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हम्द

हम्द[1]
रोज़-ए-अज़ल[2] से रोज़-ए-अबद[3] तक इंसाँ की तक़दीर हो तुम
हर तौक़ीर[4] तुम्हारी बख़्शिश[5] इल्म [6]की हर तहरीर[7] हो तुम

सहराओं में पानी हर बूँद तुम्हारी ही ने’मत
और दरिया में डूब रही कश्ती की हर तदबीर[8]हो तुम

बच्चों की मुस्कान बुज़ुर्गों की शफ़क़त[9]भी तुम से है
और जवाँ लोगों के सुनहरे ख़्वाबों की ता’बीर हो तुम

सूरज की सब धूप, धूप में आग तुम्हारे ही दम से
और दरख़्तों के साये में नींद की जू-ए-शीर[10]भी तुम

इंसाँ से इंसाँ का रिश्ता गंग-ओ-जमन[11]से ज़मज़म[12]तक
इस रिश्ते को बाँधने वाली उल्फ़त की ज़ंजीर हो तुम

प्यास से मरने वालों का हर फ़ख़्र-ए-शहादत[13] तुम से है
हक़ की ख़ातिर लड़ने वालों की हर इक शमशीर[14] हो तुम

‘ज़ाहिद’ इन्सानों ने ये पंछी पिंजरे में ही रक्खा क़ैद
प्यार को जो अल्फ़ाज़ की वुस’अत[15] दे वो आलमगीर[16] हो तुम

दरिया को पागल करने को अक्स-ए-समुन्दर काफ़ी था

दरिया को पागल करने को अक्स-ए-समुन्दर[1] काफ़ी था
ख़्वाब में और जुनूँ[2]भरने को ज़िह्न-ए-सुख़नवर [3]काफ़ी था

झुकने को तैयार था लेकिन जिस्म ने मुझको रोक दिया
अपनी अना[4]ज़िन्दा रखने का जो बोझ सर पर काफ़ी था

अपने-अपने वक़्त पे सारे दुनिया जीतने निकले थे
शाह[5] थे वो कि फ़क़ीर सभी का लोगों में डर काफ़ी था

दुनिया को दरकार [6]नहीं था अज़्म[7] सिकन्दर जैसों का
बुद्ध ,मुहम्मद,ईसा, नानक-सा इक रहबर[8] काफ़ी था

तीन बनाए ताकि वो इक दूजे पर धर पायें इल्ज़ाम[9]
वरना गूँगा, बहरा, अन्धा, एक ही बन्दर काफ़ी था

ग़म दुख दर्द,मुसीबत, ग़ुर्बत[10] सारे यकदम टूट पड़े
इस नाज़ुक़ से दिल के लिए तो एक सितमगर[11] काफ़ी था

‘ज़ाहिद’ बारिश-ए-संग[12]गिराँ[13] और ख़्वाबों के ये शीश महल
इन के लिए तो ग़फ़लत[14] का इक नन्हा पत्थर काफ़ी था

जब एहसास की झील में हमने दर्द का कंकर फेंका है

जब एह्सास[1] की झील में हमने दर्द का कंकर फेंका है
इक दिलकश[2]से गीत का मंज़र[3] तह के ऊपर उभरा है

लोहे की दीवारों से महफ़ूज़[4] हैं इनके शीशमहल
तूने पगले! नाहक़[5] अपने हाथ में पत्थर पकड़ा है

जीना है तो फिर अपने एह्सास को घर में रखकर आ
यह सुच्चा मोती क्यूँ अपनी जेब में लेकर फिरता है

चाहूँ भी तो छुड़ा न सकूँगा ख़ुद को इसकी क़ैद से मैं
तेरे ग़म से मेरा रिश्ता भूख और पेट का रिश्ता है

अपनी धूप को कब तक जोगन! छाँव से तू ढक पाएगी
तूने पराई धूप से माना ख़ुद को बचाकर रक्खा है

‘ज़ाहिद’! इस दुनिया में रहना तेरे बस की बात नहीं
तू तो पगले जनम जनम से सच्चे प्यार का भूखा है

सहरा से जंगल में आकर छाँव में घुलती जाए धूप

सहरा से जंगल में आकर छाँव में घुलती जाए धूप
अपनी हद से आगे बढ़ कर अपना आप गँवाए धूप

दिन भर तो घर के आँगन में सपने बुनती रहती है
बैठ के साँझ की डोली में फिर देस पिया के जाए धूप

जो डसता है अक्सर उसको दूध पिलाया जाता है
कैसी बेहिस[1] दुनिया है यह छाँव के ही गुन गाए धूप

तेरे शह्र में अबके रंगीं चश्मा पहन के आए हम
दिल डरता है फिर न कहीं इन आँखों को डस जाए धूप

रोज़ तुम्हारी याद का सूरज ख़ून के आँसू रोता है
रोज़ किसी शब[2] की गदराई बाहों में खो जाए धूप

जिन के ज़िह्न[3]मुक़्य्यद[4] हैं और दिल के सब दरवाज़े बन्द
‘ज़ाहिद’ उन तारीक[5] घरों तक कोई तो पहुँचाए धूप

सूरत-ए-शम’अ जले हैं लेकिन नाम मिला परवानों का

सूरत-ए-शम’अ[1] जले हैं लेकिन नाम मिला परवानों का
सब की ज़बाँ पर आज है यारो! चर्चा हम दीवानों का

एक क़दम भी साथ हमारे चल न सके वो लोग जिन्हें
ज़िन्दादिली पर नाज़ था लेकिन फ़िक्र था अपनी जानों का

तुम सब लोग घरों में छुप कर बातें ही कर सकते हो
तुम क्या जानो किसने कितना ज़ुल्म सहा तूफ़ानों का

इक-इक करके सब दरवाज़े जिस दिन हम पर बन्द हुए
उस दिन सीना तान के रस्ता पूछा था मैख़ानों[2] का

अपने क़लम को अपने ही हाथों से हमने तोड़ दिया
जिस दिन भूले से भी इसने रूप धरा मेहमानों का

शाम ढली तो दिल भर आया, रात हुई तो रो भी दिए
किसको सुनायें कौन सुनेगा क़िस्सा हम वीरानों का

‘ज़ाहिद’ तारीकी[3] का वो आलम[4] मौत जिसे सब कहते हैं
अस्ल[5] में इक पैमान-ए-वफ़ा[6] है हम जैसे दीवानों का

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