गाँव का झल्ला
हम मानुस की कोई जात नहीं महाराज
जैसे कौवा कौवा होता है, सुग्गा, सुग्गा
और ये छितरी पूँछ वाले अबाबील, अबाबील
तीर की तरह ढाक से घाटी में उतरता बाज, बाज
शेर, शेर होता है, अकेला चलता है
सियार, सियार
बंदर सो बंदर, और कगार से कगार पर
कूद जाने वाला काकड़, काकड़
जानवर तो जानवर सही
बनस्पति भी अपनी-अपनी जात के होते हैं
कैल, कैल है, दयार, दयार
मगर हम मानुस की कोई जात नहीं
आप समझे न
मेरा मतलब इससे नहीं कि ये मंगत कोली है
मैं राजपूत
और वह जो पगडंडी पर छड़ी टेकता
लंगड़ाता चला आ रहा है इधर
बामन है, गाँव का पंडत
और आप, आपकी क्या कहें
आप तो पढ़े-लिखे हो महाराज
समझे न आप, हम मानुस की कोई
जात नहीं
हम तो बस, समझे आप,
कि मुखौटे हैं, मुखौटे
किसी के पीछे कौवा छुपा है
तो किसी के पीछे सुग्गा
सुयार भतेरे, भतेरे बंदर
और सब बच्चे काकड़ काकड़या हरिन, क्यों महाराज
शेर कोई-कोई, भेड़िए अनेक
वैसे कुछ ऐसे भी, जिनकी आँखों में कौवा भी देख लो
सियार भी, भेड़िया भी
मगर ज़्यादातर मवेशी
इधर-उधर सींगें उछाल
इतराते हैं
फिर जिधर को चला दो, चल देते हैं
लेकिन कभी-कभी कोई ऐसा भी टकराता है
जिसके मुखौटे के पीछे, जंगल का जंगल लहराता है
और आकाश का विस्तार
आँखों से झरने बरसते हैं, या ओंठ यूँ फैलते हैं
जैसे घाटी में बिछी धूप
मगर यह हमारी जात का नहीं
देखा न मंदर की सीढ़ी पर कब से बैठा है
सूरज को तकता, ये हमारे गाँव का झल्ला ।
पुराना रिश्ता
परबत की धार पर बाँहें फैलाए खड़ा है
जैसे एक दिन
बादलों के साथ आकाश में उड़ जाएगा जंगल
कोकूनाले तक उतरे थे ये देवदार
और आसमान को ले आए थे इतने पास
कि रात को तारे जुगनू से
गाँव में बिचरते थे
अब तो बस
जब मक्की तैयार होती है
तब एक ससुरा रीछ
पास से उतरता है
छापेमार की तरह बरबादी मचाता है
अजी क्या तमंचे, क्या दुनाली बंदूक
सभी फ़ेल हो गए महाराज
बस, अपने ढंग का एक ही, बूढ़ा खुर्राट
न जाने कहाँ रह गया इस साल
सेव और सुग्गा
मैं कहता हूँ महाराज
इस डिंगली में आग लगा दो
पेड़ जल जाएँगे तो कहाँ बनाएँगे घोंसले
ये सुग्गे
देखो न, इकट्ठा हमला करते हैं
एक मिनट बैठे, एक चोंच मारा और
गए
कि सारे दाने बेकार
सुसरों का रंग कैसा चोखा है लेकिन
देखो न
बादलों के बीच हरी बिजली कौंध रही है
भगवान का दिया है
लेने दो इनको भी अपना हिस्सा
क्यों महाराज ?
