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‘मज़हर’ मिर्ज़ा जान-ए-जानाँ की रचनाएँ

चली अब गुल के हाथों से लुटा कर कारवाँ अपना

चली अब गुल के हाथों से लुटा कर कारवाँ अपना
न छोड़ा हाए बुलबुल ने चमन में कुछ निशां अपना

ये हसरत रह गई क्या क्या मज़े से ज़िंदगी करते
अगर होता चमन अपना गुल अपना बाग़-बाँ अपना

अलम से याँ तलक रोईं के आख़िर हो गईं रूसवा
डुबाया हाए आँखों ने मिज़ा का ख़ानदाँ अपना

रकीबाँ की न कुछ तक़सीर साबित है न खूबाँ की
मुझ ना-हक़ सताता है ये इश्‍क़-ए-बद-गुमाँ अपना

मेरा जी जलता है उस बुलबुल-ए-बे-कस की ग़ुर्बत पर
कि जिन ने आसरे पर गुल के छोड़ा आशियां अपना

जो तू ने की सो दुश्‍मन भी नहीं दुश्‍मन से करता है
ग़लत था जानते थे तुझ को जो हम मेहर-बाँ अपना

कोई आज़ुर्दा करता है सजन अपने को है ज़ालिम
कि दौलत-ख़्वाह अपना ‘मज़हर’ अपना ‘जान-ए-जाँ’ अपना

हम ने की है तौबा और धूमें मचाती है बहार

हम ने की है तौबा और धूमें मचाती है बहार
हाए बस चलता नहीं क्या मुफ़्त जाती है बहार

लाला-ए-गुल ने हमारी ख़ाक पर डाला है शोर
क्या क़यामत है मुओं को भी सताती है बहार

शाख़-ए-गुल हिलती नहीं ये बुलबुलों को बाग़ में
हाथ अपने के इशारे से बुलाती है बहार

हम गिरफ़्तारों को अब क्या काम है गुलशन से लेक
जी निकल जाता है जब सुनते हैं आती है बहार

नर्गिस ओ

न तू मिलने के अब क़ाबिल रहा है

न तू मिलने के अब क़ाबिल रहा है
न मुज को वो दिमाग़ ओ दिल रहा है

ये दिल कब इश्‍क के क़ाबिल रहा है
कहाँ इस को दिमाग़ ओ दिल रहा है

ख़ुदा के वास्ते इस को न टोको
यही इक शहर में क़ातिल रहा है

नहीं आता इसे तकिए पे आराम
ये सर पाँव से तेरे हिल रहा है

गुल की खिली जाती हैं कलियाँ देखो सब
फिर भी उन ख़्वाबीदा फ़ितनों को जगाती है बहार

 

 

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