पद / 1
क्यों बृथा दोष पिया को लगावत।
तो हित चन्द्रमुखी चातक बनि परसन कूँ नित चाहत॥
हैं बहु नारि रसीली ब्रज में वातो तुम कोइ चाहत।
तो हित वृन्दावन राधे सब सखियन रास दिखावत॥
तेरो रूप हिये में धारत नित निरखत सुख पावत।
विष्णुकुँवरि राधे तव चरननि हाथ जोड़ि सिर नावत॥
पद / 2 /
छोड़ि कुल कानि और आनि गुरुलोगन की,
जीवन सु एक निज जाति हित मानी है।
दरस उपासा प्रेम-रस की पियासी वाके,
पद की सुदासी दया-दीठि की बिकानी है॥
श्रीमुख-मयंक की चकोरी ये सुखोरी बीच,
ब्रज की फिरति है ह्वै भोरी दुख सानी है।
जिन्हें अतिमानी चख-पूतरी सी जानी,
हम सों ते रारि ठानी अब कूबरी मिठानी है॥
पद / 3
नैन कू प्यारे करि रख्यो श्याम।
प्यारी के वारने जाउ मैं नैन सों मेरो काम।
ब्रजसुन्दरी कहौ मेरी मानो प्राण ते प्यारी बाय।
छैल की प्यारी सुनो राधेरानी तुम्हें देख नहिं काम।
विष्णु कुँवारि रीझि पिय बोली छोड़ नैन के नाम॥
पद / 4
वृन्दावन-पावस छायो।
चहूँ दिसि कारे अम्बर छाये नीलमणी प्रिय मुख छायो॥
कोयल कूक सुमन कोमल के कालिंदि कूल सुहायो।
विष्णु कुँवरि जग श्याम रँग छायो श्यामहि सिंधु समायो॥
पद / 5
सुन्दर सुरंग अंग अंग पै अनंग वारो,
जाके पद-पंकज में पंकज दुखारो है।
पीत पटवारो मुख मुरली सँवारो प्यारो,
कुण्डल झलक मुख मोर पंख धारो है॥
कोटिन सुधाकर को सुखमा सुहात जाके,
मुख माँ लुभाती रमा रंभा सी हजारो है।
नन्द को दुलारो श्रीयशोदा को पियारो,
जौन भक्त सुख सारो सो हमारो रखवारो है।
पद / 6
निरमोही कैसो जिय तरसावै।
पहले झलक दिखाय हमै कूँ अब क्यों बेगि न आवै।
कब सों तलफत मै री सजनी वाको दरद न आवै।
विष्णु कुँवरि दिल में आ करके ऐसो पीर मिटावै॥
पद / 7
अबै मत जाओ प्राण-पियारे।
तुम्हें देख मन भयो उमँग में मेरो चित्त चुरायो रे॥
कहा कहँ या छवि बलिहारी नैनन में ठहरायो रे।
विष्णु कुँवारि पकड़ि चरनन को बरबस हृदय लगायो रे॥
पद / 8
बाजै री बँसुरिया मनभावन की।
तुम हो रसिक रसीली वंशी अति सुन्दर या मन की।
या मुख ले वाको रस पीवे अंग अंग सुख या तन की॥
शोभा निरखत सखी सबै मिलि बिष्णु कँुवरि सुख पावन की॥
पद / 9
रूप परस्पर दोऊ लुभाने।
नैन बैन सब मोहि रहे हैं सब हैं हाथ बिकाने।
अधिक पिया प्यारी की छवि पर करत न कछु अनुमाने॥
प्रिया हुलस प्रीतम-अंग लागे बहुत उचक ललचाने।
विष्णु कुँवरि सखियाँ सब बोलीं मन मेरो उमगाने॥
पद / 10
श्याम सों होरी खेलन आई।
रंग गुलाल की झोरि लिये सब नवला सज-सज आई।
बाके नैन चपल चल रीझै प्रियतम पै टकटकी लगाई॥
होड़ी-होड़ी देखा-देखी होरी की रँग छाई।
उतै सखन सँग आय बिराजे सुन्द त्रिभुवनराई॥
इतै सखिन सँग होरी खेलन राधेजू चलि आई।
बारम्बार अबीर उड़ावै डार कृष्ण अँग धाई॥
दाऊजी पिचकारि चलावै सुन्दरि मारि हटाई।
मधुर मधुर मुसुकात जाय पकड़े हलधर को भाई॥
राधेजू के नवल बदन से साड़ी देय हटाई।
निरखि अनूपम होरी खेलन सब ही हँसे ठठाई॥
विष्णु कुँवारि सखियाँ सब छोड़ीं हलधर भे सुखदाई।