क्षितिज की रेखा
(1)
इस जगह से जो क्षितिज दिखता है,
वह सीधी रेखा वाला क्षितिज नहीं है,
उस क्षितिज की रेखा ऊंची-नीची हो गई है।
एक चौरस शीषर् वाले पहाड ने,
बीच में आकर,
क्षितिज की सीधी रेखा को टेढ़ी-मेढ़ी कर दिया है।
गांव के लोग उस पहाड को श्रवण डोंगरी कहते हैं।
कहते हैं, उसी पहाड पर मारा गया था श्रवण कुमार,
माता पिता के प्यार में,
आैर फिर अकेले रह गए थे, उसके अंधे माता-पिता,
अपने एकमात्र आैर लाड़ले पुत्र के बिना,
निःसहाय आैर बेचारगी के साथ ़ ़ ़।
एक दुःख, आैर भेदने वाली पीड़ा का प्रतीक है वह पहाड़,
तभी उसने अपनी उपिस्थति दजर् की है,
क्षितिज की सीधी रेखा को बिगाड़कर,
तभी वह जम गया है,
उस रेखा को ऊंचा-नीचा करके।
चौरस आैर सपाट शीषर् के साथ,
वह पहाड़,
पहाड़ ना लगकर किसी विशाल टीले सा लगता है,
ठीक उसी तरह,
जब हम रो नहीं पाते हैं,
आैर खोने लगते हैं अपना शीषर्,
पता भी नहीं चलता,
कब घिसकर चौरस हो जाता है,
आकाश की आेर उम्मीदों आैर उमंगों के साथ उठा हुआ हमारा थूथन ़ ़ ़।
उस पहाड़ ने ढंक लिया है,
आकाश का थोड़ा सा हिस्सा,
जो उसके पीछे दबा हुआ है,
जो दिखता,
अगर होता सीधी लाइन वाला क्षितिज।
ऐसा लगता है,
उस पहाड़ ने जानबूझकर नहीं किया है यह सब,
जैसे हम छिपाते हैं,
कुछ बातें आैर कुछ पीड़ा के सपाट से प्रतीक,
आैर यों खुल जाता है,
हमारा दुःख।
कोई योजना नहीं थी,
क्षितिज की उस सीधी रेखा को ऊंचा-नीचा करने की,
वह बस हो गया है,
श्रवण डोंगरी के टीलेनुमा दुःख से।
(२)
क्षितिज की सीधी रेखा,
वास्तव में एक जोड़ है,
एक सिलाई,
या बबर्रतापूवर्क चिपका दिए गए दो टुकडे़,
धरती आैर आकाश के टुकड़े।
जैसे घर की देहरी होती है,
घर का भीतर आैर बाहर के संसार का जोड़।
पर एक अंतर है,
हम देहरी को पार कर बाहर के संसार में होते हैं,
पर अब तक क्षितिज की कोई ऐसी पार नहीं मिली,
कि ज़मीन से एक पैर आगे बढाकर मैं आकाश में पहुंच जाऊं।
लंबी-लंबी यात्राआें के बाद भी,
मैं आज तक उस रेखा पर नहीं पहुंच पाया हूं,
जो रोज़ दिखती है,
आैर जिसे देखकर यकीन होता है,
कि बस एक कदम की बात है यह पूरा आकाश।
मेरे पास अब तक,
आकाश में पहंुचने का वही घिसा पिटा तरीका है – उड़ान।
कुछ लोगों ने बताया है,
कि ऐसी यात्रा है,
जिसकी रोड़ धरती आैर आकाश के बीच की उस रेखा तक जाती है,
मैं अब तक उस यात्रा को चुन नहीं पाया हूं,
