चर्चा-परिचर्चा में
चर्चा-परिचर्चा में
हर क्षण
ओरिजनल्टी-नावेल्टी की
दुहाई दिया करते है।
अपने थोथे पन को
नवीन अर्थवृत्तों में
वलयित किया करते हैं।
और,
इन सब पर
बौद्धिकता तथा यथार्थ का
नगीना मढ़कर
अपने को ‘नया’ कहने का
दम भरते रहते हैं।
बेशक,
नयी है आज की जिन्दगी
जो साफ साफ चौखटों में
बँधी हुई नहीं है।
नये हैं ये रास्ते
टेढ़े-मेढ़े ही सही
पर, हैं तो नये नये।
सब कुछ है नया-नया
सब कुछ धुला-धुला
पर, मुझे तो लगता है
आज हमारी संस्कृति
हमारा लेखन, हमारा काव्य
हमारे अपने जीवन का
उद्गीथ नहीं।
‘नये’ कहलाने के चक्कर में
करते हैं हम सिर्फ
अन्तर्राष्ट्रीयता के नाम
अराष्ट्रीयता का प्रचार।
आज हमारी कविता में
अपनी धरती का रस नहीं
देशज भाव-रूप नहीं
गमले के फूल की तरह
इसकी खाद और पौधा
सब कुछ विदेशी है
गमला सिर्फ देशी है।।
बापू !
ओ चिर-संयम की तपो मूर्ति !
तपो-व्योम के विभ्राट्
परिव्राजक सम्राट् !
दर्शन-गिरि-श्रृंग !
विश्व-वन्द्य बापू !
अब आओ,
आओ,
भारत को तुम्हारी आज
बेहद ज़रूरत है।
यह आर्यावर्त्त, महान साधना
औ चरित्र का महादेश
जिसे तुमने अपने
श्रम-सीकरों से सीचां था
असमय ही मुरझा गया
इस बाग़ के घेरे में
जीवन स्थिर, गतिहीन हो गया है
इसीलिए,
रंगीन क्यारियों में कीचड़ नज़र आता है
अस्तु, आओ
भानु रश्मियों से रञ्जित संदेश लिए तुम आओ
पंकज के पीले पराग में मृदु मधु बनकर आओ
हेम रंजिता भूमि-पटी पर प्रेम सुलिपि लिख जाओ
विश्व – बन्द्य बापू !
अब आओ !
और देखो-
‘रघुपति राघव राजा राम‘
की धरती पर
हिंसा का अकाण्ड
ताण्डव देखो,
देखो,
तुम्हारी अहिंसा-आस्था
और ईमान की गीता
आधुनिकता की रंगीन मधुशालाओं में
वेश्या बनकर
ठुमुक ठुमुक कर
नाच रही है
दो दानों की उम्मीद लिए
जिन्दगी सलाम बन गयी है
बेताज बादशाही मन की
हस्ती गुमनाम हो गई है
मजदूरी से घर की दुनिया
मरघट की शाम बन गई है
बापू !
तेरी कुर्बानी की
पालित-पोषित प्यारी बेटी
प्रौढ़ावस्था में इतस्ततः
बारूदी घेरे में निशि – दिन
प्राणों की रक्षा में आकुल
आखिरी साँस गिन रही है
अस्तु, अब
आओ, आओ,
विश्व – वंद्य बापू
अब आओ।।
भारत को तुम्हारी
आज बेहद ज़रुरत है !!
ऐसा भाई भला कहाँ मिलता है?
ऐसा भाई भला कहाँ मिलता है?
पुत्राभिषेक का मोह न हो वह माँ का हदय कहाँ मिलता है?
सुत-दुख से आहत प्राण त्याग दे ऐसा पिता कहाँ मिलता है?
सपने में भी लुब्ध न हो जो सिंहासन की सत्ता से
भरत सरीखा भाई ऐसा जग में भला कहाँ मिलता है?