उफ़ुक़ अगरचे पिघलता दिखाई पड़ता है
उफ़ुक़ अगरचे पिघलता दिखाई पड़ता है
मुझे तो दूर सवेरा दिखाई पड़ता है
हमारे शहर में बे-चेहरा लोग बसते हैं
कभी-कभी कोई चेहरा दिखाई पड़ता है
चलो कि अपनी मोहब्बत सभी को बाँट आएँ
हर एक प्यार का भूखा दिखाई देता है
जो अपनी ज़ात से इक अंजुमन कहा जाए
वो शख्स तक मुझे तन्हा दिखाई पड़ता है
न कोई ख़्वाब न कोई ख़लिश न कोई ख़ुमार
ये आदमी तो अधूरा दिखाई पड़ता है
लचक रही है शुआओं की सीढियाँ पैहम
फ़लक से कोई उतरता दिखाई पड़ता है
चमकती रेत पर ये ग़ुस्ल-ए-आफ़ताब तेरा
बदन तमाम सुनहरा दिखाई पड़ता है
उफ़ुक़ = क्षितिज
अच्छा है उन से कोई तक़ाज़ा किया न जाए
अच्छा है उन से कोई तक़ाज़ा किया न जाए
अपनी नज़र में आप को रुसवा किया न जाए
हम हैं तेरा ख़याल है तेरा जमाल है
इक पल भी अपने-आप को तन्हा किया न जाए
उठने को उठ तो जाएँ तेरी अंजुमन से हम
पर तेरी अंजुमन को भी सूना किया न जाए
उनकी रविश जुदा है हमारी रविश जुदा
हमसे तो हर बात पे झगड़ा किया न जाए
हर-चंद ए’तिबार में धोखे भी है मगर
ये तो नहीं किसी पे भरोसा किया न जाए
लहजा बना के बात करें उनके सामने
हमसे तो इस तरह का तमाशा किया न जाए
इनाम हो ख़िताब हो वैसे मिले कहाँ
जब तक सिफारिशों को इकट्ठा किया न जाए
हर वक़्त हमसे पूछ न ग़म रोज़गार के
हम से हर घूँट को कड़वा किया न जाए
फ़ुरसत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारो
फ़ुरसत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारों
ये न सोचो के अभी उम्र पड़ी है यारों
अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको
ज़िन्दगी शम्मा लिये दर पे खड़ी है यारों
उनके बिन जी के दिखा देंगे चलो यूँ ही सही
बात इतनी सी है के ज़िद आन पड़ी है यारों
फ़ासला चंद क़दम का है मना लें चल कर
सुबह आई है मगर दूर खड़ी है यारों
किस की दहलीज़ पे ले जाके सजाऊँ इस को
बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारों
जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे
सिर्फ़ कहने के लिये बात बड़ी है यारों