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और अब ये कहता हूँ ये जुर्म तो रवा रखता

और अब ये कहता हूँ ये जुर्म तो रवा रखता
मैं उम्र अपने लिए भी तो कुछ बचा रखता

ख़याल सुब्हों किरण साहिलों की ओट सदा
मैं मोतियों जड़ी बंसी की लय जगा रखता

जब आसमाँ पे ख़ुदाओं के लफ़्ज़ टकराते
मैं अपनी सोच की बे-हर्फ़ लौ जला रखता

हवा के सायों में हिज्र और हिज्रतों के वो ख़्वाब
मैं अपने दिल में वो सब मंज़िलें सजा रखता

इन्हीं हदों तक उभरती ये लहर जिस में हूँ मैं
अगर मैं सब ये समुंदर भी वक़्त का रखता

पलट पड़ा हूँ शुआओं के चीथड़े ओढ़े
नशेब-ए-ज़ीना-ए-अय्याम पर असा रखता

येब कौन है जो मेरी ज़िंदगी में आ आ कर
है मुझ में खोए मेरे जी को ढूँडता रखता

ग़मों के सब्ज़ तबस्सुम से कुंज महके हैं
समय के सम के समर हैं मैं और क्या रखता

किसी ख़याल में हूँ या किसी ख़ला में हूँ
कहाँ हूँ कोई जहाँ तो मेरा पता रखता

जो शिकवा अब है यही इब्तिदा में था ‘अमजद’
करीम था मेरी कोशिश में इंतिहा रखता

बढ़ी जो हद से तो सारे तिलिस्म तोड़ गई

बढ़ी जो हद से तो सारे तिलिस्म तोड़ गई
वो ख़ुश-दिली जो दिलों को दिलों से जोड़ गई

आबद की राह पे बे-ख़्वाब धड़कनों की धमक
जो सो गए उन्हें बुझते जगों में छोड़ गई

ये ज़िंदगी की लगन है के रत-जगों की तरंग
जो जागते थे उन्हीं को ये धुन झिंझोड़ गई

वो एक टेस जिसे तेरा नाम याद रहा
कभी कभी तो मेरे दिल का साथ छोड़ गई

रूका रूका तेरे लब पर अजब सुख़न था कोई
तेरी निगह भी जिसे ना-तमाम छोड़ गई

फ़राज़-ए-दिल से उतरती हुई नदी ‘अमजद’
जहाँ जहाँ था हसीं वादियों का मोड़ गई

दिल ने एक एक दुख सहा तनहा

दिल ने एक एक दुख सहा तनहा
अंजुमन अंजुमन रहा तन्हा

ढलते सायों में तेरे कूचे से
कोई गुज़रा है बारहा तन्हा

तेरी आहट क़दम क़दम और मैं
इस मइयत में भी रहा तन्हा

कहना यादों के बर्फ़-ज़ारों से
एक आँसू बहा बहा तनहा

डूबते साहिलों के मोड़ पे दिल
इक खंडर सा रहा सहा तन्हा

गूँजता रह गया ख़लाओं में
वक़्त का एक क़हक़हा तन्हा

 

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