ताकि हो,
उड़ान से बेहतर एक आैर तरीका पहुंचने आकाश में ़ ़ ़।
पुराने अलबम की तस्वीरें
दूसरी चीजों की तरह,
पुराना नहीं होता है,
पुराना एलबम,
वह जैसे-जैसे पुराना होता जाता है,
बदलते जाते हैं,
उसमें चिपकी पुरानी ब्लैक एण्ड व्हाइट तस्वीरों के मायने।
पुराने एलबम में एक तस्वीर है,
जिसमें तीन साल का मैं,
बैठा हूं,
बुआ की गोद में,
आैर आज बरसों बाद जब बुआ इस संसार में नहीं हैं,
देखता हूं उस तस्वीर को,
तो उसमें एक अजीब सा खालीपन लगता है,
एक रिक्तता उतर आई है,
मेरे आैर बुआ के खिलखिलाते हुए चेहरों पर,
उस तस्वीर में।
लगता है,
बरसों से चुप यह तस्वीर,
अब बोल पाती है बुआ के मरने के बाद,
शायद बुआ ही बोलती हैं,
आैर तस्वीर चुप रहती है,
मरकर बुआ ने ढूंढा है यह नया तरीका,
उनका रुका हुआ खिलखिलाता चेहरा अब कुछ कह पाता है,
बरसों वह बंद रहा है इस पुराने एलबम में,
कभी लगा ही नहीं वह कहेगा आैर मैं देर तक उसे देखुंगा,
बार-बार एलबम में वहीं पर रुककर,
जहां मैं आैर वे बेपरवाह खिलखिला रहे हैं।
अक्सर कुछ खोकर ही कीमती होती हैं,
पुराने एलबम की तस्वीरें।
लगातार चलती आई याद,
कहीं पहुंचकर रुक जाती है
उसे फिर ज़रूरत नहीं होती है आैर चलने की ़ ़ ़।
चित्र बदल लेते हैं अपना आकार,
वे एकदम से बेजान हो जाते हैं,
या उन्हें समझना पड़ता है,
नए सिरे से,
या वे वह सब कहने लगते हैं,
जिनके बारे में कभी नहीं सोचा था,
लगा ही नहीं था,
कि वह कह सकते हैं ये सारी बातें ़ ़ ़।
कितना अजीब है बचपन की उन फोटुआें का सच,
हम सब भाई-बहन, मां-पिता,
एक ही घर में खुश आैर तृप्त।
मानो उस घर को हम कभी छोड़ेंगे ही नहीं,
मानो हम पूरे जीवन एक साथ इसी तरह रहेंगे,
आैर यों कभी नहीं होगी उदासी आैर अकारण की चुप्िपयां,
मानो इस तरह भाई बहन आैर माता-पिता होने के मायने,
हमेशा संजीदा रहेंगे,
जैसे वे उस तस्वीर में हमेशा वैसे ही रहने वाले आत्मविश्वासी ़ ़ ़।
पर अब,
भाई-बहन, माता-पिता होने के अथर्,
उस तरह नहीं हैं जैसे उस तस्वीर में हैं,
वह घर अब वैसा नहीं है,
बरसों पहले उस घर को छोड़कर हम भाई-बहनों ने बनाई है,
अपनी-अपनी राह,
अब एक अजीब सी उदासी है पिता के चेहरे पर,
तस्वीर में मां का खिलखिलाता चेहरा देखकर याद करता हूं,
बरसों हो गया,
मां को फिर इस तरह निश्चिंतता से हंसता हुआ नहीं देखा।
