किरन के नाम
सुबह-सुबह को भेंट गई शाम की चुभन,
उस किरन के नाम कोई पत्र तो लिखो।
खुली जो आंख तो लगा कि रूप सो गया,
साथ जो रहा था आज वह भी खो गया।
देह-गंध यों मिली कि दे गई अगन,
उस अगन के नाम कोई पत्र तो लिखो।
मन किराएदार था रच-बस गया कहीं,
तन किसी का सर्प जैसे डंस गया कहीं।
हम मिले तो साथ में थी सब कहीं थकन,
उस थकन के नाम कोई पत्र तो लिखो।
मोड़ पर ही आयु के था वक्त रुक गया,
दूर चल रहा था पांव वह भी थक गया।
बांह में था याद की सिमटा हुआ सपन,
उस सपन के नाम कोई पत्र तो लिखो।
आदमी खजूर हो गए
आदमी खजूर हो गए
दूर और दूर हो गए
कल मिले इनाम जो हमें
आज वो कुसूर हो गए
दर्द हैं कबीर जायसी
गीत-राग सूर हो गए
मुक्ति तो हमें मिली मगर
हम ऋणी ज़रूर हो गए
पाँव देख रो पड़े हमीं
जिस घड़ी मयूर हो गए
छल कपट उदार हैं सभी
क्योंकि सत्य क्रूर हो गए
पारसा नहीं रहे वहाँ
महफ़िलों के नूर हो गए
निर्विरोध हम कहाँ रहे
लक्ष्य जब हुज़ूर हो गए
एक लंबी देह वाला दिन
अपनी यात्रा में,
आंकड़ों को जोड़ता दिन
दफ्तरों तक रह गया।
मन किसी अंधे कुएं में
खोजने को जल
कागज़ों में फिर गया दब,
कलम का सूरज
जला दिन भर
मगर है डूबने को अब।
एक क्षण कोई
प्रबोली सांझ के
कान में यह बात आकर
कह गया,
एक पूरा दिन,
दफ्तरों तक रह गया।
सुख नहीं लौटा
अभी तक काम से,
त्रासदी की देख गतिविधियां
बहुत चिढ़ है आदमी को
आदमी के नाम से।
एक उजली आस्था का भ्रम
फिर किसी दीवार जैसा ढह गया,
एक लंबी देह वाला दिन
दफ्तरों तक रह गया।
अंधा कुंआं
चलो, अच्छा हुआ
हमने भी झांक लिया
लंगड़ों के गांव का
अंधा कुंआं।
अब तो हैं छूट रहे
पांवों से
पगडंडी-पाथ,
वह भी सब छोड़ चले
लाए जो साथ-साथ।
न कहीं टोकते गबरीले शकुन,
न कहीं रोकती मटियाली दुआ।
हमने ही चाहे नहीं
झाड़ी के बेर,
छज्जे की धूप के
नये हेर फेर।
अरसे से मौन था
भीतरी सुआ।
ऐसा दीप बनूँगा
जो सबको उजियारा बाँटे,
ऐसा दीप बनूँगा
अँधियारे का चोर न छिपकर
उजियारे की गाँठ चुरा ले
और न सबकी आँख चुराकर
दुश्मन भी अधिकार जमा ले
इसीलिए मैं सब राहों में
दीपक वाली राह चुनूँगा।
दीवारों को तोड़ रोशनी
फैलाऊँगा हर द्वारे तक
मंदिर से लेकर मिस्जद तक
गिरिजाघर से गुरुद्वारे तक
सच्ची मानवता की खातिर
नैतिकता की बात गुनूँगा
जिनके दुख को हवा चाहिए
उन्हें खिला सा नीरज दूँगा
किरणें जिनके द्वार न आई
उनको सुख का सूरज दूँगा
जो अभाव में रहे आज तक
पहले उनकी पीर सुनूँगा।