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रोहित रूसिया की रचनाएँ

अब नहीं आती

अब नहीं आती
किसी की चिट्ठियाँ

नेह में
मनुहार में
जीत में या हार में
चुक गयी है
वेदना भी
वर्जना कि धार में
स्वार्थ की सीलन ढँकी
दिखती है
मन की भित्तियाँ

अब नहीं आती
किसी की चिट्ठियाँ

आदमी बढ़ता गया
चढ़ता गया
चढ़ता गया
और समय की होड़ में
खुद, आवरण
मढ़ता गया
भूल बैठा
झर रही हैं
नींव की भी गिट्टियाँ

अब नहीं आती
किसी की चिट्ठियाँ

 

अबके दिन

अबके दिन
बीत रहे

संझाते रिश्तों की
नावें सब डोलीं
माँझी से, सकुचाती
आँखों से बोलीं
वे ही ले डूबेंगे
अब तक जो
मीत रहे

अबके दिन
बीत रहे

किरणों की किरचों से
उजियारा घायल
छाया को खोज रहा
जहाँ-तहाँ पागल
गुपचुप मुठभेड़ों में
साये सब
जीत रहे

अबके दिन
बीत रहे

फागुन

आया फिर
आँगन में
रंग लिए फागुन

टेसू हर डाल पर
फगुआ सुनायें
पात-पात
सुन-सुन के
झूम-झूम जायें
पंछी गुनगुनाने लगे
प्यार भरी धुन

राह तके बालम की
रंग लिए गोरी
छोडूँ ना साजन को
खेलूंगी होरी
बजने बेचैन दिखी
पायल
छुन-छुन

शिकवे सब, भूल चली
मस्तों की टोली
हर दिल को
रिझा रही
रंग भरी बोली
प्रीति में खो जाएँ
आओ
हम-तुम

आया फिर
आँगन में
रंग लिए फागुन

एक पंछी ढूँढता है

एक पंछी ढूँढता है
फिर बसेरा

कल यहीं था
आशियाना
कह रहा था
जल्दी आना
ढूँढता वह फिर रहा है
अपना बचपन
घर पुराना
तोड़ा जिसने
क्यों न उसका
मन झकोरा

अब न वह
रातें हैं अपनी
अब न वह
बातें हैं अपनी
हम ही थे खुदगर्ज़
हमने
खुद ही लूटी
दुनिया अपनी
क्या कहें
क्यों खो गया
अपना सवेरा

उसने तो जीवन
दिया था
साँसों में भी
दम दिया था
आसमाँ हो
या ज़मी से
दाम न उसने
लिया था
हमने फिर
क्यों चुन लिया
खुद ही अन्धेरा

एक पंछी ढूँढता है
फिर बसेरा

 

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