कवि कुल परम्परा
आकाश में मेरा एक नायक है
राहू
गगन दक्षिणावर्त में जग-जग करता
धीर मन्दराचल-सा
सिंधा, तुरही बजा जयघोष करता
चन्द्रमा द्वारा अपने विरुद्ध किए गए षड़यन्त्रों को
मन में धरे
मुंजवत पर्वत पर आक्रमण करता
एक ग्रहण के बीतने पर दूसरे ग्रहण के आने की करता तैयारी
वक्षस्थल पर सुवर्णालंकार, जिसके कांचन के शिरस्त्राण
ब्रज के खिलाफ़ एक अजस्र शिलाखण्ड
भुजाओं में उठाए
अनन्त देव-नक्षत्रों का अकेला आक्रमण झेलता
अतल समुद्र की तरह गहरा
और वन-वितान की तरह फैला हुआ
तासा-डंका बजाता
और कत्ता लहराता हुआ ।
ऋगवेद के किसी भी मण्डल के अगर किसी भी कवि ने
उस पर लिखा होता एक भी छन्द तो मुझे
अपनी कवि कुल परम्परा पर गर्व होता
नाम
मुझे कैसा नाम दिया है मेरे पिता
मैं अपने नाम के अर्थ में ही बिंध-सा गया हूँ
जैसे ठुक गई हो कोई कील मेरे हृदय-प्रदेश में ।
अब न जाने कितना करना पडे़गा दुर्धर्ष संघर्ष
कितने व्रण सहने पड़ेंगे
इसके अर्थों के पार जाने के लिए
अपने आपका गुलाम मैं होता गया हूँ
मेरे पिता
ये मुझ में नया राग भरने नहीं देते
ये मुझे ख़ुद से आगे कुछ देखने नहीं देते
मैं क्या करूँ कि इसके अर्थ से हो जाऊँ बरी
कितनी लड़ाइयाँ और लड़ूँ
कौन-सा दर्रा पार करूँ
कितनी बार और किन-किन मौसम में
कोसी में लगाऊँ छलांग
मुझे ऎसे अर्थों की ग़ुलामी से
मुक्त होना है मेरे पिता
मॉर्निंग वॉक
आज दिव्य हुआ मॉर्निंग वॉक
एक तरफ़ से अजीम प्रेम जी आ रहे थे
दूसरी ओर से इन्फ़ोसिस के मूर्ति नारायण
और तीसरी तरफ़ से मैं
तीनों मिले शेषाद्रियैय्या पार्क में
मैं अपने स्वास्थ्य के लिए चिंतित था
वे दोनों अध्यात्म, इन्वेस्टमेंट
और देश के लिए चिन्तित थे
काफ़ी ग़रीबी इस देश की कम कर दी है हमने
इसे सिलिकॉन में तब्दील करना ही है
वॉक करते-करते हाथ ऊपर-नीचे करते
अजीम प्रेम जी ने फ़रमाया
पार्क के किनारे बैठे कई भिखारी, कुछ मवाली
ऐसे मुस्कुरा रहे थे, जैसे वे हमें मुँह चिढ़ा रहे हों
उसी वक़्त सिलिकॉन वैलि के इस पार्क की सड़क
पर बिलबिलाते अनेक कुत्ते हाँव-हाँव करने लगे
न जाने क्या कुछ घटित हुआ
मैं कुछ समझ न पाया
नारायण मूर्त्ति ज़ोर से चिल्लाए ‘हरिओम’ ऽऽ
और हॉऽऽ- हॉऽऽ कर ज़ोर से हँसने लगे
शायद यह भी एक शारीरिक अभ्यास था
चिन्तित थे नारायण मूर्त्ति
कैसे इस देश में और ज़्यादा
इन्वेस्टमेंट बढ़ाया जाए
सॉफ़्टवेयर इंडस्ट्री में कोई श्रमिक तो होता नहीं
भले ही किसी को चार हज़ार माहवार मिले
किसी को चार लाख
सोचना यह है कि इनके लिए कैसे ज़्यादा पब्लिक