दूसरा पहाड़
यह जो सामने पहाड़ है
इसके पीछे एक और पहाड़ है
जो दिखाई नहीं देता
धार-धार चढ़ जाओ इसके ऊपर
राणा के कोट तक
और वहाँ से पार झाँको
तो भी नहीं
कभी-कभी जैसे
यह पहाड़
धुँध में दुबक जाता है
और फिर चुपके से
अपनी जगह लौटकर ऐसे थिर हो जाता है
मानो कहीं गया ही न हो
-देखो न
वैसे ही आकाश को थामे खड़े हैं दयार
वैसे ही चमक रही है घराट की छत
वैसे ही बिछी हैं मक्की की पीली चादरें
और डिंगली में पूँछ हिलाते डंगर
ज्यों की त्यों बने हैं,
ठूँठ-सा बैठा है चरवाहा
आप कहते हो, वह पहाड़ भी
वैसे ही धुँध में लुपका है, उबर आएगा
अजी ज़रा आकाश को तो देखो
कितना निम्मल है
न कहीं धुँध, न कोहरा, न जंगल के ऊपर अटकी
कोई बादल की फुही
वह पहाड़ दिखाई नहीं देता महराज
उस पहाड़ में गूजराँ का एक पड़ाव है
वह भी दिखाई नहीं देता
न गूजर, न काली पोशाक तनी
कमर वाली उनकी औरतें
न उनके मवेशी, न झबड़े कुत्ते
रात में जिनकी आँखें
अँगारों-सी धधकती हैं
इस पहाड़ के पीछे जो वादी है महाराज
वह वादी नहीं, उस पहाड़ की चुप्पी है
जो बघेरे की तरह घात लगाए बैठा है ।
जलता दयार
झींगुर टर्राने लगे हैं
और खड्ड में दादुर
अभी हुआ-हुआ के शोर से
इस चुप्पी को छितरा देंगे सियार
ज़रा जल्दी चलें महाराज
यह जंगल का टुकड़ा पार हो जाए
फिर कोई चिंता की बात नहीं
हम तो शाट-कट से उतर रहे हैं
वरना अब जंगल कहाँ रहे
देखा नहीं आपने
ठेकेदार के उस्तरे ने
इन पहाड़ों की मुंडिया किस तरह साफ़ कर दी
डर जानवरों का नहीं महाराज
वे तो ख़ुद हम आप से डरकर
कहीं छिपे पड़े होंगे
डर है उस का
उस एक बूढ़े दयार का
जो रात के अँधेरे में कभी-कभी निकलता है
जड़ से शिखर तक
मशाल-सा जल उठता है
एक जगह नहीं टिकता
संतरी की तरह इस जंगल में गश्त लगाता रहता है
उसे जो देख ले
पागल कुत्ते के काटे के समान
पानी के लिए तड़प-तड़पकर
दम तोड़ देता है
ज़रा हौसला करो महाराज
अब तो बस, बीस पचास क़दम की बात है
वह देखो उस सितारे के नीचे
बनिये की दुकान की लालटेन टिमटिमा रही है
वहाँ पहुँचकर
घड़ी भर सुस्ता लेंगे ।
मनचला पेड़
बीज चलते रहते हैं हवा के साथ
जहाँ गिरते हैं थम जाते हैं ढीठ
बिरक्स बन जाते हैं
और टिके रहते हैं कमबख़्त
बगलों की तरह, या कि जोगी हैं महाराज
आज तो आकाश निम्मल है
पर पार साल
पानी ऐसा बरसा कि पूछो मत
हम पहाड़ के मानुस भी सहम गए
एक रात
ढाक गिरा और उसके साथ
हमारा पंद्रह साल बूढ़ा रायल का पेड़
जड़ समेत उखड़ कर चला आया
धार की ऊँचाई से धान की क्यार तक
(अब जहाँ खड़ा था वहाँ मुझे तकलीफ़ थी
यार बोरड़ खा गए थे बेवकूफ़)
सेटिंग ठीक न होने पर दस पेटी देता था, दस
मैं तो सिर पीट कर रह गया मगर
लंबरदारिन ने नगाड़े पर दी चोट पर चोट
इकट्ठा हो गया सारा गाँव
गड्ढा खोदा, रात भर लगे रहे पानी में
और खड़ा किया मनचले को नए मुक़ाम पर
अचरज है, ससुरा इस साल फिर फल से लदा है