मुझको पहाड़ ही प्यारे है
मुझको पहाड़ ही प्यारे है
प्यारे समुंद्र मैदान जिन्हें
नित रहे उन्हें वही प्यारे
मुझ को हिम से भरे हुए
अपने पहाड़ ही प्यारे है
पावों पर बहती है नदिया
करती सुतीक्षण गर्जन धवानिया
माथे के ऊपर चमक रहे
नभ के चमकीले तारे है
आते जब प्रिय मधु ऋतु के दिन
गलने लगता सब और तुहिन
उज्ज्वल आशा से भर आते
तब क्रशतन झरने सारे है
छहों में होता है कुजन
शाखाओ में मधुरिम गुंजन
आँखों में आगे वनश्री के
खुलते पट न्यारे न्यारे है
छोटे छोटे खेत और
आडू -सेबो के बागीचे
देवदार-वन जो नभ तक
अपना छवि जाल पसारे है
मुझको तो हिम से भरे हुए
अपने पहाड़ ही प्यारे है
मेघकृपा
जिन पर मेघों के नयन गिरे
वे सबके सब हो गए हरे ।
पतझड़ का सुन कर करुण रुदन
जिसने उतार दे दिए वसन
उस पर निकले किशोर किसलय
कलियाँ निकली निकला यौवन ।
जिन पर वसंत की पवन चली
वे सबकी सब खिल गईं कली ।
सह स्वयं ज्येष्ठ की तीव्र तपन
जिसने अपने छायाश्रित जन
के लिए बनाई मधुर मही
लख उसे भरे नभ के लोचन ।
लख जिन्हें गगन के नयन भरे
वे सबके सब हो गए हरे ।
आओ हे नवीन युग
आओ हे नवीन युग
आओ हे सखा शांति के
चलकर झरे हुए पत्रों पर
गत अशांति के ।
आओ बर्बरता के शव पर
अपने पग धर,
खिलो हँसी बनकर
पीड़ित उर के अधरों पर ।
करो मुक्त लक्ष्मी को
धनियों के बंधन से
खोलो सबके लिए द्वार
सुख के नंदन के ।
दो भूखों को अन्न और मृतकों को जीवन
करो निराशों में आशा के बल का वितरण ।
सिर नीचा कर चलता है जो,
जो अपने को पशुओं में गिनता है
रहता हाथ जोड़ जो उसे गर्व दो तुम
सिर ऊँचा कर चलने का
ईश्वर की दुनिया में भेद न होए कोई
रहें स्वर्ग में सभी, नरक सुख सहे न कोई ।
काफ़ल पाकू
यह कविता पर्वतीय क्षेत्रों में प्रचलित उस लोक कथा पर आधारित है जिसमें यहां के लोक जीवन में व्याप्त निर्धनता, हताशा, ओर विवशता का मार्मिक चित्रण हैं।एक गरीब स्त्री जेठ माह में जंगल जाकर एक टोकरी भर कर काफल (विशेष पर्वतीय फल जो गर्मी के मौसम में अधिक उंचाई वाले जंगलों में उगता है) ले जाती है और घर के आंगन में रखकर अपनी छोटी बेटी की रखवाली में रख देती है तथा स्वयं जंगल की ओर जानवरों के लिये घास लेने चली जाती है। वह छोटी लडकी तेज धूप मे दिनभर बैठ कर काफलों को देखती रहती है, परन्तु धूप से वे जंगली फल कुम्हला जाते है और टोकरी आधी हो जाती है। मां ने लौटकर देखा कि लड़की ने काफल खा लिये हैं और उसे बुरी तरह पीटने के बाद खुद अपने काम पर लग जाती है। दूसरे दिन वह बाहर आकर देखती है कि काफल रात भर ओस में रहने से फूल गये और टोकरी फिर पहले की तरह भर गयी है। उसे अपनी त्रुटि का अहसास होता है सो अपनी सोयी बेटी को उठाने जाती है परन्तु बेटी मर चुकी होती है। बेटी का मृत शरीर कमरे से उठाकर आंगन में काफल की टोकरी के पास रख दिया जाता है। तभी पास ही पेड पर बैठा एक पर्वतीय पक्षी कूकते हुये कहता हैः-
काफल पाक्को, मैन नि चाखो
अर्थात काफल पक गये हैं और मैने चखकर इनका स्वाद नहीं लिया है। इस लोक कथा में यह मान्यता है िकवह छोटी सी बालिका जो भ्रमवश मां के क्रोघ का शिकार होकर मारी गयी वह ‘काफल पाक्कु’ पक्षी बन गयी।(अशोक कुमार शुक्ला द्वारा संकलित)
काफल पाक्को (लंबी कविता का अंश)
क्षण भर में तुम कर देते खग,
इस पृथ्वी को नंदन
जहां अप्सराऐ करती हैं छाया में संचरण
कानों में बजते हैं कंकण
आंखों में करता रूप रमण
फूले रहते हैं सदा फूल
भौरे करते निश दिन गुंजन।
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मेरा कुम्हलाया आनन लख
लख कर मेरे साश्रु नयन
हंस कर आह कर गए हो तुम
क्यों विषम विवश बंदी जीवन
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उसी समय तम के भीतर से मेरे घर के भीतर
आकर लगा गूंजने धीरे धीरे एक मधुर परिचित स्वर
काफल पाक्कू, काफल पाक्कू
काफल पाक्कू काफल पाक्कू
स्वप्न न था वह क्योंकि खेालकर वातायन में बाहर
देख रहा था बार बार सुनता वह ही परिचित स्वर
रैमासी
रैमासी
(रैमासी हिमालय के आंचलिक परिवेश में खिलने वाला ऐक दिव्य पुष्प है)
कैलाशों पर उगते ऊपर
राई मासी के दिव्य फूल
मां गिरिजा दिन भर चुन जिनसे
भरती अपना पावन ढेंकुल
म्ेरी आंखों में आये वे
राईमासी के दिव्य फूल
(रैमासी कविता का अंश)
हिमशृंग
कविता का एक अंश ही उपलब्ध है। शेष कविता आपके पास हो तो कृपया जोड़ दें या कविता कोश टीम को भेजें ।
स्वच्छ केश राशि से अँजलियाँ भर कमलों से
गिरि शृंगों पर चढ़ उदयमान दिनकर का
उपस्थान करते हैं मृदु गंभीर स्वरों में
स्निग्ध हँसी की किरणें फूट रही जग भर में
पुण्य नाद साँसों का पुलकित कर विपिनों को
मुखर खगों को, जमा रहा गृह-गृह में निंद्रा से
निश्चेष्ट पड़ी आत्मा को, मुक्त कर रहा
तिमिर-रूद्ध जीवन को पृथ्वी-मय प्रवाह को
द्वार खुल गए अब भवनों के, शून्य पथों में
शून्य घाटियों में सरिता के शून्य तटों पर
जाग उठीं जीवन समुद्र की मुखर तरंगें
पृथ्वी के शैलों पर, पृथ्वी के विपिनों पर
पृथ्वी की नदियों पर पड़ी स्वर्ण की छाया
उदित हुए दिनकर इनकी पूजा से घिर कर