फ़ैसिलिटी प्रोवाइड की जाए
लेनिन तो कर नहीं पाए
हमने क्लिंटन और ओबामा के साथ मिलकर
बराबरी और समाजवाद लाने की
दिशा में काफ़ी तरक़्क़ी की है ।
तभी दिख गए श्री-श्री रविशंकर
सफ़ेद कपड़ों में बुद्ध की तरह मुस्काते
अजीम प्रेम जी ने उनसे हाथ मिलाया
श्री-श्री आर्ट अऑफ़ लिविंग
के सारे नियम तोड़ उनके
कान में कुछ फुसफुसाए
मैं उन फुसफुसाहटों का मतलब ढूँढ़ ही रहा था
तभी राम गुहा दिख गए पार्क में
कबूतरों को दाना खिलाते
राम ने मुझसे हलके से कहा
सॉफ़्टवेयर के इन श्रमिकों के लिए
नया नाम ढूँढ़ना होगा
हम और राम बात कर ही रहे थे
कि एक पेड़ के नीचे देवगौड़ा बेल्लारी के किसानों को प्रतीक में बदल
अपने पॉकेट पर लगाए
बालों का झड़ना रोकने के लिए
बबा रामदेव के पतंजलि योग नियम के अनुसार
अपने नाखूनों को रगड़ते जा रहे थे
और उछलते जा रहे थे
आज दिव्य हुआ मॉर्निंग वॉक
जैसे एक तरफ़ इन्द्र चल रहे हों
दूसरी तरफ़ कुबेर
और हम साथ-साथ
मॉर्निंग वॉक कर रहे हों ।
अपेक्षाएँ
कई अपेक्षाएँ थीं और कई बातें होनी थीं
एक रात के गर्भ में सुबह को होना था
एक औरत के पेट से दुनिया बदलने का भविष्य लिए
एक बालक को जन्म लेना था
एक चिड़िया में जगनी थी बड़ी उड़ान की महत्त्वाकांक्षाएँ
एक पत्थर में न झुकने वाले प्रतिरोध को और बलवती होना था
नदी के पानी को कुछ और जिद्दी होना था
खेतों में पकते अनाज को समाज के सबसे अन्तिम आदमी तक
पहुँचाने का सपना देखना था
पर कुछ नहीं हुआ
रात के गर्भ में सुबह के होने का भ्रम हुआ
औरत के पेट से वैसा बालक पैदा न हुआ
न जन्मी चिड़िया के भीतर वैसी महत्त्वाकांक्षाएँ
न पत्थर में उस कोटि का प्रतिरोध पनप सका
नदी के पानी में जिद्द तो कहीं दिखी ही नहीं
खेत में पकते अनाजों का
बीच में ही टूट गया सपना
अब क्या रह गया अपना।
सपने
मुझे मेरे सपनों से बचाओ
न जाने किसने डाल दिए ये सपने मेरे भीतर
ये मुझे भीतर ही भीतर कुतरते जाते हैं
ये धीरे-धीरे ध्वस्त करते जाते हैं मेरा व्यक्तित्व
ये मेरी आदमीयत को परास्त करते जाते हैं
ये मुझे डाल देते हैं भोग के उफनते पारावार में
जो निकलना भी चाहूँ तो ये ढकेल देते हैं
ये मेरी अच्छाइयों को मारते जाते हैं मेरे भीतर
ये मेरी संवेदना, मेरी मार्मिकता, मेरे पहले को हतते जाते हैं
ये मुझे ठेलते जाते हैं एक विशाल नर्क में
मैं चीख़ता हूँ ज़ोर से
आधी रात
महान नायक
यह एक अजीब सुबह थी
जो लिखना चाहूँ, लिख नहीं पा रहा था
जो सोचना चाहूँ, सोच नहीं पा रहा था
सूझ नहीं रहे थे मुझे शब्द
कामा, हलन्त सब गै़रहाज़िर थे ।