छोटा भाई परेशान रहता है अपने भविष्य को लेकर,
वह उसी तरह शरारती है,
जैसा उस तस्वीर में,
पर जैसे उसकी शरारत अब बनावटी हो गई है,
जैसे वह शरारत उसके भीतर से नहीं आई हो,
वह शरारत आेढ़कर खड़ा होता है,
आैर छुपा नहीं पाता है,
जब वह ऐसा करता है वह मुझे,
बहुत सयाना लगता है,
लगता है एकाएक वह बड़ा हो गया है आैर मैं उससे छोटा,
़ ़ ़पर उस तस्वीर में,
आज भी बना हुआ है वह पुराना घर,
उतना ही जीवंत,
आज का झूठ,
स्मृतियों का बार-बार कुरेदता सच,
एक अजीब सी बेचैनी है,
उस तस्वीर में ़ ़ ़।
वह तस्वीर बहुत निमर्म है,
वह यादों से भी ज़्यादा तानाशाह है,
वह जरा भी दया नहीं करती है,
मुझे ही हटानी पड़ती है उनपर से अपनी आंखें,
बचाने खुद को उनसे,
वनार् वे उतर आएं भीतर,
करने बेचैनी आैर उदासी का खेल।
एक तस्वीर में,
हम भाई-बहन नदी में नहा रहे हैं,
उपदर्व आैर शोरगुल करते,
लगता ही नहीं कि यह वही बहन है,
जिसके कभी-कभार आते हैं फ़ोन,
वह बेतरह व्यस्त है अपने घर में,
उसके पास अपने घर की बातों के अलावा अब कुछ बचा नहीं है,
सालों बाद जब मिलते हैं हम,
तो लगता है,
जैसे हम अपिरिचत रहे हों,
जैसे नियती है यों मिलना,
मिलकर भी हम नहीं निकल पाते हैं,
अपनी-अपनी दुनिया से,
तब अपनी-अपनी दुनिया पर ही ख़त्म होते हुए,
यह तस्वीर एक कूड़ा बन जाती है,
कूड़े की तरह ही उससे कोई आवाज़ नहीं आती,
उस तस्वीर की पुकार आकारहीन पुकार बन जाती है,
उस तस्वीर का होना,
किसी सच को झुठलाने जैसा होता है।
पर भीतर कुछ है,
जो उसे कूड़ा नहीं मान पाता है,
अक्सर मैं उस तस्वीर को टकटकी लगाकर देखता हूं,
मैं शायद लिख नहीं सकता जो मैं देखता हूं।
चाची अब नहीं हैं,
मरने से पहले उन्होंने मुझसे मिलना चाहा था,
मैं भी सोचता हूं,
काश मिल लेता,
पर वह हो नहीं सका।
पता नहीं उनसे मिलकर क्या बात होती,
पता नहीं स्मृति की कौन सी पतर् उखड़ती,
किस बात पर आती हंसी,
किस बात पर हम उदास होते,
या हमारा रोने को मन करता,
़ ़ ़पर यह सब हो ना सका,
आैर लोग कहते हैं,
वे मुझसे मिलना चाहती थीं,
चाहती थीं मुझे एकबार देखना ़ ़ ़।
पुराने एलबम में उनकी एक तस्वीर है,
उस तस्वीर में,
आज मैं टटोलता हूं,
कि उनसे मिलता तो क्या होता?
लगता है,
तस्वीर कह सकती है,
कि वे क्यों मिलना चाहती थीं?
स्मृति का कौन सा छोर उन्हें मजबूर करता था,
मुझे देखने के लिए?
