गोकुल की गैल, गैल गैल ग्वालिन की
गोकुल की गैल, गैल गैल ग्वालिन की,
गोरस कैं काज लाज-बस कै बहाइबो।
कहै ‘रतनाकर’ रिझाइबो नवेलिनि को,
गाइबो गवाइबो और नाचिबो नचाइबो॥
कीबो स्रमहार मनुहार कै विविध बिधि,
मोहिनी मृदुल मंजु बाँसुरी बजाइबो।
ऊधो सुख-संपति-समाज ब्रज मंडल के,
भूले न भूलैं, भूलैं हमकौं भुलाइबो॥
सुघर सलोने स्याम सुंदर सुजान कान्ह
सुघर सलोने स्याम सुंदर सुजान कान्ह,
करुना-निधान के बसीठ बनि आए हौ।
प्रेम-प्रनधारी गिरधारी को सनेसो नाहिं,
होत हैं अंदेश झूठ बोलत बनाए हौ॥
ज्ञान गुन गौरव-गुमान-भरे फूले फिरौ,
बंचक के काज पै न रंचक बराए हौ।
रसिक-सिरोमनि को नाम बदनाम करौ,
मेरी जान ऊधो कूर-कूबरी पठाए हौ॥
बैठे भंग छानत अनंग-अरि रंग रमे
बैठे भंग छानत अनंग-अरि रंग रमे,
अंग-अंग आनँद-तरंग छबि छावै है।
कहै ‘रतनाकर’ कछूक रंग ढंग औरै,
एकाएक मत्त ह्वै भुजंग दरसावै है॥
तूँबा तोरि, साफी छोरि, मुख विजया सों मोरि,
जैसैं कंज-गंध पै मलिंद मंजु धावै है।
बैल पै बिराजि संग सैल-तनया लै बेगि,
कहत चले यों कान्ह बाँसुरी बजावै है॥