यह तो कहो किसके हुए
आधी उमर करके धुआँ यह तो कहो किसके हुए
परिवार के या प्यार के या गीत के या देश के
यह तो कहो किसके हुए
कन्धे बदलती थक गईं सड़कें तुम्हें ढोती हुईं
ऋतुएँ सभी तुमको लिए घर-घर फिरीं रोती हुईं
फिर भी न टँक पाया कहीं टूटा हुआ कोई बटन
अस्तित्व सब चिथड़ा हुआ गिरने लगे पग-पग जुए —
संध्या तुम्हें घर छोड़ कर दीवा जला मन्दिर गई
फिर एक टूटी रोशनी कुछ साँकलों से घिर गई
स्याही तुम्हें लिखती रही पढ़ती रहीं उखड़ी छतें
आवाज़ से परिचित हुए गली के कुछ पहरूए —
हर दिन गया डरता किसी तड़की हुई दीवार से
हर वर्ष के माथे लिखा गिरना किसी मीनार से
निश्चय सभी अँकुरान में पीले पड़े मुरझा गए
मन में बने साँपों भरे जालों पुरे अन्धे कुएँ
यह तो कहो किसके हुए —
यह तो कहो किसके हुए
आधी उमर करके धुआँ यह तो कहो किसके हुए
परिवार के या प्यार के या गीत के या देश के
यह तो कहो किसके हुए
कन्धे बदलती थक गईं सड़कें तुम्हें ढोती हुईं
ऋतुएँ सभी तुमको लिए घर-घर फिरीं रोती हुईं
फिर भी न टँक पाया कहीं टूटा हुआ कोई बटन
अस्तित्व सब चिथड़ा हुआ गिरने लगे पग-पग जुए —
संध्या तुम्हें घर छोड़ कर दीवा जला मन्दिर गई
फिर एक टूटी रोशनी कुछ साँकलों से घिर गई
स्याही तुम्हें लिखती रही पढ़ती रहीं उखड़ी छतें
आवाज़ से परिचित हुए गली के कुछ पहरूए —
हर दिन गया डरता किसी तड़की हुई दीवार से
हर वर्ष के माथे लिखा गिरना किसी मीनार से
निश्चय सभी अँकुरान में पीले पड़े मुरझा गए
मन में बने साँपों भरे जालों पुरे अन्धे कुएँ
यह तो कहो किसके हुए —
अब खोजनी है आमरण
अब खोजनी है आमरण
कोई शरण कोई शरण
गोधुली मंडित सूर्य हूँ
खंडित हुआ वैदूर्य हूँ
मेरा करेंगे अनुसरण
किसके चरण किसके चरण
अभिजात अक्षर- वंश में
निर्जन हुए उर- ध्वंस में
कितने सहेजूँ संस्मरण
कितना स्मरण कितना स्मरण
निर्वर्ण खंडहर पृष्ठ हैं
अंतरकथाएं नष्ट हैं
व्यक्तित्व का ये संस्करण
बस आवरण बस आवरण
रतियोजना से गत प्रहर
हैं व्यंग्य- रत सुधि में बिखर
अस्पृश्य सा अंत:करण
किसका वरण किसका वरण
ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई
ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई
बांह में है और कोई चाह में है और कोई
साँप के आलिंगनों में
मौन चन्दन तन पड़े हैं
सेज के सपनो भरे कुछ
फूल मुर्दों पर चढ़े हैं
ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई
देह में है और कोई, नेह में है और कोई
स्वप्न के शव पर खड़े हो
मांग भरती हैं प्रथाएं
कंगनों से तोड़ हीरा
खा रहीं कितनी व्यथाएं
ये कथाएं उग रही हैं नागफन जैसी अबोई
सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई
जो समर्पण ही नहीं हैं
वे समर्पण भी हुए हैं
देह सब जूठी पड़ी है
प्राण फिर भी अनछुए हैं
ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई
हास में है और कोई, प्यास में है और कोई
चक्की पर गेहूं लिए खड़ा
चक्की पर गेंहू लिए खड़ा मैं सोच रहा उखड़ा उखड़ा
क्यों दो पाटों वाली साखी बाबा कबीर को रुला गई।
लेखनी मिली थी गीतव्रता प्रार्थना- पत्र लिखते बीती
जर्जर उदासियों के कपड़े थक गई हँसी सीती- सीती
हर चाह देर में सोकर भी दिन से पहले कुलमुला गई।
कन्धों पर चढ़ अगली पीढ़ी ज़िद करती है गुब्बारों की
यत्नों से कई गुनी ऊँची डाली है लाल अनारों की
