
डूबे उसके हाथ
हर वक़्त गीले रहते हैं
तो क्या गरम दस्ताने
स्त्री के हाथों के लिए बने ही नहीं…?
” ये सवाल हमसे क्यों पूछते हो…”
तमाम गर्म कपड़े
ये कहते, मुझ पर ही गर्म हो रहे थे
हम कवि / गुल मकई
हम बार-बार जीवन की,
मृत्यु और प्रेम की व्याख्या करेंगे
हम लिखेंगे और
अपनी ही स्थापनाओं को उलटेंगे
हम फिर कुछ नया
मगर अविश्वसनीय कहेंगे
हम बार-बार बदलने वाला सच लिखेंगे
हम लिखेंगे और
लिख चुकने के बाद
रह जाएगा हमेशा ये मलाल
कि यह वैसी नहीं
जैसी चल रही थी मन में
हम थोड़ी अनिच्छा और
थोड़ी नाक़ाबिलियत के बावजूद
लिखना चाहेंगे कुछ ऐसा
जिसे संगीत में ढाला जा सके
नए बिंबों की उधेड़बुन
फिर हमें घरों से विरक्त करेगी
हमारी स्याही में करुणा का द्रव होगा
भले ही हम द्रवित न होंगे
पर हम लिखेंगे –
सम्वेदना।
अजंता के लिए / गुल मकई
दीमक की तरह
लकड़ी के ठोस बंद में
रास्ते बनाकर प्रवेश करना
लकड़ी की नागरिकता पाना है ।
चट्टानों के बारे में ऐसा सोचें तो…?
चट्टानों के कठोर में
उनके जन्मजात बंद में,
कालातीत मौन में प्रवेश कर
उसकी अस्थियों में घूमें
– मज्जा बनें
अज्ञात रगों में रक्त की तरह बहें ।
जिज्ञासा ऐसा वेगवान और उद्विग्न आगंतुक
कि पत्थरों के बंद दरवाजे अपने आप खुल जाते
चट्टानों के घर का आदिम बाशिंदा है अंधकार
आश्चर्य से फटी आँखें
चकित होठों और
गर्वोन्नत मस्तकों का प्रकाश लेकर
गुफाओं में सूर्योदय की तरह प्रवेश करना
पत्थरों की नागरिकता पाना है।
बस्ती में से रेल / गुल मकई
रेल से पटरियों का भले एक ही रिश्ता हो
पर इस बस्ती के
पटरियों से अनेकों हैं नाते
ओटला, अहाता
घाट नदी का, ओसारा,
बरामदा स्कूल का, बगीचा
चरागाह, हाट, सैरगाह
सिगड़ियाँ सुलगाने का मचान
कपड़े सुखाने की तार
चोटियाँ गूँथने का आंगन
पार्क की बेंच, शौचालय
सूअरनी का प्रसूति गृह
कुत्तों का रेस्ट हाउस…
पटरियाँ उन उन सलाइयों–सी
जिन पर बस्ती की घनी दुनिया का
स्वेटर बुना जा रहा
यहाँ रफ़्तार के गुरूर पर
रेल लगाम कसती
और सीटी बजाती
जैसे इजाज़त मांगती
एक जमा-जमाया संसार
अनमनेपन से होता
टस से मस
हिचकिचाते गुज़रती रेल
और सीटी बजाती
जैसे शुक्रिया कहती
ताश के पत्तों और फुर्सत के बीच से
गुज़रती रेल
कंघी और उलझे बालों के बीच से गुज़रती,
साबुन और पानी के बीच से,
गुमठी और पैसा पकड़ी नन्ही मुट्ठी के बीच से
रेल गुज़रती
मुर्गी के दड़बे में से…
बकरी के खूँटे को कँपाती
नाली में बहते झाग के समानान्तर
गुज़रती रेल
घर के हर कमरे से गुज़रते
एक नया ही कमरा होती
और सिग्नल जब यहीं रोक देता
रेल, दो पड़ोसी देशों के बीच
‘नो मेन्स लैंड’ लगती
और यह पृथ्वी दो गोलार्धों में बँट जाती
इस अलगाव में भी संवाद की गुंजाइश निकल ही आती है
दयनीय से मकानों का
उजाड़ टूटता है
एक चमक फूटने के साथ
बाहरी आंगन हरकत में आते हैं
एक गति दौड़ती है
कई सारी भरी टोकनियाँ
मालदार आवाज़ों के साथ
रेल की खिड़कियों पर मंडराती हैं
रंगों का आषाढ़ / गुल मकई
पुताईवालों के कपड़े
रंगों की बारिश में भीगे हैं
वे एक घर को
इंद्रधनुष में बदल कर आए हैं
