हर रविश ख़ाक उड़ाती है सबा मेरे बाद
हर रविश ख़ाक उड़ाती है सबा मेरे बाद
हो गई और ही गुलशन की हवा मेरे बाद
क़त्ल से अपने बहुत ख़ुश हूँ वले ये ग़म है
दस्त-ए-क़ातिल को बहुत रंज हुआ मेरे बाद
मुझ सा बद-नाम कोई इश्क़ में पैदा न हुआ
हाँ मगर कै़स का कुछ नाम हुआ मेरे बाद
वो जो बर्गश्तगी-ए-बख़्त थी हरगिज़ न गई
ख़ाक-ए-मरक़द से मेरे चाक बना मेरे बाद
वलवला जोश-ए-जुनूँ का था मुझी तक ‘गोया’
नज़र आया न कोई आबला-पा मेरे बाद
हसरत ऐ जाँ शब-ए-जुदाई है
हसरत ऐ जाँ शब-ए-जुदाई है
मुज़दा ऐ दिल के मौत आई हैं
फिर गया जब से वो सनम ब-ख़ुदा
हम से बर्गश्ता इक ख़ुदाई है
तुम मेरे कज़-कुलाह को देखो
ये भला किस में मीरजाई है
दिल में आता है राह-ए-चश्म से वो
ख़ूब-ये राह-ए-आशनाई है
ज़ाहिदो कुदरत-ए-ख़ुदा देखो
बुत को भी दावा-ए-ख़ुदाई है
काबे जाने से मना करते हैं
क्या बुतों के ही घर ख़ुदाई है
हुस्न ने मुल्क-ए-दिल किया ताराज
हज़रत-ए-इश्क़ की दुहाई है
खोल दी है ज़ुल्फ़ किस ने फूल से रूख़्सार पर
खोल दी है ज़ुल्फ़ किस ने फूल से रूख़्सार पर
छा गई काली घटा सी आन कर गुल-ज़ार पर
क्या ही अफ़शां है जबीन ओ अबरू-ए-ख़म-दार पर
है चराग़ाँ आज काबे के दर ओ दीवार पर
हम अज़ल से इंतिज़ार-ए-यार में सोए नहीं
आफ़रीं कहिए हमारे दीदा-ए-बेदार पर
कुफ्र अपना ऐन दीं-दारी है गर समझे कोई
इज्तिमा-ए-सुब्हा याँ मौकूफ है जु़न्नार पर
है अगर इरफाँ का तालिब ख़ाक-सारी कर शिआर
देखते हैं आइना अक्सर लगा दीवार पर
किस कदर मुझ को ना-तवानी है
किस कदर मुझ को ना-तवानी है
बार-ए-सर से भी सर-गिरानी है
हम नहीं शमा हों जो अश्क-फिशां
कार-ए-उष्षाक़ जाँ-फ़िषानी हैं
दिल भी उस से उठा नहीं सकते
ना-तवानी सी ना-तवानी है
क़द-ए-मौजूँ के इशक़ में ‘गोया’
रात दिन शुग़्ल-ए-शेर-ख़्वानी है
मुँह ढाँप के मैं जो रो रहा हूँ
मुँह ढाँप के मैं जो रो रहा हूँ
इक पर्दा-नशीं का मुब्तला हूँ
तेरी सी न बू किसी में पाई
सारे फूलों को सूँघता हूँ
आईना है जिस्म-ए-साफ उस का
क्यूँकर न कहे मैं ख़ुद-नुमा हूँ
इतनी तू जफ़ाएँ कर ने ऐ बुत
आख़िर मैं बंद-ए-ख़ुदा हूँ
अब तो मुझे ग़ैब-दाँ कहें सब
मैं तेरी कमर को देखता हूँ
बुलबुल है चमन में एक हम-दर्द
मैं भी किसी गुल का मुब्तला हूँ
‘गोया’ हूँ वक़्त का सुलेमाँ
परियों पर हुक्म कर रहा हूँ
ये बे-सिबात बहार-ए-रियाज़-ए-हस्ती है
ये बे-सिबात बहार-ए-रियाज़-ए-हस्ती है
कली जो चटकी तो हस्ती पर अपनी हंसती है
क्या है चाक गिरेबान रोज़-ए-महशर तक
ये अपने जोश-ए-जुनूँ की दराज़-दस्ती है
बस एक तौबा पे आती है मग़फिरत तेरे हाथ
ख़रीद कर के निहायत ये जिंस सस्ती है
असीर कर के हमें खुश न होजियाँ सय्याद
के तू भी याँ तो गिरफ़्तार-ए-दाम-ए-हस्ती है
चे ख़ुश बवद के बर आएद ब-यक करिश्मा दोकार
सनम बग़ल में है दिल महव-ए-हक़-परस्ती है
है ख़ूब पहले से ‘गोया’ करूँ मैं तर्क-ए-सुख़न
के एक दम में ये ख़ामोश शम्मा-ए-हस्ती है
ये इक तेरा जलवा समन चार सू है
ये इक तेरा जलवा समन चार सू है
नज़र जिस तरफ़ कीजिए तू ही तू है
ये किस मस्त के आने की आरजू़ है
के दस्त-ए-दुआ आज दस्त-ए-सुबू है
न होगा कोई मुझ सा महव-ए-तसव्वुर
जिसे देखता हूँ समझता हूँ तू है
मुकद्दर न हो यार तो साफ़ कह दूँ
न क्यूँकर हो ख़ुद-बीं के आईना-रू है
कभी रूख़ की बातें कभी गेसुओं की
सहर ये यही षाम तक गुफ़्तुगू है
किसी गुल के कूचे से गुज़री है शायद
सबा आज जो तुझ में फूलों की बू है
नहीं चाक-दामन कोई मुझ सा ‘गोया’
न बख़िया की ख़्वाहिश न फ़िक्र-ए-रफू है