प्रत्येक किरण पल भर उजला काले कम्बल में सुला गई।
गीतों की जन्म-कुंडली में संभावित थी ये अनहोनी
मोमिया मूर्ति को पैदल ही मरुथल की दोपहरी ढोनी
खंडित भी जाना पड़ा वहाँ जिन्दगी जहाँ भी बुला गई।
जिस पल तेरी याद सताए
जिस पल तेरी याद सताए, आधी रात नींद जग जाये
ओ पाहन! इतना बतला दे उस पल किसकी बाहँ गहूँ मै
अपने अपने चाँद भुजाओं
में भर भर कर दुनिया सोये
सारी सारी रात अकेला
मैं रोऊँ या शबनम रोये
करवट में दहकें अंगारे, नभ से चंदा ताना मारे
प्यासे अरमानों को मन में दाबे कैसे मौन रहूँ मैं
गाऊँ कैसा गीत की जिससे
तेरा पत्थर मन पिघलाऊँ
जाऊँ किसके द्वार जहाँ ये
अपना दुखिया मन बहलाऊँ
गली गली डोलूँ बौराया, बैरिन हुई स्वयं की छाया
मिला नहीं कोई भी ऐसा जिससे अपनी पीर कहूं मैं
टूट गया जिससे मन दर्पण
किस रूपा की नजर लगी है
घर घर में खिल रही चाँदनी
मेरे आँगन धूप जगी है
सुधियाँ नागन सी लिपटी हैं, आँसू आँसू में सिमटी हैं
छोटे से जीवन में कितना दर्द-दाह अब और सहूँ मैं
फटा पड़ रहा है मन मेरा
पिघली आग बही काया में
अब न जिया जाता निर्मोही
गम की जलन भरी छाया में
बिजली ने ज्यों फूल छुआ है, ऐसा मेरा हृदय हुआ है
पता नहीं क्या क्या कहता हूँ, अपने बस में आज न हूँ मैं
आज पहली बात
आज पहली बात पहली रात साथी
चाँदनी ओढ़े धरा सोई हुई है
श्याम अलकों में किरण खोई हुई है
प्यार से भीगा प्रकृति का गात साथी
आज पहली बात पहली रात साथी
मौन सर में कंज की आँखें मुंदी हैं
गोद में प्रिय भृंग हैं बाहें बँधी हैं
दूर है सूरज, सुदूर प्रभात साथी
आज पहली बात पहली रात साथी
आज तुम भी लाज के बंधन मिटाओ
खुद किसी के हो चलो अपना बनाओ
है यही जीवन, नहीं अपघात साथी
आज पहली बात पहली रात साथी
सागर के सीप (कविता)
ये उर-सागर के सीप तुम्हें देता हूँ ।
ये उजले-उजले सीप तुम्हें देता हूँ ।
है दर्द-कीट ने
युग-युग इन्हें बनाया
आँसू के
खारी पानी से नहलाया
जब रह न सके ये मौन,
स्वयं तिर आए
भव तट पर
काल तरंगों ने बिखराए
है आँख किसी की खुली
किसी की सोती
खोजो,
पा ही जाओगे कोई मोती
ये उर सागर की सीप तुम्हें देता हूँ
ये उजले-उजले सीप तुम्हें देता हूँ
मेरे मन-मिरगा नहीं मचल
मेरे मन-मिरगा नहीं मचल
हर दिशि केवल मृगजल-मृगजल!
प्रतिमाओं का इतिहास यही
उनको कोई भी प्यास नहीं
तू जीवन भर मंदिर-मंदिर
बिखराता फिर अपना दृगजल!
खौलते हुए उन्मादों को
अनुप्रास बने अपराधों को
निश्चित है बाँध न पाएगा
झीने-से रेशम का आँचल!
भीगी पलकें भीगा तकिया
भावुकता ने उपहार दिया
सिर माथे चढा इसे भी तू
ये तेरी पूजा का प्रतिफल!
सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूं
सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ
प्रिय मिलने का वचन भरो तो !
पलकों-पलकों शूल बुहारूँ
अँसुअन सींचू सौरभ गलियाँ
भँवरों पर पहरा बिठला दूँ
कहीं न जूठी कर दें कलियाँ
फूट पडे पतझर से लाली
तुम अरुणारे चरन धरो तो !
रात न मेरी दूध नहाई
प्रात न मेरा फूलों वाला
तार-तार हो गया निमोही
काया का रंगीन दुशाला
जीवन सिंदूरी हो जाए
तुम चितवन की किरन करो तो !
सूरज को अधरों पर धर लूँ
काजल कर आँजूँ अँधियारी
युग-युग के पल छिन गिन-गिनकर
बाट निहारूँ प्राण तुम्हारी
साँसों की जंज़ीरें तोड़ूँ
तुम प्राणों की अगन हरो तो