लगता है,
तस्वीर बता सकती है यह सब,
दे सकती है इन प्रश्नों का जवाब।
उन पुरानी ब्लैक एण्ड व्हाइट तस्वीरों में,
मैं छुटपन में जिन लोगों की गोद में बैठा हूं,
वे आज अवसाद के क्षणों में मेरे कंधे देखते हैं,
तब उन्हें यह सब खयाल भी नहीं आया होगा,
मैं जब,
सुरिक्षत आैर पूरे हक के साथ था,
जब चेतना नहीं थी,
बस उनकी छांव थी।
यादों से भी ज़्यादा धडकती हैं,
पुराने एलबम की तस्वीरें,
उनमें बाबा का लाड़ भरा चेहरा आज भी है,
बीतते दिन आदतन कुछ भी नहीं कर पाए हैं,
बल्िक बाबा की इस तस्वीर पर उल्टा है उनका असर,
उन्होंने आैर स्पष्ट कर दिया है वह लाड़,
जिसे देख लगता है,
काश बाबा कुछ आैर दिन जी जाते,
मैं करता उनसे वे सब बातें,
बातें जो उनकी तस्वीर के साथ आती हैं।
बचपन की जरा सी स्मृति है,
बस ज़रा सी नोक भर यादें,
जिसे मैं जानता हूं बाबा के रूप में।
उन तस्वीरों में,
मेरे कुछ पूवर्ज हैं,
जिन्हें मैंने कभी नहीं देखा,
उनके आैर मेरे बीच में कुछ बातें आैर कहानियां हैं,
जो सुनी हैं घर के बडे़ बूढ़ों से उनके बारे में,
एक अजीब सा संबंध है मेरा आैर उनका,
अनदेखे,
बिन महसूसे का संबंध।
क्या उस जीवन से उनकी कोई उम्मीद थी,
जो उनके रास्ते मुझतक आया आैर आगे चल रहा है?
एक भर्म होता है,
जैसे वह उम्मीद उन तस्वीरों से झलकती है।
एक अचरज भी होता है,
कि वे आैर मैं जुड़े हैं,
सिफ़र् बातों आैर कहानियों से,
सिफ़र्,
पर फिर भी जुड़े हैं,
इस तरह,
कि बहुत सहेजकर रखता हूं मैं उनकी ये पुरानी तस्वीरें,
जब लोगों को दिखाता हूं उनकी तस्वीरें,
तो वे उसकी पुरातनता पर चकित होते हैं,
आैर मैं उन्हें सुनाना चाहता हूं उनकी कहानियां,
दिनों दिन वे कुछ ज़्यादा नज़दीक लगने लगते हैं,
बड़ा अजीब लगता है,
अजनबी बिन महसूसे,
बिना यादों वाले अदेखे लोगों की,
तस्वीरों का यूं निकट आना ़ ़ ़।
पुराने एलबम में मेरे कुछ मित्र हैं,
बचपन के दोस्त,
जिनके साथ उन्मुक्त हंसते हुए खड़ा हूं मैं,
पर आज वे कहीं मिल जाएं,
तो शायद मैं उन्हें पहचान नहीं पाऊं,
पर कोई मान सकता है,
यों उन्मुक्त हंसते,
जब कटते नहीं थे दिन उनके बिना,
कि कभी सिफ़र् एक प्रश्न ले लेगा उन दोस्तों की जगह,
उनके साथ बेपरवाह बिताए दिनों की जगह,
कि क्या मैं उन्हें पहचान पाऊंगा?
पुराने एलबम की तस्वीरों ने,
पार कर लिया है समय को,
वे स्मृतियों से कूदकर,
बाहर खड़ी हैं,
वे अब बदल रही हैं,
उन स्मृतियों के मायने,
उन यादों के अथर्,
उन बातों का कोण,
जिन्हें उनमें टटोलती हैं मेरी उंगलियां।
विरोध के तीन तरीके
उस रोज ध्यान से देखा था,
चौराहे वाले फव्वारे को,
क,ि
ऊपर उछलना आैर हवा में बारीक बूंदों में बंटकर बहना,
फव्वारे की नियती नहीं है,
बल्िक पाइपों आैर टंिकयों में,
पूरे बल के साथ दबा दिए जाने के बाद,
एक वाल्व की,
सुनियोजित गुंजाइश से निकलकर,
पानी को,
पानी को भी,
पानी की तरलता को भी,
