पसे-मर्ग मेरे मजार पर
पसे-मर्ग मेरी मजार पर जो दिया किसी ने जला दिया ।
उसे आह! दामन-ए-बाद ने सरेशाम ही से बुझा दिया ।।
मुझे दफ़्न करना तू जिस घड़ी, तो ये उससे कहना कि ऐ परी,
वो जो तेरा आशिक़-ए-जार था, तह-ए-ख़ाक उसको दबा दिया ।
दम-ए-ग़ुस्ल से मेरे पेशतर उसे हमदमों ने ये सोचकर,
कहीं जावे उसका दिल दहल, मेरी लाश पर से हटा दिया ।
मेरी आँख झपकी थी एक पल, मेरे दिल ने चाहा कि उसके चल,
दिल-ए-बेक़रार ने ओ मियाँ! वहीं चुटकी लेके जगा दिया ।
मैंने दिल दिया, मैंने जान दी, मगर आह तूने न क़द्र की,
किसी बात को जो कभी कहा, उसे चुटकियों से उड़ा दिया ।
हम तो चलते हैं लो ख़ुदा हाफ़िज़
हम तो चलते हैं लो ख़ुदा हाफ़िज़
बुतकदे के बुतों ख़ुदा हाफ़िज़
कर चुके तुम नसीहतें हम को
जाओ बस नासेहो ख़ुदा हाफ़िज़
आज कुछ और तरह पर उन की
सुनते हैं गुफ़्तगू ख़ुदा हाफ़िज़
बर यही है हमेशा ज़ख़्म पे ज़ख़्म
दिल का चाराग़रों ख़ुदा हाफ़िज़
आज है कुछ ज़ियादा बेताबी
दिल-ए-बेताब को ख़ुदा हाफ़िज़
क्यों हिफ़ाज़त हम और की ढूँढें
हर नफ़स जब कि है ख़ुदा हाफ़िज़
चाहे रुख़्सत हो राह-ए-इश्क़ में अक़्ल
ऐ “ज़फ़र” जाने दो ख़ुदा हाफ़िज़
कीजे न दस में बैठ कर
कीजे न दस में बैठ कर आपस की बातचीत
पहुँचेगी दस हज़ार जगह दस की बातचीत
कब तक रहें ख़मोश के ज़ाहिर से आप की
हम ने बहुत सुनी कस-ओ-नाकस की बातचीत
मुद्दत के बाद हज़रत-ए-नासेह करम किया
फ़र्माइये मिज़ाज-ए-मुक़द्दस की बातचीत
पर तर्क-ए-इश्क़ के लिये इज़हार कुछ न हो
मैं क्या करूँ नहीं ये मेरे बस की बातचीत
क्या याद आ गया है “ज़फ़र” पंजा-ए-निगार
कुछ हो रही है बन्द-ओ-मुख़म्मस की बातचीत
लगता नहीं है जी मेरा
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में
उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में
कितना है बदनसीब “ज़फ़र” दफ़्न के लिये
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
सुबह रो रो के शाम होती है
सुबह रो-रो के शाम होती है
शब तड़प कर तमाम होती है
सामने चश्म-ए-मस्त साक़ी के
किस को परवाह-ए-जाम होती है
कोई ग़ुंचा खिला के बुल-बुल को
बेकली ज़र-ए-दाम होती है
हम जो कहते हैं कुछ इशारों से
ये ख़ता ला-कलाम होती है
थे कल जो अपने घर में वो महमाँ कहाँ हैं
थे कल जो अपने घर में वो महमाँ कहाँ हैं
जो खो गये हैं या रब वो औसाँ कहाँ हैं
आँखों में रोते-रोते नम भी नहीं अब तो
थे मौजज़न जो पहले वो तूफ़ाँ कहाँ हैं
कुछ और ढब अब तो हमें लोग देखते हैं
पहले जो ऐ “ज़फ़र” थे वो इन्साँ कहाँ हैं
वो बेहिसाब जो पी के कल शराब आया
वो बेहिसाब जो पी के कल शराब आया
अगर्चे मस्त था मैं पर मुझे हिजाब आया
इधर ख़्याल मेरे दिल में ज़ुल्फ़ का गुज़रा
उधर वो खाता हुआ दिल में पेच-ओ-ताब आया
ख़्याल किस का समाया है दीदा-ओ-दिल में
न दिल को चैन मुझे और न शब को ख़्वाब आया
या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता
या मुझे अफ़सर-ए-शाहा न बनाया होता
या मेरा ताज गदाया न बनाया होता
ख़ाकसारी के लिये गरचे बनाया था मुझे
काश ख़ाक-ए-दर-ए-जानाँ न बनाया होता
नशा-ए-इश्क़ का गर ज़र्फ़ दिया था मुझ को
उम्र का तंग न पैमाना बनाया होता
अपना दीवाना बनाया मुझे होता तूने
क्यों ख़िरद्मन्द बनाया न बनाया होता
शोला-ए-हुस्न चमन् में न दिखाया उस ने
वरना बुलबुल को भी परवाना बनाया होता
रोज़-ए-ममूरा-ए-दुनिया में ख़राबी है ‘ज़फ़र’
ऐसी बस्ती से तो वीराना बनाया होता