खूँटियों पर टाँगते है वे कपड़े
घर की बदरंग दीवारों पर
फैल जाती हैं रंगीन बूँदें
बच्चों को उम्मीद है
रंगों का आषाढ़ आयेगा एक दिन
उनके घर भी
फिलहाल पुताई के कपडों में
वे मानसून की आँधी की तरह दौड़ रहे हैं
शाम अगस्त की / गुल मकई
चारों तरफ़ सिर्फ़ हरापन है
और भीगी पृथ्वी
सूरज लंबे अवकाश पर जा चुका
हर बूंद एक मनमौजी बीज
पीले खजूर के गुच्छे
पंख-पसारा खोल नाचते हैं
एक जवान होते तालाब के
सीने पर
तमगे की तरह चमकता है चाँद
चुंबनों की चमक / गुल मकई
रात के वक़्त
जब सारी दुनिया
अपने-अपने घरों में
लौट जाती है
और रास्तों का कोई अर्थ नहीं बचता
बंद घरों के भीतर
खुलने लगता है प्रेम
चुंबनों की चिंगारी से
चमकता घर
तारे-सा दीखता है
हर घर की इच्छा एक तारा होना
पृथ्वी भर उठती है चमकते तारों से
अन्तरिक्ष में धूप फैलती है
धातु रोग / गुल मकई
रेल की खिड़की से देखता हूँ
घरों की पीठ पर लिखे
धातु और गुप्त रोग के
शर्तिया इलाज के विज्ञापन
एक गाँव से चढ़ते हैं दूधवाले
चौंकता हूँ उनकी टंकी देख
जो अब प्लास्टिक में बदल गई है
कानों में देर तक गूँजती है
लोहे की टंकार
आघात की तरह यह याद
चलती रेल में खँगालने लगा
कि धातुएँ अब कहाँ कहाँ बची हैं
एक लाचार आश्चर्य कि
ज़िंदगी से बहुत गुप्त रूप से
गायब होने लगी हैं धातुएँ
उन गुम धातुओं के लिए
कोई वैद-हक़ीम दिखाई नहीं देता
रेल चल रही है
वैधानिक चेतावनी में ‘ना’ / गुल मकई
बहुत थोड़ी होती है उसकी उम्र
बलि चढ़ाने के लिए ही जैसे
जन्म दिया जाता उसे
किसी निषेधात्मक वाक्य को लिखते हुए
जब आती होगी बारी ‘ना’ की
आशंका का एक गड्ढा -सा
मालूम पड़ता होगा
-उसे लिखना याने डुबो देना है
‘ना’
एक अक्षर है महज़
लेकिन अकेला नहीं
विरोध का जुलूस उसके साथ है
वह अकेला अक्षर
अनुशासन का पूरा वाक्य है
और नकारात्मक भाषा का
एक सकारात्म्क बिम्ब
उसे मिटा देने पर बनी ख़ाली जगह
शहीद स्मारक है
और हमारी असभ्यता की मुनादी भी।
हमारी उम्र का कपास धीरे धीरे लोहे में बदल रहा है (कविता)
हमारी गेंदें अब लुढ़कती नहीं
चौकोर हो गई हैं,
खिलौने हमारे हाथों में
आने से कतराते हैं,
धींगा-मस्ती, हो-हुल्लड़ याद नहीं
हमने कभी किया हो
पैदाइश से ही इतने समझदार थे हम
कि किसी चीज़ की जिद में
कभी मचले या रोए नहीं
स्कूल को जाने वाला रास्ता
नहीं देखा हमारे पैरों ने
हमारी उम्र का कपास धीरे-धीरे
लोहे में बदल रहा है
दूध से भरे हमारे कोमल शरीर
पसीने से लथपथ रहते हैं अक्सर
और हमारे माँ-बाप को फख्र है हम पर
कि हम गिरस्थी का बोझ उठाने के काबिल हो गए हैं
हम पटाखों में भरते हैं बारूद
होटलों में कप बसियाँ धोते हैं,
रेल के डिब्बे में अपनी ही क़मीज़ से
लगाते हैं पोंछा
गंदगी के ढेर पर बीनते हैं
प्लास्टिक और काँच
ग्रीस की तरह इस्तेमाल होता है
हमारा दूधिया पसीना
कारख़ानों के बहरा कर देने वाले शोर
और दमघोंटू धुएँ के बीच
हम तरसते हैं अक्सर
बाहर आसमान में कटकर जाती
पतंगों को लूटने
लेकिन हमने कभी सवाल नहीं उठाए
कि खेलने-कूदने की आज़ादी क्यों नहीं हमें?
