यार क्यों हो गया ख़फ़ा मुझसे
यार क्यों हो गया ख़फ़ा मुझसे
ऐसी क्या हो गई ख़ता मुझसे
ज़ख़्म ये दिल पे मेरे कैसे हुए
हाल कोई तो पूछता मुझसे
वक़्त की बेरुखी का क्या कहना
साथ हो कर भी है जुदा मुझसे
कोई क़ातिल है उनके रुख़ का तिल
जान मेरी वोले गया मुझसे
नींव बोली कि ऐ कँगूरेसुन
ये बुलंदी हुई अता मुझसे
मंज़िलें ख़ुद ही पास आएँगी
ले के चल हौसला ज़रा मुझसे
हार में ग़म न ‘जीत’में ख़ुशियाँ
सीख लीजे ये फ़ल्सफ़ा मुझसे
दूर होता ये अँधेरा क्यों नहीं
दूर होता ये अँधेरा क्यों नहीं
कोई चेह्रा साफ़ दिखता क्यों नहीं
एक अंधी दौड़ में है ज़िंदगी
मिल सका अब तक किनारा क्यों नहीं
रौशनी हर झौंपड़ी को चाहिए
कोई दीपक टिमटिमाता क्यों नहीं
मंज़िले मक़्सूद मिल जाती तुझे
हौसला कुछ देर रक्खा क्यों नहीं
मुद्दतों से है ज़रूरत अम्न की
ख़ात्मा फ़ित्नों का होता क्यों नहीं
मंदिरों या मस्जिदों में है न वो
दिल के गलियारों में ढूँढ़ा क्यों नहीं
थे उजाले ही जहाँ, अब उस जगह
कोई जुगनू भी चमकता क्यों नहीं
मेरी आँखों के अश्क़ों का
मेरी आँखों के अश्क़ों का बस इतना अफ़साना है
खुशियों में हीरे और ग़म में मोती बन कर आना है
दिल से बोली आँख – हमारी ख्वाहिश कब पूरी होगी
मिलने का अरमान तुझे और मुझको दर्शन पाना है
मेरी सच्ची बातें उनको चुभती हैं नश्तर जैसी
कोई कहता पागल है, कोई कहता दीवाना है
मंदिर मस्जिद गिर्जाघर गुरुद्वारों में क्या ढूँढ रहे
दिल-दिल के उस कारीगर का दिल ही ठौर-ठिकाना है
हिंदी-उर्दू, हिंदू-मुस्लिम साथ रहे हैं, साथ रहें
इनको अलगाने का मतलब दिल के घाव बढ़ाना है
कविता, गीत, ग़ज़ल, दोहे, कुछ भी लिखना आसान नहीं
दिल के दर्दों को चुन कर कोरे काग़ज़ पर लाना है
‘जीत’ सभी को प्यारी लगती, लेकिन मैं यह कहता हूँ
दिल की बाज़ी जो हारा, वह ही जीता मस्ताना है
वक़्त कैसे दिल दुखाने वाले
वक़्त कैसे दिल दुखाने वाले मंज़र दे गया
ज़िंदगी भर के लिए ग़म का समुंदर दे गया
दोस्ती के अर्थ हम क्या ख़ाक समझाएँ उसे
जो हमारी पीठ में पीछे से ख़ंजर दे गया
सूर्य आज़ादी का रौनक़ लाएगा ये थी उमीद
पर फ़क़त धूलों भरा वह तो बवंडर दे गया
मार बेकारी की ऐसी नौजवानों पर पड़ी
दौर ये बेवक़्त उनको अस्थिपंजर दे गया
एक घर के वास्ते तरसा किये हम उम्र-भर
पर मुक़द्दर घर के बदले एक खँडहर दे गया
इस चमन के मालियों की नस्ल ऐसी हो गई
जो भी आया इस चमन को एक बंजर दे गया
एक ही मंज़िल के जब हैं रास्ते मज़हब सभी
मश्विरा लड़ने का हमको कौन आकर दे गया
फल रही है बेईमानी शान से
फल रही है बेईमानी शान से
जा रही ईमानदारी जान से
लोग यों कहने लगे हैं, आजकल
जी नहीं सकता कोई ईमान से
चढ़ गया फाँसी भरे-बाज़ार सच
घूमता है झूठ आनो-बान से
देख कर बेटी सयानी बाप का
रो उठा मन रुख़्सती के ध्यान से
इल्म की है क़द्र रत्ती-भर नहीं
काम होते हैं यहाँ पहचान से
धर्म से इंसान डरता थाकभी
धर्म डरता आज खुद इंसान से
‘जीत’ देखो बेबसी इस दौर की
न्याय बिकता कौड़ियों के मान से
वो जिसने बेवफ़ाई की तो
वो जिसने बेवफ़ाई की तो क्या मैं दूँ भुला उसको
वो जिसने दिल दुखाया है तो क्या दूँ मैं दुआ उसको
मसर्रत छीन ली जिसने, सुकूँ छीना मेरे दिल का
बता तू ही दिले नादां कि मैं दूँ क्या सज़ा उसको
ज़माने में मुहब्बतदाँ तो हमने ख़ूब देखे हैं
मगर ऐसा नहीं, जो दे वफ़ा का मश्विरा उसको
मेरे हर रोम में सिहरन,ज़बाँ में भर गई लरज़िश
कि अनजाने में ही इक रोज़ जब मैने छुआ उसको
वो जज़्बाती है, नादाँ है, दग़ाबाज़ी भी करता है
मगर है दोस्त वो मेरा मैं कैसे दूँ दग़ा उसको
न गौतम हूँ, न गाँधी हूँ, पयम्बर भी नहीं हूँ मैं
मगर महसूस करता हूँ कि अब कर दूँ क्षमा उसको
लिया है ‘जीत’ हमने साथ रहकर एक-दूजे को
न अब मुझको गिला उससे न मुझसे अब गिला उसको