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बनज कुमार ‘बनज’की रचनाएँ

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दोहे

रहे शारदा शीश पर, दे मुझको वरदान।
गीत, गजल, दोहे लिखूँ, मधुर सुनाऊँ गान।

हंस सवारी हाथ में, वीणा की झंकार,
वर दे माँ मैं कर सकूँ, गीतों का शृंगार।

माँ शब्दों में तुम रहो, मेरी इतनी चाह,
पल-पल दिखलाती रहो, मुझे सृजन की राह।

माँ तेरी हो साधना, इस जीवन का मोल,
तू मुझको देती रहे, शब्द सुमन अनमोल।

अधर तुम्हारे हो गये, बिना छुए ही लाल।
लिया दिया कुछ भी नहीं कैसे हुआ कमाल।

माँ तेरा मैं लाड़ला, नित्य करूँ गुणगान।
नज़र सदा नीची रहे, दूर रहे अभिमान।

माँ चरणों के दास को, विद्या दे भरपूर,
मुझको अपने द्वार से, मत करना तू दूर।

सुनना हो केवल सुनूँ, वीणा की झंकार।
चुनना हो केवल चुनूँ, मैं तो माँ का द्वार।

मौन पराया हो गया, शब्द हुए साकार,
नित्य सुनाती माँ मुझे, वीणा की झंकार।

माँ मुझको कर वापसी, भूले बिसरे गीत,
बिना शब्द के ज़िन्दगी, कैसे हो अभिनीत।

कुछ और दोहे
दर्शन और अध्यात्म —

जाने कब ख़ाली करना पड़े मुझे मकान,
मैं समेट कर इसलिए रखता हूँ सामान।

प्रकृति —

बढ़ते हैं जिस ओर भी निगल रहे हैं गाँव,
कोई तो रोको जरा इन शहरों के पाँव।

शृंगार वर्णन —

पायल चुपके से कहे धीरे चल पाँव,
जाग जाए आज भी सारा गाँव।

पिता की मृत्यु के बाद —

बीच सफ़र से चल दिया ऐसे मेरा ख़्वाब,
आधी पढ़कर छोड़ दे जैसे कोई किताब।

कुछ और दोहे

दुःख के पल दो चार हों, सुख के कई हज़ार।
कर देना नववर्ष तू, ऐसा अबकी बार।।

समझ न पाया आज तक, हमको कोई साल।
किया नहीं हमने मगर, इसका कभी मलाल।।

नए साल तू आएगा, फिर से खाली हाथ।
फिर भी हम देंगे मगर, तेरा जमकर साथ।।

साथ मुसव्विर आसमाँ, के हो गई ज़मीन।
बदलेगा मौसम मुझे, है इस बार यक़ीन।।

हम तुलसी रैदास हैं, हैं रसखान कबीर।
नया साल हमसे हुआ, है हर साल अमीर।।

चोटिल पनघट हो गए, घायल हैं सब ताल।
अब पानी इस गाँव का, नहीं रहा वाचाल।।

भाई चारे से बना, गिरता देख मकान।
राजनीत के आ गई, चेहरे पर मुस्कान।।

बहुत ज़रूरी हो गया, इसे बताना साँच।
जगह-जगह फैला रहा वक़्त नुकीले काँच।।

सोच विचारों के जहाँ, गिरते कट कर हाथ।
हम ऐसे माहोल में भी, रहते हैं साथ।।

करता हूँ बाहर इसे, रोज़ पकड़ कर हाथ।
घर ले आता है समय, मगर उदासी साथ।।

मरने की फ़ुर्सत मुझे, मत देना भगवान्।
मुझे खोलने हैं कई ,अब भी रोशनदान।

नहीं बढ़ाना चाहता, परछाईं पर बोझ।
करता हूँ कम इसलिए, क़द अपना हर रोज़।।

फैल रहा है आजकल, घर-घर में ये रोग।
क़द के खातिर कर रहे, एड़ी ऊंची लोग।।

उतर गई थी गोद से, डर के मारे छाँव।
रखे पेड़ पर धूप ने, ज्यों ही अपने पाँव।।

आज हवा के साथ में, घूम रही थी आग।
वर्ना यूँ जलता नहीं, बस्ती का अनुराग।।

