मौलश्री छाँव में
प्रीति की पांखुरी
छू गई बाँसुरी
गीत झरने लगे
स्वप्न तिरने लगे
साँस में बस गया गाँव एक गन्ध का
देके सौरभ गया पत्र अनुबन्ध का
प्राण झंकृत हुये
तार कुछ अनछुए
राग-अनुराग मय
पल ठहरने लगे
चन्द्रमा को मिली रूप की पूर्णिमा
नेह के मंत्र रचने लगीं उर्मियाँ
थरथराते अधर
गुनगुनाते प्रहर
शून्यता को प्रणव
शब्द भरने लगे
लो विभासित हुई कोई पावन व्यथा
योग संयोग की नव -चिरन्तन कथा
मौलश्री छाँव में
शिंजनी पाँव में
शुभ सृजन के नये
स्वर सँवरने लगे
सोनजुही की गन्ध भर गई
बेसुधि के कुछ
पल मेरे थे
शेष तुम्हारा
पागलपन था
एक तरल अनुभूति शून्य की
तुम जो चाहे नाम इसे दो
सपनों का व्यामोह कहो या
चिर अतृप्ति का नाम इसे दो
अवरोधों में
पली उर्मि का
सरल सहज सा
उद्वेलन था
दीपशिखा के कम्पित उर में
सोनजुही की गन्ध भर गई
तपती हुई धूप में बदली
मधुर सावनी छन्द भर गई
चिर अभाव की
भाव-भूमि पर
मृदु भावों का
आलोड़न था
गन्ध बावरी हुई
सांझ हुई
मन के आँगन में
गीत विहग उतरे
दूर क्षितिज पर रंग भर गये
बादल फिर अनायास
अनजाने ही कोई आ गया
मन के कितने पास
मुग्धा तरुणाई
माथे पर
कुंकुम तिलक धरे
साधों की पायल झनकी तो
अंगनाई हुलसी
दीप रखे चौरे पर कोई
महक गई तुलसी
मेंहदी और
महावर के रंग
हुये बहुत गहरे
गन्ध बावरी हुई कली से
बांधे नहीं बंधी
ठहर-ठहर कर चली लजीली
सकुचाई ठिठकी
स्वेद- कम्प
रोमांच -पुलक
तन-मन में लहरे
पूछ रही धनिया
बिन बोले बदला करते हैं
मौसम के तेवर
कई दिनों से ठंडा है
यह लिपा -पुता चूल्हा
बिन ब्याहे लौटी
बारात का
जैसे हो दूल्हा
उम्मीदें कच्ची दीवार सी
ढहती हैं भर -भर।
बरस रहे बादल ,कहते हैं
बरस रहा सोना
खाली हैं बर्तन, घर का
खाली कोना-कोना
पूस-माघ की सर्दी
उस पर टपक रहा छप्पर।
कब हमरेहू दिन बहुरेंगे
पूछ रही धनिया
जब उधार मांगें तो
लौटा देता है बनिया
क्या बेचूँ गिरवी रक्खें हैं
घर के सब जेवर।
कुछ तो कहो प्रधान
दिखाये सपने बड़े-बड़े
एक कदम भी बढ़े नहीं
हम तो हैं यहीं पड़े
पूरी ताकत से हो हाकिम
तुमको किसका डर।
कुछ सपने देखे हैं
हमने कुछ सपने देखे हैं
भरी बखारी ,धान कूटती
मन ही मन कुछ गाती धनिया
चंचल लोल किलोलें करते
बछड़ों को दुलराती मुनिया
गली – गली में धूम मचाते
टेसू के पुतले देखे हैं।
खेत जोतते हीरा – मोती
घर में दही बिलोती मैया
दूध सने मुख ,कर में माखन
द्वार -द्वार पर कृष्ण कन्हैया
लिपे-पुते माटी के घर में
तुलसी के बिरवे देखे हैं।
होरी के आँगन में फागुन
रूपा के माथे पर रोली
चौक अँचरती झुनिया का सुख
नन्हे की तुतली सी बोली
बिना महाजन का मुँह जोहे
काज सभी सरते देखे हैं
हमने कुछ सपने देखे हैं
अधूरा पन
गीतों में एक अधूरापन
पर क्या खोया मन न जाने।
जो कोलाहल से जन्मी है
अनुभूति उसी नीरवता कि
रंगों के झुरमुट में बिखरी
हिम-सी गुमसुम एकरसता कि
अहसास ढूंढ़ती आखों में
जो मिले कहीं पर पहचाने॥
है व्यथा-कथा उन परियों की
जो पंख खोजती भटक रहीं
पीड़ा अधचटकी कलियों की
जो कहीं धूल में सिसक रहीं
तड़पन बिसरे मधुगीतों की
जिनके गायक थे अनजाने॥
उल्लास मिला तो कुछ ऐसे
पानी में चन्दा कि छाया
अन्तस् की सूनी घाटी को
दिव-स्वप्नों से बहलाया
मरुथल में जल की छलना
प्यासी हिरनी को भरमाने॥