मैंने खोल दिए स्मृतियों के सारे द्वार
अपने भीतर के सारे नयन खोल दिए
दस द्वार, चौदह भुवन, चौरासी लोक
घूम आया
धरती गगन मिलाया
फिर भी एक भी शब्द मुझे नहीं दिखा
क्या ख़ता हो गई थी, कुछ समझ में नहीं आ रहा था
धीरे-धीरे जब मैं इस शाक से उबरा
और रुक कर सोचने लगा
तो समझ में आया
कि यह शब्दों का एक महान विद्रोह था
मेरे खिलाफ़
एक महान गोलबन्दी
एक चेतष प्रतिकार
कारण यह था कि
मैं जब भी शब्दों को जोड़ता था
वाक्य बनाता था
मैं उनका अपने लिए ही उपयोग करता था
अपने बारे में लिखता रहता था
अपना करता रहता था गुणगान
अपना सुख गाता था
अपना दुख गाता था
अपने को ही करता था गौरवान्वित
अजब आत्मकेन्द्रित, आत्मरति में लिप्त था मैं
शब्द जानते थे कि यह वृत्ति
या तो मुझे तानाशाह बनाएगी
या कर देगी पागल बेकार
और शब्द मेरी ये दोनों ही गति नहीं चाहते थे
शब्द वैसे ही महसूस कर रहे थे कि
मेरे भीतर न प्रतिरोध रह गया है
न प्यार
न पागल प्रेरणाएँ
अत: शब्दों ने एक महान नायक के नेतृत्व में
मेरे खिलाफ़ विद्रोह कर दिया था ।
बुढ़िया
यह बुढ़िया
उम्र के उस पद पर पहुँच गई है
जहाँ से शाप सकती है दुख को
सुख को कर सकती है याद
पत्थर और पानी पहचान सकती है
उम्र के इस आसन से व्ह
इन्द्र को शाप सकती है
सूर्य को शाप सकती है
शाप सकती है
मन्त्री, सन्तरी और राजा को
रंक को कर सकती है प्यार।
यहाँ से यह बुढ़िया
कुछ भी कह सकती है
पाप को पुण्य
और पुण्य को पुण्य।
दुलारी धिया
पी के घर जाओगी दुलारी धिया
लाल पालकी में बैठ चुक्के-मुक्के
सपनों का खूब सघन गुच्छा
भुइया में रखोगी पाँव
महावर रचे
धीरे-धीरे उतरोगी
सोने की थारी में जेवनार-दुलारी धिया
पोंछा बन
दिन-भर फर्श पर फिराई जाओगी
कछारी जाओगी पाट पर
सूती साड़ी की तरह
पी से नैना ना मिला पाओगी दुलारी धिया
दुलारी धिया
छूट जाएँगी सखियाँ-सलेहरें
उड़ासकर अलगनी पर टाँग दी जाओगी
पी घर में राज करोगी दुलारी धिया
दुलारी धिया, दिन-भर
धान उसीनने की हँड़िया बन
चौमुहे चूल्हे पर धीकोगी
अकेले में कहीं छुप के
मैके की याद में दो-चार धार फोड़ोगी
सास-ससुर के पाँव धो पीना, दुलारी धिया
बाबा ने पूरब में ढूँढा
पश्चिम में ढूँढा
तब जाके मिला है तेरे जोग घर
ताले में कई-कई दिनों तक
बंद कर दी जाओगी, दुलारी धिया
पूरे मौसम लकड़ी की ढेंकी बन
कूटोगी धान
पुरईन के पात पर पली-बढ़ी दुलारी धिया
पी-घर से निकलोगी
दहेज की लाल रंथी पर
चित्तान लेटे
खोइछे में बाँध देगी
सास-सुहागिन, सवा सेर चावल
हरदी का टूसा
दूब
पी-घर को न बिसारना, दुलारी धिया।