बना दिया उसका मुझे, क्यों तूने आकाश।
जो धरती व्यवहार में है, इक ज़िन्दा लाश।।

अगर मिटाकर स्वयं को मैं, हो जाता मौन।
तो तुझसे दिल खोलकर, बातें करता कौन।।

ऐसे जलने चाहिए, दीपक अबके बार।
जो भर दे हर आदमी के, मन में उजियार।।

हर दिन दीवाली मने, हर दिन बरसे नूर।
राम बसे तुझमें मगर, रहें दशानन दूर।।

जाकर देवों के नहीं, बैठा कभी समीप।
फ़ानूसों की गौद में, पलने वाला दीप।।

बर्फ़ अपाहिज़ की तरह, करती थी बर्ताव।
देख धूप ने दे दिए, उसे हज़ारों पाँव।।

सोच रहा हूँ फेंक दूँ, घर से सभी उसूल।
पड़े-पड़े ये खा रहे हैं, बरसों से धूल।।

एक रात तक का नहीं, सह सकता ये बोझ।
छुप जाता है इसलिए, सूर्य कहीं हर रोज़।।

ना मुझमें मकरन्द है. ना हीं रंग-सुगन्ध।
लिखे तितलियों ने मगर, मुझ पर कई निबन्ध।।

चलो, सभी मिलकर करें, कारण आज तलाश।
नफ़रत क्यों करने लगा, धरती से आकाश।।

रत्ती भर खोटी हुई, तेरी अगर निगाह।
नहीं कभी तुझको नज़र, आएगा अल्लाह।।

देता है अभिमान को, रोज़ नया आकार।
वो पानी पाता नहीं, कभी नदी का प्यार।।

आज देखना है तुझे छूकर ओ तकदीर !
उभर जाए इस हाथ में, शायद नई लकीर।।

रंग फूल ख़ुशबू कली, था मेरा परिवार।
जाने कैसे हो गए, शामिल इसमें ख़ार।।

शाखों से तोड़े हुए, चढ़ा रहा है फूल।
क्या तेरी ये आरती, होगी उसे कबूल।।

मुक्तक

जगह नहीं चाही है मैंने, कभी किसी के रूप भवन में।
न मैंने उड़ना चाहा है, कभी किसी के निजी गगन में।
मैं तो बस इतना चाहता हूँ, मुझे समझ कर समिधा, मित्रो!
मन हो तो दे देना मेरी, कभी आहुति प्रेम हवन में।

हाँ में हाँ, बस, कहते रहिए।
मार दुखों की सहते रहिए।
आप ओढ़कर कफ़न पुराना,
पल-पल क्षण-क्षण दहते रहिए।

अब कितना और जलोगे तुम

ये क़दम पूछते हैं मुझसे अब कितना और चलोगे तुम।
गीली लकड़ी की बस्ती में अब’ कितना और जलोगे तुम।

माना तुम क्षमता के नायक,
हो सृजन तीर्थ के उन्नायक।
बहते आँसू मन की कराह को,
गाते हो अद्भुत गायक।

हिमगिरी-सा मस्तक बोल उठा, अब कितना और गलोगे तुम।
गीली लकड़ी की बस्ती में अब, कितना और जलोगे तुम।

तुम कतरा भी और सागर भी,
हो स्त्रोत स्वयं और स्वयं अन्त।
तुम पल भर में सीमित लगते,
और पल में हो जाते अनन्त।

कह कर आँखों ने पूछा फिर, अब कितना और छलोगे तुम।
गीली लकड़ी की बस्ती में अब, कितना और जलोगे तुम।

हो तितली भँवरा फूल कलि,
तुम पवन आग पानी बिजली।
हो शब्द साधना में विलीन,
फैलाते ख़ुशबू गली-गली।

मन ने पूछा रुक कर मुझसे, क्या इसी तरह मचलोगे तुम।
गीली लकड़ी की बस्ती में अब, कितना और जलोगे तुम।

तुम दीपक हो तुम ही बाती,
तुम अक्षर हो तुम ही पाती।
मैं देख चुकी हूँ कई बार,
तुम धर्म-कर्म की हो थाती।

कह कर पूछा परछाई ने, कब वस्त्र मेरे बदलोगे तुम।
गीली लकड़ी की बस्ती में, अब कितना और जलोगे तुम।