उठना पड़ता है,
ज़मीन के विरूद्ध ऊपर की आेर ़ ़ ़।
आैर यों,
हवा में तीखेपन से उठकर,
हवा में बिख़रकर,
फिर नीचे गिरकर,
वह उस यांित्रकी का विरोध करता है,
जो दबाती है उसकी तरलता।
तभी तो,
शब्द खुद ब खुद नहीं होते हैं,
भीतर कहीं होता है,
तरलता पर अनचाहा दबाव,
आैर शब्द नियोजित हो जाते हैं,
जीवन के कुछ अच्छे विरोधों के लिए।
कुछ ऐसे विरोधों के लिए,
जिन्हें नकारना,
उन मधुमक्खियों को नकारना है,
जो सारे संसार से मीठा इकट्ठा करती हैं,
आैर जीवन के अंितम विकल्प के रूप में काटती हैं,
क्योंकी वे पहली आैर आख़री बार काटती हैं,
क्योंकी काटने के बाद मर जाती हैं मधुमक्खियां,
आैर जब हम उन पर कटैत होने का आरोप लगाते हैं,
वे मर रही होती हैं,
आैर उनके छत्तों से टपक रही होती है,
पूरी संसार की मिठास ़ ़ ़।
एक आैर तरीके से होता है विरोध,
जैसे डराइंगरूम में सजा बोंसाई,
जो आज तक चला आया है,
अनुपजाऊ मिट्टी,
जरा से गमले में बस मुट्ठी भर ज़मीन,
थोड़ी सी हवा आैर चंद समय वाली धूप के साथ,
जीवन की इतनी प्रतिकूल संभावनाआें के बाद भी,
हम हर महीने काट देते हैं उसकी जड,
पर वह जिया,
वह जी रहा है बरसों से,
उसे नसीब नहीं है उसके हिस्से का जंगल,
उसके हिस्से का हवा-पानी,
शायद आगे भी ना हो,
आैर वह जितना जियेगा,
उतना ही कीमती बोंसाई बन जाएगा,
आैर उतनी ही बढ़कर पक्की हो जाएगी,
उसकी,
उसके हिस्से के जंगल आैर हवा-पानी से दूरी,
सदा के लिए ़ ़ ़।
वह जानता है यह सब,
आैर जानकर भी,
वह धीमे आैर भिड़े हुए हैं,
यह सिफ़र् उम्मीद की बात नहीं है,
बात है जीने की,
बिना शतर् विरोध की ़ ़ ़।
विरोध के इन तरीकों,
फव्वारा, मधुमक्खि आैर बोंसाई के अलावा भी,
कुछ आैर तरीकों से उठा जा सकता है,
विरोध के लिए,
अक्सर हम खुद ही तो उठाते हैं,
दरवाजे़ के सामने जमा बफ़र् हटाने के लिए फावडा।
आदमी के लिए
आदमी प्रश्न नहीं पूछता,
आैर ना ही मेरे प्रश्नों का जवाब देता है,
पर मैं बहुत से प्रश्न आैर जवाब देने को आतुर रहा हंू
मरने से पहले,
मुझे बार-बार कहने है प्रश्न आैर जवाब,
आदमी के लिए।
यंू एक मौन सहमती है,
मेरे आैर आदमी के बीच
कि मेरे ही प्रश्न होंगे आैर मेरे ही जवाब,
आैर मैं उन प्रश्नों का जवाब भी दंूगा,
जिन्हें गटक गया था आदमी,
पान की दुकान में ढेर सारे तंबाकू आैर गुटके की तरह,
बिना यह सोचे कि उनसे कैंसर हो सकता है।
आैर यह सोचकर मुझे शमर् आती है,
कि वह गटक गया था, प्रश्न आैर जवाब,
जि़ंदगी के प्रश्न आैर जवाब, पूछना चाहता हंू आदमी से,
कि क्या वह भी शमार्ता है,
क्या उसकी भी एक नस धड़कती रह जाती है,
आैर डेथ सटिर्िफकेट बन नहीं पाता है।
अकेलेपन का जंगल
एक बहुत बड़े मैदान के बीच,
खड़ा है,
एक अकेला पेड़।
उस पेड़ की कोई बस्ती नहीं।
उस पेड़ का कोई जंगल नहीं।
पर,
वह यंू ही अकेला नहीं उगा।
जब वह बीज था,
वह जान गया था,
कि जंगल कैसे उगते हैं?