क्यों पढ़ने-लिखने का हक़ नहीं हमें भी?
ये सवाल न उनसे पूछे
जिन्होंने काम पर भेजा हमें
और न पूछे उनसे जिन्होंने
काम पर रखा हमें
दुत्कार और लताड़ से भरे शब्द ही
हमारे नाम रह गए हैं
हमारे बारे में ये दुआएँ की जाती हैं
कि हम कभी बीमार न पड़ें
शोरगुल और धमा-चैकड़ी मचाते बेफिक्र बच्चे
हमें दिखाई न दे जाएँ
और स्कूल जाते बच्चों का
हमसे कभी सामना न हो
दूध से भरे हमारे कोमल शरीर
पसीने से लथपथ रहते हैं अक्सर
हमारी उम्र का कपास
धीरे धीरे लोहे में बदल रहा है.
भोपाल-कुछ लैण्ड स्केप्स
सुंदरता वह प्रतिभा है
जिसे रियाज़ की ज़रूरत नहीं
भोपाल ऐसी ही प्रतिभा से सम्पन्न और सिद्ध.
यह शहर कविताएँ लिखने के लिये पैदा हुआ
आप इसे पचमढ़ी का लाड़ला बेटा कह सकते हैं
पहाड़ यहाँ के आदिम नागरिक
झीलों ने आकर उनकी गृहस्थियाँ बसाई हैं.
यह शहर जितना पहाड़ों पर चढ़ा हुआ
उतना ही झीलों में तैर रहा
यह ऊँचाई और गहराई दोनों के प्रति आस्थावान
इस शहर में पानी की ख़दानें हैं
जिनमें तैर रहा है मछलियों का अक्षय खनिज भंडार.
इस शहर में जितनी मीनारें हैं,
उतने ही मंदिर भी,
लेकिन बागीचों की तादाद उन दोनों से ज़्यादा.
रात भर चलते मुशायरों और कव्वालियों के जलसों में
चाँद की तरह जागते इस शहर की नवाबी यादें
गुंबदों के उखड़ते पलस्तरों में से आज भी झाँकती हैं.
इस शहर का सबसे खूबसूरत वक़्त
शाम को झीलों के किनारे उतरता है
और यह शहर अपनी कमर के पट्टे ढीले कर
पहाड़ से पीठ टिका
अपने पाँव पानी में बहा देता है
और झील में दीये तैरने लगते हैं.
इसका पुरानापन हफ़्ते के वारों में सिमटा
साल के महीनों की तरह बारह नंबरों तक
इसका नयापन विस्तारित
रासायनिक त्रासदी का पोस्टर है ये शहर
इसने अपने गहरे शोक में ब्रश भिगोए
और रंग फैलाए
इसने जीवन की निरंतरता को सबसे बड़ी कला माना
यह आधा आन्दोलनों और हड़तालों में बीतता हुआ
और आधा मुआवज़ों के चक्कर में उलझा हुआ
यहाँ राजपथों और पगडंडियों के अपने-अपने अरण्य हैं
यह शहर लाल चट्टानों की असीम ख़दान है
बेशकीमती खनिजों सी लाल चट्टानों की
ख़ुदाई शुरू हो चुकी है
इस शहर की जड़ों पर हमले की
यह शुरूआत है
किसी भी शहर का दुर्भाग्य है महानगर होना
यह अब उसी कगार पर है
पहाडियाँ सिमट रही हैं, धीरे-धीरे
झीलें पानी में अपने विधवा होने
प्रतिबिंब देख डरती हैं
यह शहर ऐसी चिन्ताओं वाली कविताएँ
रोज लिख रहा है,
पढ़ रहा है
और
फाड़ रहा है……..