आईन-ए-वफा इतना भी सादा नहीं होता
आईन-ए-वफा इतना भी सादा नहीं होता
हर बार मसर्रत का इआदा नहीं होता
ये कैसी सदाकत है कि पर्दो में छुपी है
इख़्लास का तो कोई लबादा नहीं होता
जंगल हो कि सहरा कहीं रूकना ही पड़ेगा
अब मुझ से सफर और ज़ियादा नहीं होता
इक आँच की पहले भी कसर रहती रही है
क्यूँ सातवाँ दर मुझ पे कुशादा नहीं होता
सच बात मिरे मुँह से निकल जाती है अक्सर
हर-चंद मिरा ऐसा इरादा नहीं होता
ऐ हर्फ-ए-सना सेहर-ए-मुसल्लम तिरा तुझ से
बढ़ कर तो कोई साग़र-ए-बादा नहीं होता
अफसाना-ए-अफसून-ए-जवानी के अलावा
किस बात का दुनिया में इआदा नहीं होता
सूरज की रिफाकात में चमक उठता है चेहरा
‘शबनम’ की तरह से कोई सादा नहीं होता
गए बरस की यही बात यादगार रही
गए बरस की यही बात यादगार रही
फज़ा ग़मों के लिए ख़ूब साज़-गार रही
अगरचे फैसला हर बार अपने हक में हुआ
सज़ा-ए-जुर्म बहर-हाल बर-क़रार रही
बदलती देखीं वफ़ा-दारियाँ भी वक़्त के साथ
वफ़ा जहाँ के लिए एक कार ओ बार रही
अब अपनी ज़ात से भी एतमाद उन का उठा
वो जिन की बात कभी हर्फ़-ए-ऐतबार रही
ख़बर थी गो उसे अब मोजज़े नहीं होते
हयात फिर भी मगर महव-ए-इंतिज़ार रही
न कोई हर्फ-ए-मलामत न कोई कलमा-ए-ख़ैर
ये ज़ीस्त अब न किसी की भी जे़र-ए-बार रही
ये और बात कि दिल ग़म में ख़ुद कफील हुआ
मगर वो आँख मिर ग़म में अष्क-बार रही
हम राह मिरे कोई मुसाफिर न चला था
हम राह मिरे कोई मुसाफ़िर न चला था ।
धोका मुझे ख़ुद अपनी ही आहट से हुआ था ।
मस्दूद हुई जिस की हर इक राह सरासर,
उस साफ़ में मुझे ला के खड़ा किस ने किया था ।
जुम्बिश ही से होंटों की जो कुछ समझो तो समझो,
उस गुंग महल में तो बस इतना ही रवा था ।
तामीर हुए घर तो गए जाने कहाँ वो,
जिन ख़ानाबदोशो का यहाँ ख़ेमा लगा था ।
धुँदलाए ख़द-ओ-ख़ाल गर उस के तो अजब क्या
देखे हुए यूँ भी उसे युग बीत गया था ।
शब शोला-बद-अमाँ तो सहर-सोख़्ता सामाँ
दो रूप बदलता था अजब वो भी दिया था ।
सामने इक बे-रहम हक़ीक़त नंगी हो कर नाचती है
सामने इक बे-रहम हक़ीक़त नंगी हो कर नाचती है
उस की आँखों से अब मेरी मौत की ख़्वाहिश झाँकती है
जिस्म का जादू इस दुनिया में सर चढ़ कर जब बोलता है
रूह मिरी शर्मिन्दा हो कर अपना चेहरा ढाँपती है
उस की झोली में सब खोटे सिक्के डाले जाएँगे
जानती है ये अंधी भिखारन फिर भी दिन भर माँगती है
मेरा ख़ून पिया तो उस को ताज़ा लहू की चाट लगी
अब वो नागिन अपनी ज़बाँ से अपना लहु भी चाटती है
अब की बार ऐ बुज़-दिल किस़्मत खुल मेरे सामने आ
क्यूँ इक धचका रोज़ लगा कर बाकी कल पर टालती है
माज़ी की तुर्बत से निकल आती है किसी की याद की लाश