पहले सिफर् एक पेड़,
फिर उस पेड़ के कई बीज,
फिर उन बीजों से कई सारे पौधे,
फिर पौधों से पेड़,
आैर फिर,
फिर से यही क्रम,
कई बार,
बार-बार,
आैर अंत में एक जंगल।
वह जान चुका है,
कि एक जंगल वह भी शुरू कर सकता है,
आैर यंू,
वह जंगल में नहीं उगा।
जंगल का रहस्य जानकर,
वह जंगल में नहीं उग सकता।
अगर उगता,
तो वह जंगल का हिस्सा होता,
उसका कभी कोई जंगल नहीं होता
कभी
कभी,
किसी बासी चादर में संूघंूगा,
उस पर गुजरी,
सुख भरी नींद की गंध।
कभी,
पेपरवेट के नीचे दबे,
थप्पी भर कागज,
बह जाएंगे,
उसी हवा में,
जिसमें वे फडफड़ाते रहते हैं।
कभी डोरमैट में झड़कर गिरी मिट्टी में से,
मैं वह मिट्टी छाटंुगा,
जो मेरे गांव से आई है,
पिरिचत पैरों में चिपककर,
अपिरिचत की तरह झड़ जाने।
कभी,
कोई फूल बच जाएगा,
सुबह फूल चुनने वाले पुजारी की नजर से,
पत्तों में छुपकर,
हो जाएगा बीज,
दुनिया से दुबककर।
कभी,
मोहल्ले के बच्चे,
मेरे हिस्से का,
पिट्ठुल का वह खेल खेलेंगे,
जो बचपन में मैं खेल नहीं पाया था,
पापा की डांट की डर से।
कभी,
जमीन से बाहर निकलती सूखी जड़ पर,
एक हरी गांठ सी उभरेगी।
कभी,
मुदार् जमीन पर बनेगा एक घर,
गाएंगी घंूघट वाली आैरतें,
ढोलक पर,
बन्नो का बार-बार सुना एक सा गीत।
कभी
गुलदस्ते में फूल
गुलदस्ते में,
मुरझाने से पहले,
चंद घण्टे जीते हैं,
तने से कटे,
एस्टर आैर कारनेशन के फूल।
जैसे छिपकली की पंूछ,
धड से अलग होने के बाद,
फड़फड़ाती है,
बिना सांस आैर धड़कन के।
उनकी उन बातों की तरह,
जो उनसे अलग होकर,
बन गई है एक याद,
अब उसका कोई वास्ता नहीं है,
उनकी सांसों से,
उनके प्राणों से।
उनकी याद ने,
उगा ली है,
अपनी जड़, अपनी सांस ़ ़ ़।
ठीक वैसे ही,
जैसे,
गुलदस्ते में फूल,
सोखते हैं गुलदस्ते का पानी,
नहीं दिखने वाली अपनी जड़ से,
लिये रहते हैं रंगत,
नहीं महसूस होने वाली अपनी सांसों से,
आैर,
बने रहते हैं,
उस समय तक,
जब तक उनकी जरूरत होती है।
,
पहरूंगा वही चप्पल,
जो घिसती नहीं है,
छोड़ती जाती है अपने निशान,
धूप में पिघलते रोड़ के डामर पर।
चिंदियां
जिस पर सूख रहे हैं-
चीथड़े ़ ़ ़।
बरसों बाद,
जो चिंिदयां रही हैं,
उन्हें,
धोकर, सुखाकर, प्रेसकर ़ ़ ़
पहरने का,
एक सुकून है।
हां,
एक झिझक भी है,
लोग क्या सोचते होंगे,
बिना छुपी नग्नता देखकर ़ ़ ़।