वीणापाणि के चरणों में

सुर से मैं वन्दन करता हूँ।
शब्द तुझे अर्पण करता हूँ।
हे वीणापाणि मातेश्वरी,
तेरा अभिनन्दन करता हूँ।

तेरी छाया में चलता हूँ।
तेरे आँचल में पलता हूँ।
मैं बिरवा तेरे आँगन का,
फूलों के स्वर मैं झरता हूँ।

मैं गायन का अमृत पी लूँ।
मैं गीतों का अम्बर छू लूँ।
तेरे चरणों में सिर रखकर,
जड़ को चेतन मैं करता हूँ।

स्वर की कलियॅा तुझे चढ़ाता।
शब्द पुष्प से तुझे रिझाता।
मॅा, मुझको ज्योतिर्मय करदे,
नमन तुझे शत-शत करता हूँ।

जो कुछ जाना तुझसे जाना।
पर अब तक भी रहा अजाना।
मैं तेरे कुल का रैदासी,
वर दे, मॅा, याचन करता हूँ।

हमने इस बस्ती में

अनजाने रस्ते हैं अजनबी इशारे हैं।
हमने इस बस्ती में दिन-रात गुज़ारे हैं।

इस बस्ती से याराना है, अपना तो आना-जाना है।
हर बार सोच कर आतें हैं, साँसों का क़र्ज़ चुकाना है।
कुछ गीत लिए फिरते हम तो बंजारे हैं।
हमने इस बस्ती में दिन-रात गुज़ारे हैं।

रिश्तों के बन्धन झूठे हैं कुछ हाथ-हाथ से छूटे हैं।
पहले तो झट आ जाते थे अब तो आँसू भी रूठे हैं।
हम जीवन के जलते-बुझते अंगारे हैं।
हमने इस बस्ती में दिन-रात गुज़ारे हैं।

दुल्हन की डोली-सा ये घर फिरते लेकर हम इधर-उधर।
ये किसे ढँढ़ती रहती है हर रोज़ नज़र – हर रोज़ नज़र।
हम धड़कन के चलते-फिरते इकतारे हैं।
हम ने इस बस्ती में दिन-रात गुज़ारे हैं।

हवा से दिल लगाता है

हवा से दिल लगाता है।
वो तिनका दूर जाता है।

नहीं जिसके क़दम रुकते,
वही रस्ता बनाता है।

पलक के बाल उलझे हों,
तो दर्पण जी चुराता है।

हमें अब गाँव की हालत,
बताने कौन आता है।

नदी की सच बयानी से,
समन्दर तिलमिलाता है।

अगर मैं भीड़ होता हूँ,
तो सन्नाटा बुलाता है।

बनज के पेड़ से कोई,
परिन्दों को उड़ाता है।

रामपुर पहले सरीखा अब रामपुर नहींं रहा

रामपुर पहले सरीखा, रामपुर अब ना रहा।
रोज़ लगता है यहाँ अब रावणों का कहकहा।।

रोज़ फाँसी पर लटकते हैं यहाँ होरी कई।
झूठ है बँटती हैं राशन की यहाँ बोरी कई।।

एक जाती दूसरी पर डालती है नित कफ़न।
खेल खेला जा रहा है मौत का अब दफ्अतन।।

हाथ ख़ाली हैं मशीने काम करती हैं यहाँ।
अब कलाई की घड़ी आराम करती है यहाँ।।

शूल बिकते हैं यहाँ अब फूल की दूकान पर।
धूल की परतें जमीं हैं ज्ञान की पहचान पर।।

गाँव की गलियाँ कभी महफूज़ थी वो दिन गए।
प्यार के चारों तरफ फैले वो सब पल-छिन गए।।

हम सभी अब सिर्फ़ पूँजी के लिए हैं नाचते।
दूसरों को लाँघने की हम विधाएँ बाँचते।।

अब नहीं तुलसी कबीरा ना यहाँ रसखान है।
भेड़िये की खाल को ओढ़े हुए इनसान हैं।।

कल पड़ोसी गाँव में फिर मजहबी दंगा हुआ।
आदमियत का वहाँ फिर ढेर सारा खूँ बहा।।

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