मानुष राग
धन्यवाद पिता
कि आपने चलना सिखाया
अक्षरों
शब्दों
और चेहरों को पढ़ना सिखाया
धन्यवाद पिता
कि आपने मेंड़ पर बैठना ही नहीं
खेत में उतरना भी सिखाया
बड़े होकर
बड़े-बड़े ओहदों पर पहुँचने वालों की
कहानियाँ ही नहीं सुनाईं
छोटे-छोटे कामों का बड़ा महत्त्व बताया
सिर्फ़ काम कराना नहीं
काम करना भी सिखाया
धन्यवाद पिता
कि आपने मानुष राग सिखाया
बहुत-बहुत धन्यवाद
यह जानते हुए भी
कि पिता और पुत्र के बीच
कोई अर्थ नहीं धन्यवाद का
धन्यवाद
कि आपने कृतज्ञ होना
और धन्यवाद करना सिखाया
धन्यवाद पिता
रोम-रोम से धन्यवाद
कि आपने लेना ही नहीं
उऋण होना भी सिखाया
धन्यवाद
धन्यवाद पिता!
अंधेरा
वहाँ पसरा है मौत के बाद का सन्नाटा
हवा की साँय-साँय में
घुला है भय
झींगुरों की आवाज़
विलीन हो रही है
विधवाओं के विलाप में
झगड़ा महज एक नाली का था
जिसके आगे बेमोल हो गए जीवन
जिस नाली से बहता है गंदा पानी
उसी में बहा गर्म ख़ून
उधर गाँव के भाईचारे की बातें
दूर कहीं बहुत दूर
सो रही थीं शहरी बाबुओं की क़िताबों में
और एक समूचा गाँव काँप रहा था थर-थर-थर
मित्रो, यह किसी एक गाँव का सच नहीं
यह हमारे समय के
लगभग हर गाँव की हक़ीक़त है
अब गाँवों में भी
आने-दाने की लड़ाई है
इंच-इंच के लिए ख़ून-ख़्रराबा है
रोशनी के बीच शहरों में
जितना अधिक है रिश्तों का अंधेरा
उससे कम नहीं अब
अंधेरे गाँवों में मन का अंधेरा ।
जो उतरती ही नहीं मन रसना से
घर से दूर ट्रेन में पीते हुए चाय
साथ होता है अकेलापन
वीतरागी-सा होता है मन
शक्कर चाहे जितनी अधिक हो
मिठास होती है कम
चाय चाहे जितनी अच्छी बनी हो
उसका पकापन लगता है कम
साधो! अब क्या छिपाना आपसे
यह जादू है किसी के होने का
यह मिठास है किसी की उपस्थिति की
जो उतरता ही नहीं मन-रसना से ।
पहाड़ को जानना
सूर्य उदित
पहाड़ मुदित
सूर्य अस्त
पहाड़ मस्त
हो सकता है कुछ लोगों के लिए
यह सच हो
दूध के रंग जितना
पर इसे पूरा-पूरा सच मान लेना पहाड़ का
बहुत कम जानना है
पहाड़ को ।
तुम्हारा होना-1
तुम हो यहीं आस-पास
जैसे रहती हो घर में
घर से दूर
यह एक अकेला कमरा
भरा है तुम्हारे होने के अहसास से
होना
सिर्फ़ देह का होना कहाँ होता है !
तुम्हारा होना-2
तुम कभी नहीं रहती
मुझ से दूर
यह निरभ्र आकाश
गवाह है
इस बात का
तुम रहती हो
मुझ में
गहरे बहुत गहरे कहीं
मेरी आत्मा के रस में घुली हुई
जीवन-रस की तरह
तुम्हारा होना-3
तुम हो तो
यह जीवन है
तुम्हारे बिना
कल्पना भी नहीं जीवन की
प्रिये!
यह प्रेम बोध नहीं क्षण भर का
यह यात्रा है जीवन की
तुम हो तो बल है चलने का
तुम हो तो मन है
पलकों पर आकाश उठाने का
तुम हो तो
मैं हूँ
तुम हो तो
यह जीवन
जीवन है।
अपनों के मन का
स्व० भवानी प्रसाद मिश्र को याद करते हुए
मैं कवि नहीं झूठ फ़रेब का
रुपया-पैसा सोने-चांदी का
मैं कवि हूँ जीवन का सपनों का
उजास भरी आँखों का
मैं कवि हूँ उन होंठों का
जिनको काट गई है चैती पुरवा
मैं कवि हूँ उन कंधों का
जो धूस गए हैं बोझ उठाते
मैं कवि हूँ
हूँ कवि उनका
जिनको नहीं मयस्सर नींद आँख भर
नहीं मयस्सर अन्न आँत भर
मैं कवि हूँ
हाँ, मैं कवि हूँ
उन उदास खेतों के दुख का
जिसको सींच रहा है आँखों का जल
मैं कवि हूँ उन हाथों का
जो नहीं पड़े चुपचाप
जो नहीं काटते गला किसी का
जो बने ओट हैं किसी फटी जेब की
मैं कवि हूँ
जी हाँ, कवि हूँ
अपने मन का
अपनों के मन का ।
जो उतरता ही नहीं मन रसना से
घर से दूर ट्रेन में पीते हुए चाय
साथ होता है अकेलापन
वीतरागी-सा होता है मन
शक्कर चाहे जितनी अधिक हो
मिठास होती है कम
चाय चाहे जितनी अच्छी बनी हो
उसका पकापन लगता है कम
साधो! अब क्या छिपाना आपसे
यह जादू है किसी के होने का
यह मिठास है किसी की उपस्थिति की
जो उतरता ही नहीं मन-रसना से ।\
कायांतरण
दिल्ली के पत्रहीन जंगल में
छाँह ढूँढ़ता
भटक रहा है एक चरवाहा
विकल अवश
उसके साथ डगर रहा है
झाग छोड़ता उसका कुत्ता
कहीं पानी भी नहीं
कि धो सके वह मुँह
कि पी सके उसका साथी थोड़ा-सा जल
तमाम चमचम में
उसके हिस्से पानी भी नहीं
वैसे सुनते हैं दिल्ली में सब कुछ है
सपनों के समुच्चय का नाम है दिल्ली
बहुत से लोग कहते हैं
उन्हें पता है
कहाँ क़ैद हैं सपने
लेकिन निकाल नहीं पाते उसे वहाँ से
हमारे बीच से ही
चलते हैं कुछ लोग
देश और समाज को बदलने वाले सपनों को क़ैदमुक्त कर
उन्हें उनकी सही जगह पहुँचाने के लिए
लोग वर्षों ताकते रहते हैं उसकी राह
ताकते-ताकते कुछ नए लोग तैयार हो जाते हैं
इसी काम के लिए
फिर करते हैं लोग
इन नयों का इंतज़ार
पिछले दिनों आया है एक आदमी
जिसका चेहरा-मोहरा मिलता है
सपनों को मुक्त कराने दिल्ली गए आदमी से
वह बात-बात में वादे करता है
सबको जनता कहता है
और जिन्हें जनता कहता है
उन तक पहुँची है एक ख़बर
कि दिल्ली में एक और दिल्ली है- लुटियन की दिल्ली
जहाँ पहुँचते ही आत्मा अपना वस्त्र बदल लेती है ।