मेरी सोच मिरी दुश्मन है रोज़ मुसीबत डालती है
सहरा का बादल दो बूँदें बरसा कर उड़ जाता है
प्यासी बंजर बाँझ ज़मीं कुछ और ज़ियादा हाँफती है
अब तक सोई हुई थी वो आसाइश के गहवारे में
अंगड़ाई सी ले कर ‘शबनम’ आज अना क्यूँ जागती है
वो तो आईना-नुमा था मुझ को
वो तो आईना-नुमा था मुझ को
किस लिए उस से गिला था मुझ को
दे गया उम्र की तन्हाई मुझे
एक महफिल में मिला था मुझको
ता मुझे छोड़ सको पतझड़ में
इस लिए फूल कहा था मुझ को
तुम हो मरकज़ मेरी तहरीरों का
तुम ने इक ख़त में लिखा था मुझ को
मैं भी करती थी बहारों की तलाश
एक सौदा सा हुआ था मुझ को
अब पशेमान हैं दुनिया वाले
ख़ुद ही मस्लूब किया था मुझ को
अब धड़कता है मगर सूरत-ए-दिल
जख़्म इक तुम ने दिया था मुझ को
ज़ौक़-ए-नज़र को इज़्न-ए-नज़ारा न मिल सका
ज़ौक़-ए-नज़र को इज़्न-ए-नज़ारा न मिल सका
तन्हा कभी वो अंजुमन-आरा न मिल सका
हम पर जल्द खुल गया साहिल का सब भरम
अच्छे रहे वो जिन को किनारा न मिल सका
यक तरफा राबता ही निभाना पड़ा हमें
उनकी तरफ से कोई इशारा न मिल सका
तुम भी कुसूर-वार नहीं क़िस्सा मुख़्तसर
मेरा तुम्हारे साथ सितारा न मिल सका
शहरों की ख़ाक छानी खंगाले हैं दश्त ओ दर
लेकिन हमें सुराग़ हमारा न मिल सका
मैं भी थी ख़ुद-पसंद नहीं इस में शक कोई
अक्सर तो पर मिज़ाज तुम्हारा न मिल सका
ऐ काश साथियों से वो अपने कभी कहे
‘शबनम’ सा कोई मुझ को दोबारा न मिल सका
सूखे होंठ सुलगती आँखें सरसों जैसा रंग
सूखे होंठ सुलगती आँखें सरसों जैसा रंग ।
बरसों बाद वो देखके मुझको रह जाएगा दंग ।
माज़ी का वो लम्हा मुझको आज भी ख़ून रुलाए,
उखड़ी-उखड़ी बातें उसकी ग़ैरों जैसा ढंग ।
दिल को तो पहले ही दर्द की, दीमक चाट गई थी
रूह को भी अब खाता जाए, तन्हाई का ज़ंग ।
इन्हीं के सदके यारब मेरी मुश्किल कर आसान,
मेरे जैसे और भी हैं दिल के हाथों तंग ।
सब कुछ देकर हँस दी और फिर कहने लगी तक़दीर,
कभी न पूरी होगी तेरे दिल की यह उमंग ।
आज न क्यों मैं चूडियाँ अपनी, किर्ची-किर्ची कर दूँ
देखी आज एक सुन्दर नारी, प्यारे पिया के संग ।
माज़ कोई तुझसे हारे जीत पर मान न करना,
जीत वो होगी जब जीतोगे अपने आप से जंग ।
दिन-रात माह-ओ-साल से आगे नहीं गए
दिन-रात माह-ओ-साल से आगे नहीं गए ।
ख़ाबों में भी ख़याल से आगे नहीं गए ।
थीं तो ज़रूर मंज़िलें इससे परे भी कुछ,
लेकिन तेरे ख़याल से आगे नहीं गए ।
लोगों ने रोज़ ही नया माँगा ख़ुदा से कुछ,
एक हम तेरे सवाल से आगे नहीं गए ।
सोचा था मेरे दुख का मुदावा (इलाज) करेंगे कुछ,
वो पुरसिश-ए-मलाल (पूछताछ) से आगे नहीं गए ।
क्या जुल्म है की इश्क का दावा उन्हें भी है,
जो हद-ए-एतदाल से आगे नहीं गए ।